HI/Prabhupada 0692 - भक्ति योग, योग सिद्धांतों का सर्वोच्च मंच है: Difference between revisions

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भक्त: "योगी पुरुष तपस्वी से, ज्ञानी से तथा सकामकर्मी से बढ़कर होता है । अत: हे अर्जुन, तुम सभी प्रकार से योगी बनो । "  
भक्त: "योगी पुरुष तपस्वी से, ज्ञानी से तथा सकाम कर्मी से बढ़कर होता है । अत: हे अर्जुन, तुम सभी प्रकार से योगी बनो ।"  


प्रभुपाद: योगी, भौतिक जीवन की उच्चतम पूर्णता है । इस भौतिक दुनिया में जीवन के विभिन्न स्तर हैं, लेकिन अगर हम योग सिद्धांत में खुद को स्थापित करते हैं, विशेष रूप से इस भक्ति-योग सिद्धांत में, इसका मतलब है कि वह जीवन का सबसे पूर्ण चरण में रह रहा है । तो श्री कृष्ण अर्जुन को सलाह दे रहे हैं, "मेरे प्रिय मित्र अर्जुन , सभी परिस्थितियों में, तुम एक योगी रहो, एक योगी रहो ।" हाँ, अागे पढो ।  
प्रभुपाद: योगी, भौतिक जीवन की उच्चतम पूर्णता है । इस भौतिक दुनिया में जीवन के विभिन्न स्तर हैं, लेकिन अगर हम योग सिद्धांत में खुद को स्थापित करते हैं, विशेष रूप से इस भक्ति-योग सिद्धांत में, इसका मतलब है कि वह जीवन के सबसे पूर्ण चरण में रह रहा है । तो कृष्ण अर्जुन को सलाह दे रहे हैं, "मेरे प्रिय मित्र अर्जुन, सभी परिस्थितियों में, तुम एक योगी रहो, एक योगी रहो ।" हाँ, अागे पढो ।  


भक्त: "और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है, वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूफ में युक्त रहता है अौर सबों में सर्वोच्व है ।"  
भक्त: "और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है, वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में युक्त रहता है अौर सबों में सर्वोच्च है ।"  


प्रभुपाद: अब, यहाँ यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सभी योगियों में - योगि विभिन्न प्रकार के होते हैं। अष्टांग-योगी, हठ-योगी, ज्ञान-योगी, कर्म-योगी, भक्ति-योगी। तो भक्ति-योग योग सिद्धांतों का सर्वोच्च मंच है । तो श्री कृष्ण यहाँ कहते हैं, "और सब योगियों में ।" योगि विभिन्न प्रकार के होते हैं। "सभी योगियों में जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है," - श्री कृष्ण में । मे का मतलब है, श्री कृष्ण कहते हैं, "मुझ में ।" इसका मतलब है जो हमेशा कृष्ण भावनामृत में है जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है, वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूफ में युक्त रहता है अौर सबों में सर्वोच्व है ।" यह इस अध्याय का प्रधान निर्देश है, सांख्य-योग कि अगर तुम उच्चतम स्तर पर पूर्ण योगी बनना चाहते हो, तब तुम अपने को कृष्ण भावनामृत में रखो और तुम प्रथम श्रेणी के योगी बन जाते हो । अागे पढो ।  
प्रभुपाद: अब, यहाँ यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सभी योगियों में - योगी विभिन्न प्रकार के होते हैं । अष्टांग-योगी, हठ-योगी, ज्ञान-योगी, कर्म-योगी, भक्ति-योगी । तो भक्ति-योग योग सिद्धांतों का सर्वोच्च मंच है । तो कृष्ण यहाँ कहते हैं, "और सभी योगियों में ।" योगी विभिन्न प्रकार के होते हैं । "सभी योगियों में जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है," - श्री कृष्ण में । मे का मतलब है, श्री कृष्ण कहते हैं, "मुझ में ।" इसका मतलब है जो हमेशा कृष्ण भावनामृत में है | जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है, वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में युक्त रहता है अौर सबों में सर्वोच्च है ।" यह इस अध्याय का प्रधान निर्देश है, सांख्य-योग, की अगर तुम उच्चतम स्तर पर पूर्ण योगी बनना चाहते हो, तब तुम अपने को कृष्ण भावनामृत में रखो और तुम प्रथम श्रेणी के योगी बन जाते हो । अागे पढो ।  


