HI/Prabhupada 0610 - जब तक कोई वर्ण और आश्रम की संस्था को अपनाता नहीं है, वह मनुष्य नहीं है: Difference between revisions

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अगर तुम काल्पनिक प्रक्रिया द्वारा श्री कृष्ण या भगवान को जानना चाहते हो, न केवल एक वर्ष के लिए, दो साल ... पंथास तु कोटि-शत-वत्सर संप्रगम्यो वायोर अथापि । मानसिक अटकलें नहीं, लेकिन हवाई जहाज पर जो वायु की गति पर चल रहा है, या हवा, या मन, मन की गति, फिर भी, कई करोड़ साल उडने के बाद, तुम नहीं पहुँच सकते । फिर भी, यह अविचिन्त्य है, समझ से बाहर । लेकिन अगर तुम इस कृष्ण योग की प्रक्रिया को अपनाते हो, या भक्ति योग को, तो तुम्हे बहुत आसानी से कृष्ण के बारे में पता चल सकता है । भक्त्या माम अभिजानाति यावान यश् चास्मि तत्वत: ([[Vanisource:BG 18.55|भ गी १८।५५]]) अल्पज्ञता से कृष्ण को समझना, वह पर्याप्त नहीं है । यह भी अच्छा है, लेकिन तुम्हे तत्वत: वास्तव में कृष्ण हैं क्या, यह समझना अावश्यक है । यह ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है - भक्त्या इस कृष्ण योग द्वारा । अन्यथा,
अगर तुम काल्पनिक प्रक्रिया द्वारा कृष्ण या भगवान को जानना चाहते हो, न केवल एक वर्ष के लिए, दो साल... पंथास तु कोटि-शत-वत्सर संप्रगम्यो वायोर अथापि । मानसिक अटकलें नहीं, लेकिन हवाई जहाज पर जो वायु की गति पर चल रहा है, या हवा, या मन की गति पर, मन की गति, फिर भी, कई करोड़ साल उडने के बाद, तुम नहीं पहुँच सकते । फिर भी, यह अविचिन्त्य है, समझ से बाहर ।  


:मनुष्याणाम सहस्रेशु
लेकिन अगर तुम इस कृष्ण योग की प्रक्रिया को अपनाते हो, या भक्ति योग को, तो तुम्हे बहुत आसानी से कृष्ण के बारे में पता चल सकता है । भक्त्या माम अभिजानाति यावान यश चास्मि तत्वत: ([[HI/BG 18.55|भ.गी. १८.५५]]) | अल्पज्ञता से कृष्ण को समझना, वह पर्याप्त नहीं है । यह भी अच्छा है, लेकिन तुम्हे तत्वत: वास्तव में कृष्ण हैं क्या, यह समझना अावश्यक है । यह ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है - भक्त्या इस कृष्ण योग द्वारा । अन्यथा,
:कश्चिद यतति सिद्धये
:यतताम अपि सिद्धानाम
:कश्चिन माम वेत्ति तत्वत:
:([[Vanisource:BG 7.3|भ गी ७।३]])