भक्त: तात्पर्य: "यहॉ पर संस्कृत शब्द भजते महत्वपूर्ण है।"  
भक्त: तात्पर्य: "यहॉ पर संस्कृत शब्द भजते महत्वपूर्ण है।"  


प्रभुपाद: यह शब्द भजते मूल संस्कृत श्लोक में प्रकट होता है  
प्रभुपाद: यह शब्द भजते मूल संस्कृत श्लोक में प्रकट होता है,


:योगिनाम अपि सर्वेषाम
:योगिनाम अपि सर्वेषाम  
:मद-गतेनान्तर अात्मना
:मद-गतेनान्तर अात्मना  
:श्रद्धावान भजते यो माम
:श्रद्धावान भजते यो माम  
:स मे युक्ततमो मत:
:स मे युक्ततमो मत:  
:([[Vanisource:BG 6.47|भ गी ६।४७]])
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यह भजते, यह भजते, यह शब्द, संस्कृत शब्द, यह भज मूल से अाता है, भज-धातु । यह एक क्रिया है, भज-धातु । भज का मतलब है सेवा प्रदान करना । भज । तो यह बहुत शब्द इस श्लोक में प्रयोग किया गया है, भज-धाता । इसका मतलब है जो भक्त है । कौन श्री कृष्ण को सेवा प्रदान करता है एक भक्त के अलावा ? मान लो तुम यहाँ सेवा प्रदान कर रहे हो । क्यूँ ? तुम कहीं भी सेवा प्रदान कर सकते हो, तुम्हे हजार डॉलर या दो हजार डॉलर हर महीने मिलते हैं । लेकिन तुम यहॉ आते हो और अपनी सेवा प्रदान करते हो बिना किसी वेतन के । क्यूँ? श्री कृष्ण के लिए प्रेम के कारण । इसलिए यह भज, यह सेवा, प्रेम से सेवा, भगवान के लिए प्रेम पर आधारित है । अन्यथा क्यों कोई अपना समय बर्बाद करना चाहेगा ? यहाँ ये छात्र, वे कई कार्यों में लगे हुए हैं । कोई उद्यान में काम कर रहा है, कोई टाइपिंग कर रहा है, कोई भोजन पका रहा है, कोई कुछ और कर रहा है, सब कुछ । लेकिन यह श्री कृष्ण के संबंध में है । इसलिए कृष्ण भावनामृत, हमेशा, चौबीस घंटे प्रचलित है । वही योग का उच्चतम प्रकार है। योग का मतलब है विष्णु में अपनी चेतना को लगाए रखना या श्री कृष्ण, भगवान । यही योग की पूर्णता है। यहाँ यह स्वतः ही है - यहां तक ​​कि बच्चा भी यह कर सकता है । बच्चा अा रहा है अपनी माँ के साथ अौर दणडवत कर रहा है, "श्री कृष्ण, मैं दणडवत करता हूँ ।" तो वह भी कृष्ण भावनाभावित है। एक छोटा सा बच्चा है, वह ताली बजा रहा है । क्यूँ? "हे श्री कृष्ण ।" इसलिए किसी भी तरह से, हर कोई हमेशा श्री कृष्ण को याद कर रहा है। शकृष्ण भावनामृत में है । यहां एक बच्चा भी उच्चतम योगी है। यह हमारी डींग हांकना नहीं है। यह भगवद गीता की तरह अधिकृत शास्त्र में कहा गया है । हम नहीं यह कहते हैं घमंडी होकर ये शब्द । नहीं, यह एक तथ्य है । यहां एक बच्चा भी इस मंदिर में योग अभ्यास के उच्चतम मंच में हो सकता है । यही कृष्ण भावनामृत आंदोलन का उच्चतम उपहार है । अागे पढो ।
यह भजते, यह भजते, यह शब्द, संस्कृत शब्द, यह भज मूल से अाता है, भज-धातु । यह एक क्रिया है, भज-धातु । भज का मतलब है सेवा प्रदान करना । भज । तो यही शब्द इस श्लोक में प्रयोग किया गया है, भज-धातु । इसका मतलब है जो भक्त है । कौन कृष्ण को सेवा प्रदान करता है एक भक्त के अलावा ? मान लो तुम यहाँ सेवा प्रदान कर रहे हो । क्यूँ ? तुम कहीं भी सेवा प्रदान कर सकते हो, तुम्हे हजार डॉलर या दो हजार डॉलर हर महीने मिलते हैं । लेकिन तुम यहॉ आते हो और अपनी सेवा प्रदान करते हो बिना किसी वेतन के । क्यूँ? श्री कृष्ण के लिए प्रेम के कारण ।  
 