पूरी दुनिया में इतने सारे मनुष्य हैं । ज्यादातर, वे जानवरों की तरह हैं - संस्कृति के बिना । क्योंकि हमारी वैदिक संस्कृति के अनुसार, जब तक कोई वर्न और आश्रम की संस्था को अपनाता नहीं है, वह मनुष्य नहीं है । उन्होंने स्वीकार नहीं किया जाता है । तो इसलिए कृष्ण कहते हैं मनुष्याणाम सहस्रेशु । कौन इस वर्णाश्रम को स्वीकार कर रहा है ? नहीं । अफरा तफरी की हालत । तो उस अराजक स्थिति में तुम नहीं समझ सकते हो कि भगवान हैं क्या, कृष्ण क्या हैं । इसलिए कृष्ण कहते हैं मनुष्याणाम सहस्रेशु । कई, कई हजारों और लाखों लोगों में, कोई एक वर्णाश्रम धर्म के वैज्ञानिक संस्थान को अपनाता है । उसका मतलब है वेदों के अनुयायि, सख्ती से । इन व्यक्तियों में से जो वैदिक सिद्धांतों का पालन कर रहे हैं, ज्यादातर वे कर्म-कांडा से जुड़े हैं, , कर्मकांड समारोह । तो कई लाखों व्यक्ति जो कर्मकांडों समारोह में लगे हुए हैं, कोई एक ज्ञान में उन्नत होता है । उन्हे ज्ञानी कहा जाता है, या काल्पनिक दार्शनिक । कर्मी नहीं, लेकिन ज्ञानी । तो ऐसे jकई लाखोम ज्ञानी में, एक मुक्त हो जाता है, मुक्त । ब्रह्म भूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्शति ([[Vanisource:BG 18.54|भ गी १८।५४]]) यह मुक्त मंच है । जो ब्रह्मण बोध आत्मा है, उसे विलाप करने के लिए कुछ भी नहीं है या लालायित होने के लिए कुछ भी नहीं है । क्योंकि कर्मी स्तर पर हमें दो रोग होते हैं : उत्कंठा और विलाप । जो कुछ भी है तुम्हारे पास, अगर वह खो जाए, तो मैं विलाप करता हूँ । "ओह, मेरे पास यह था और वह था और यह अब खो गया है ।" और जो हमारे पास नहीं है, जो उसके पीछे लालायित होते हैं । तो पाने के लिए, हम लालायित होते हैं, हम इतनी मेहनत से काम करते हैं । अौर जब यह खो जाता है, हम फिर से विलाप और रोते हैं । यह कर्मी मंच है । तो ब्रह्म-भूत: चरण ... ज्ञान चरण का मतलब है कोई विलाप या उत्कंठा नहीं होती है । प्रसन्नात्तमा । "ओह, मैं हूँ, अहम् ब्रह्मास्मि । मेरा इस शरीर के साथ क्या लेना देना है ? मेरा काम है दिव्य ज्ञान को प्राप्त करना , ब्रह्म ज्ञान ।" तो उस अवस्था में, ब्रह्म भूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्शति सम: सर्वेषु भूतेषु ([[Vanisource:BG 18.54|भ गी १८।५४]]) यही परीक्षा है । उसे कोई विलाप नहीं है । उसे कोई उत्कंठा नहीं है । और वे हर किसी से बराबर व्यवहार करता है । पंडित: सम-दर्शिन: ।
:मनुष्याणाम सहस्रेशु  
:कश्चिद यतति सिद्धये,  
:यतताम अपि सिद्धानाम,  
:कश्चिन माम वेत्ति तत्वत:  
:([[HI/BG 7.3|भ.गी. ७.३]])  


:विद्या-विनय-संपन्ने
पूरी दुनिया में इतने सारे मनुष्य हैं । ज्यादातर, वे जानवरों की तरह हैं - संस्कृति के बिना । क्योंकि हमारी वैदिक संस्कृति के अनुसार, जब तक कोई वर्ण और आश्रम की संस्था को अपनाता नहीं है, वह मनुष्य नहीं है । उसे स्वीकार नहीं किया जाता है । तो इसलिए कृष्ण कहते हैं मनुष्याणाम सहस्रेशु । कौन इस वर्णाश्रम को स्वीकार कर रहा है ? नहीं । अफरा तफरी की हालत । तो उस अराजक स्थिति में तुम नहीं समझ सकते हो कि भगवान क्या हैं, कृष्ण क्या हैं ।
:ब्रहमणे गवि हस्तिनि
:शुनि चैव श्व-पाके च
:पंडित: सम-दर्शिन:
:([[Vanisource:BG 5.18|भ गी ५।१८]])


वह भेद भाव नहीं करता है । तो इस तरह से, जब कोई स्थित है, फिर मद-भक्तिम लभते पराम ([[Vanisource:BG 18.54|भ गी १८।५४]]), फिर वह भक्ति के मंच पर आता है । अौर जब वह भक्ति मंच पर अाता है, भक्त्या माम अभिजानाति यावान यश चास्मि तत्वत: ([[Vanisource:BG 18.55|भ गी १८।५५]]), तो वह सक्षम होता है ।
इसलिए कृष्ण कहते हैं मनुष्याणाम सहस्रेशु । कई, कई हजारों और लाखों लोगों में, कोई एक वर्णाश्रम धर्म के वैज्ञानिक संस्थान को अपनाता है । उसका मतलब है वेदों के अनुयायी, सख्ती से । इन व्यक्तियों में से जो वैदिक सिद्धांतों का पालन कर रहे हैं, ज्यादातर वे कर्म-कांड से जुड़े हैं, कर्मकांड समारोह । तो कई लाखों व्यक्ति जो  कर्मकांड समारोह में लगे हुए हैं, कोई  एक ज्ञान में उन्नत होता है । उन्हे ज्ञानी कहा जाता है, या काल्पनिक तत्वज्ञानी । कर्मी नहीं, लेकिन ज्ञानी । तो ऐसे कई लाखो ज्ञानी में, एक मुक्त हो जाता है, मुक्त । ब्रह्म-भूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति ([[HI/BG 18.54|भ.गी. १८.५४]]) | यह मुक्त मंच है ।
 