इसलिए यह भज, यह सेवा, प्रेम से सेवा, भगवान के लिए प्रेम पर आधारित है । अन्यथा क्यों कोई अपना समय बर्बाद करना चाहेगा ? यहाँ ये छात्र, वे कई कार्यों में लगे हुए हैं । कोई उद्यान में काम कर रहा है, कोई टाइपिंग कर रहा है, कोई भोजन पका रहा है, कोई कुछ और कर रहा है, सब कुछ । लेकिन यह कृष्ण के संबंध में है । इसलिए कृष्ण भावनामृत, हमेशा, चौबीस घंटे प्रचलित है । वही योग का उच्चतम प्रकार है। योग का मतलब है विष्णु में अपनी चेतना को लगाए रखना या कृष्ण, भगवान में । यही योग की पूर्णता है। यहाँ यह स्वतः ही है - यहां तक ​​कि बच्चा भी यह कर सकता है । बच्चा अा रहा है अपनी माँ के साथ अौर दणडवत कर रहा है, "कृष्ण, मैं दण्डवत करता हूँ ।" तो वह भी कृष्ण भावनाभावित है । एक छोटा सा बच्चा है, वह ताली बजा रहा है । क्यूँ? "हे कृष्ण ।"  
 
इसलिए किसी भी तरह से, हर कोई हमेशा श्री कृष्ण को याद कर रहा है । कृष्ण भावनामृत में है । यहां एक बच्चा भी उच्चतम योगी है । यह हमारी डींग हांकना नहीं है । यह भगवद गीता की तरह अधिकृत शास्त्र में कहा गया है । हम नहीं यह कहते हैं घमंडी होकर ये शब्द । नहीं, यह एक तथ्य है । यहां एक बच्चा भी इस मंदिर में योग अभ्यास के उच्चतम मंच पे हो सकता है । यही कृष्ण भावनामृत आंदोलन का उच्चतम उपहार है । अागे पढो ।  
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Latest revision as of 19:07, 17 September 2020



Lecture on BG 6.46-47 -- Los Angeles, February 21, 1969

भक्त: "योगी पुरुष तपस्वी से, ज्ञानी से तथा सकाम कर्मी से बढ़कर होता है । अत: हे अर्जुन, तुम सभी प्रकार से योगी बनो ।"

प्रभुपाद: योगी, भौतिक जीवन की उच्चतम पूर्णता है । इस भौतिक दुनिया में जीवन के विभिन्न स्तर हैं, लेकिन अगर हम योग सिद्धांत में खुद को स्थापित करते हैं, विशेष रूप से इस भक्ति-योग सिद्धांत में, इसका मतलब है कि वह जीवन के सबसे पूर्ण चरण में रह रहा है । तो कृष्ण अर्जुन को सलाह दे रहे हैं, "मेरे प्रिय मित्र अर्जुन, सभी परिस्थितियों में, तुम एक योगी रहो, एक योगी रहो ।" हाँ, अागे पढो ।

भक्त: "और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है, वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में युक्त रहता है अौर सबों में सर्वोच्च है ।"

प्रभुपाद: अब, यहाँ यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सभी योगियों में - योगी विभिन्न प्रकार के होते हैं । अष्टांग-योगी, हठ-योगी, ज्ञान-योगी, कर्म-योगी, भक्ति-योगी । तो भक्ति-योग योग सिद्धांतों का सर्वोच्च मंच है । तो कृष्ण यहाँ कहते हैं, "और सभी योगियों में ।" योगी विभिन्न प्रकार के होते हैं । "सभी योगियों में जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है," - श्री कृष्ण में । मे का मतलब है, श्री कृष्ण कहते हैं, "मुझ में ।" इसका मतलब है जो हमेशा कृष्ण भावनामृत में है | जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है, वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में युक्त रहता है अौर सबों में सर्वोच्च है ।" यह इस अध्याय का प्रधान निर्देश है, सांख्य-योग, की अगर तुम उच्चतम स्तर पर पूर्ण योगी बनना चाहते हो, तब तुम अपने को कृष्ण भावनामृत में रखो और तुम प्रथम श्रेणी के योगी बन जाते हो । अागे पढो ।

भक्त: तात्पर्य: "यहॉ पर संस्कृत शब्द भजते महत्वपूर्ण है।"

प्रभुपाद: यह शब्द भजते मूल संस्कृत श्लोक में प्रकट होता है,

योगिनाम अपि सर्वेषाम
मद-गतेनान्तर अात्मना
श्रद्धावान भजते यो माम
स मे युक्ततमो मत:
(भ.गी. ६.४७)

यह भजते, यह भजते, यह शब्द, संस्कृत शब्द, यह भज मूल से अाता है, भज-धातु । यह एक क्रिया है, भज-धातु । भज का मतलब है सेवा प्रदान करना । भज । तो यही शब्द इस श्लोक में प्रयोग किया गया है, भज-धातु । इसका मतलब है जो भक्त है । कौन कृष्ण को सेवा प्रदान करता है एक भक्त के अलावा ? मान लो तुम यहाँ सेवा प्रदान कर रहे हो । क्यूँ ? तुम कहीं भी सेवा प्रदान कर सकते हो, तुम्हे हजार डॉलर या दो हजार डॉलर हर महीने मिलते हैं । लेकिन तुम यहॉ आते हो और अपनी सेवा प्रदान करते हो बिना किसी वेतन के । क्यूँ? श्री कृष्ण के लिए प्रेम के कारण ।

इसलिए यह भज, यह सेवा, प्रेम से सेवा, भगवान के लिए प्रेम पर आधारित है । अन्यथा क्यों कोई अपना समय बर्बाद करना चाहेगा ? यहाँ ये छात्र, वे कई कार्यों में लगे हुए हैं । कोई उद्यान में काम कर रहा है, कोई टाइपिंग कर रहा है, कोई भोजन पका रहा है, कोई कुछ और कर रहा है, सब कुछ । लेकिन यह कृष्ण के संबंध में है । इसलिए कृष्ण भावनामृत, हमेशा, चौबीस घंटे प्रचलित है । वही योग का उच्चतम प्रकार है। योग का मतलब है विष्णु में अपनी चेतना को लगाए रखना या कृष्ण, भगवान में । यही योग की पूर्णता है। यहाँ यह स्वतः ही है - यहां तक ​​कि बच्चा भी यह कर सकता है । बच्चा अा रहा है अपनी माँ के साथ अौर दणडवत कर रहा है, "कृष्ण, मैं दण्डवत करता हूँ ।" तो वह भी कृष्ण भावनाभावित है । एक छोटा सा बच्चा है, वह ताली बजा रहा है । क्यूँ? "हे कृष्ण ।"

इसलिए किसी भी तरह से, हर कोई हमेशा श्री कृष्ण को याद कर रहा है । कृष्ण भावनामृत में है । यहां एक बच्चा भी उच्चतम योगी है । यह हमारी डींग हांकना नहीं है । यह भगवद गीता की तरह अधिकृत शास्त्र में कहा गया है । हम नहीं यह कहते हैं घमंडी होकर ये शब्द । नहीं, यह एक तथ्य है । यहां एक बच्चा भी इस मंदिर में योग अभ्यास के उच्चतम मंच पे हो सकता है । यही कृष्ण भावनामृत आंदोलन का उच्चतम उपहार है । अागे पढो ।