जो ब्रह्म साक्षात्कारी आत्मा है, उसे विलाप करने के लिए कुछ भी नहीं है या लालायित होने के लिए कुछ भी नहीं है । क्योंकि कर्मी स्तर पर  हमें दो रोग होते हैं: उत्कंठा और विलाप । जो कुछ भी है तुम्हारे पास, अगर वह खो जाए, तो मैं विलाप करता हूँ । "ओह, मेरे पास यह था और वह था और यह अब खो गया है ।" और जो हमारे पास नहीं है, हम उसके पीछे लालायित होते हैं । तो पाने के लिए, हम लालायित होते हैं, हम इतनी मेहनत से काम करते हैं । अौर जब यह खो जाता है, हम फिर से विलाप और रोते हैं । यह कर्मी मंच है ।
 
तो ब्रह्म-भूत: चरण... ज्ञान चरण का मतलब है कोई विलाप या उत्कंठा नहीं होती है । प्रसन्नात्मा । "ओह, मैं अहम ब्रह्मास्मि हूँ । मेरा इस शरीर के साथ क्या लेना देना है ? मेरा काम है दिव्य ज्ञान, ब्रह्म ज्ञान, को प्राप्त करना ।" तो उस अवस्था में, ब्रह्म भूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति सम: सर्वेषु भूतेषु ([[HI/BG 18.54|भ.गी. १८.५४]]) | यही परीक्षा है । उसे कोई विलाप नहीं है । उसे कोई उत्कंठा नहीं है । और वे हर किसी से बराबर व्यवहार करता है । पंडिता: सम-दर्शिन: ।
 
:विद्या-विनय-संपन्ने
:ब्राह्मणे गवि हस्तिनि,
:शुनि चैव श्व-पाके च-
:पंडिता: सम-दर्शिन:
:([[HI/BG 5.18|भ.गी. ५.१८]])
 
वह भेद भाव नहीं करता है । तो इस तरह से, जब कोई स्थित है, फिर मद-भक्तिम लभते पराम ([[HI/BG 18.54|भ.गी. १८.५४]]), फिर वह भक्ति के मंच पर आता है । अौर जब वह भक्ति मंच पर अाता है, भक्त्या माम अभिजानाति यावान यश चास्मि तत्वत: ([[HI/BG 18.55|भ.गी. १८.५५]]), तो वह सक्षम होता है ।  
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Latest revision as of 18:57, 17 September 2020



Lecture on BG 7.1 -- Calcutta, January 27, 1973

अगर तुम काल्पनिक प्रक्रिया द्वारा कृष्ण या भगवान को जानना चाहते हो, न केवल एक वर्ष के लिए, दो साल... पंथास तु कोटि-शत-वत्सर संप्रगम्यो वायोर अथापि । मानसिक अटकलें नहीं, लेकिन हवाई जहाज पर जो वायु की गति पर चल रहा है, या हवा, या मन की गति पर, मन की गति, फिर भी, कई करोड़ साल उडने के बाद, तुम नहीं पहुँच सकते । फिर भी, यह अविचिन्त्य है, समझ से बाहर ।

लेकिन अगर तुम इस कृष्ण योग की प्रक्रिया को अपनाते हो, या भक्ति योग को, तो तुम्हे बहुत आसानी से कृष्ण के बारे में पता चल सकता है । भक्त्या माम अभिजानाति यावान यश चास्मि तत्वत: (भ.गी. १८.५५) | अल्पज्ञता से कृष्ण को समझना, वह पर्याप्त नहीं है । यह भी अच्छा है, लेकिन तुम्हे तत्वत: वास्तव में कृष्ण हैं क्या, यह समझना अावश्यक है । यह ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है - भक्त्या इस कृष्ण योग द्वारा । अन्यथा,

मनुष्याणाम सहस्रेशु
कश्चिद यतति सिद्धये,
यतताम अपि सिद्धानाम,
कश्चिन माम वेत्ति तत्वत:
(भ.गी. ७.३)

पूरी दुनिया में इतने सारे मनुष्य हैं । ज्यादातर, वे जानवरों की तरह हैं - संस्कृति के बिना । क्योंकि हमारी वैदिक संस्कृति के अनुसार, जब तक कोई वर्ण और आश्रम की संस्था को अपनाता नहीं है, वह मनुष्य नहीं है । उसे स्वीकार नहीं किया जाता है । तो इसलिए कृष्ण कहते हैं मनुष्याणाम सहस्रेशु । कौन इस वर्णाश्रम को स्वीकार कर रहा है ? नहीं । अफरा तफरी की हालत । तो उस अराजक स्थिति में तुम नहीं समझ सकते हो कि भगवान क्या हैं, कृष्ण क्या हैं ।

इसलिए कृष्ण कहते हैं मनुष्याणाम सहस्रेशु । कई, कई हजारों और लाखों लोगों में, कोई एक वर्णाश्रम धर्म के वैज्ञानिक संस्थान को अपनाता है । उसका मतलब है वेदों के अनुयायी, सख्ती से । इन व्यक्तियों में से जो वैदिक सिद्धांतों का पालन कर रहे हैं, ज्यादातर वे कर्म-कांड से जुड़े हैं, कर्मकांड समारोह । तो कई लाखों व्यक्ति जो कर्मकांड समारोह में लगे हुए हैं, कोई एक ज्ञान में उन्नत होता है । उन्हे ज्ञानी कहा जाता है, या काल्पनिक तत्वज्ञानी । कर्मी नहीं, लेकिन ज्ञानी । तो ऐसे कई लाखो ज्ञानी में, एक मुक्त हो जाता है, मुक्त । ब्रह्म-भूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति (भ.गी. १८.५४) | यह मुक्त मंच है ।

जो ब्रह्म साक्षात्कारी आत्मा है, उसे विलाप करने के लिए कुछ भी नहीं है या लालायित होने के लिए कुछ भी नहीं है । क्योंकि कर्मी स्तर पर हमें दो रोग होते हैं: उत्कंठा और विलाप । जो कुछ भी है तुम्हारे पास, अगर वह खो जाए, तो मैं विलाप करता हूँ । "ओह, मेरे पास यह था और वह था और यह अब खो गया है ।" और जो हमारे पास नहीं है, हम उसके पीछे लालायित होते हैं । तो पाने के लिए, हम लालायित होते हैं, हम इतनी मेहनत से काम करते हैं । अौर जब यह खो जाता है, हम फिर से विलाप और रोते हैं । यह कर्मी मंच है ।

तो ब्रह्म-भूत: चरण... ज्ञान चरण का मतलब है कोई विलाप या उत्कंठा नहीं होती है । प्रसन्नात्मा । "ओह, मैं अहम ब्रह्मास्मि हूँ । मेरा इस शरीर के साथ क्या लेना देना है ? मेरा काम है दिव्य ज्ञान, ब्रह्म ज्ञान, को प्राप्त करना ।" तो उस अवस्था में, ब्रह्म भूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति सम: सर्वेषु भूतेषु (भ.गी. १८.५४) | यही परीक्षा है । उसे कोई विलाप नहीं है । उसे कोई उत्कंठा नहीं है । और वे हर किसी से बराबर व्यवहार करता है । पंडिता: सम-दर्शिन: ।

विद्या-विनय-संपन्ने
ब्राह्मणे गवि हस्तिनि,
शुनि चैव श्व-पाके च-
पंडिता: सम-दर्शिन:
(भ.गी. ५.१८)

वह भेद भाव नहीं करता है । तो इस तरह से, जब कोई स्थित है, फिर मद-भक्तिम लभते पराम (भ.गी. १८.५४), फिर वह भक्ति के मंच पर आता है । अौर जब वह भक्ति मंच पर अाता है, भक्त्या माम अभिजानाति यावान यश चास्मि तत्वत: (भ.गी. १८.५५), तो वह सक्षम होता है ।