HI/Prabhupada 0695 - सस्ते में वे भगवान का चयन करते हैं । भगवान इतने सस्ते हो गए हैं 'मैं भगवान हूँ, तुम भगवान हो': Difference between revisions

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भक्त: "इस श्लोक में भी, भजन्ति शब्द का प्रयोग किया गया है। भजन्ति शब्द का प्रयोग परमेश्वर के लिए ही प्रयुक्त किया जा सकता है जबकी वर्शिप (पूजन) का प्रयोग देवताअों या अन्य किसी सामान्य जीव के लिए किया जाता है । यह शब्द अवजानन्ति...... "
भक्त: "इस श्लोक में भी, भजन्ति शब्द का प्रयोग किया गया है। भजन्ति शब्द का प्रयोग परमेश्वर के लिए ही प्रयुक्त किया जा सकता है, जबकी वर्शिप (पूजन) का प्रयोग देवताअों या अन्य किसी सामान्य जीव के लिए किया जाता है । यह शब्द अवजानन्ति... "


प्रभुपाद: अवजानन्ति का मतलब है उपेक्षा । "भगवान क्या हैं, मैं भगवान हूँ ? भगवान क्या हैं ? क्यों मैं भगवान की सेवा करूँ ? यही अवजानन्ति है। अपराधी की तरह, "आह, सरकार क्या है? मैं अपने मामलों का संभाल सकता हूँ । मुझे सरकार की परवाह नहीं है। " इसे अवजानन्ति कहा जाता है। लेकिन तुम नहीं कर सकते । अगर मैं कहूँ, "मैं सरकार की परवाह नहीं करता हूँ," ठीक है, तुम कह सकते हो, लेकिन पुलिस विभाग है। वह तुम्हे दर्द देगा, वह दंडित करेगा । भौतिक प्रकृति तिगुना दुख के साथ तुम्हे सज़ा देगी । अागे पढो ।  
प्रभुपाद: अवजानन्ति का मतलब है उपेक्षा । "भगवान क्या हैं? मैं भगवान हूँ ? भगवान क्या हैं ? क्यों मैं भगवान की सेवा करूँ ? यही अवजानन्ति है। अपराधी की तरह, "आह, सरकार क्या है? मैं अपने मामलों का संभाल सकता हूँ । मुझे सरकार की परवाह नहीं है ।" इसे अवजानन्ति कहा जाता है । लेकिन तुम नहीं कर सकते । अगर मैं कहूँ, "मैं सरकार की परवाह नहीं करता हूँ," ठीक है, तुम कह सकते हो, लेकिन पुलिस विभाग है । वह तुम्हे दर्द देगा, वह दंडित करेगा । भौतिक प्रकृति तिगुना दुख के साथ तुम्हे सज़ा देगी । अागे पढो ।  


भक्त: "भगवत पुराण के इस श्लोक में प्रयुक्त शब्द अवजानन्ति भागवत गीता में भी पाया जाता है । अवजानन्ति...  
भक्त: "श्रीमद भागवतम के इस श्लोक में प्रयुक्त शब्द अवजानन्ति भगवद गीता में भी पाया जाता है । अवजानन्ति...  


प्रभुपाद: माम् मूढा: । श्रीमद-भागवतम, इस शब्द का इस्तेमाल किया गया है, अवजानन्ति स्थानाद भ्रष्ठा: पतन्ति अध: ([[Vanisource:SB 11.5.3|श्री भ ११।५।३]]) इसी प्रकार वही शब्द भगवद गीता में प्रयोग किया गया है: अवजानन्ति माम मूढा: ([[Vanisource:BG 9.11|भ गी ९।११]]) मूढा: का मतलब है दुष्ट । केवल दुष्ट, वे सोचते हैं - मेरी परवाह नहीं करते हैं । दुष्ट । उसे पता नहीं है कि उसे भुगतना होगा, लेकिन वह एसा कहने की हिम्मत रखता है "मैं परवाह नहीं करता ..." यही है अवजानन्ति माम् मूढा: मानुषिम तनुम अाश्रितम, परम् भावम अजानन्त: ([[Vanisource:BG 9.11|भ गी ९।११]]) प्रभु की सर्वोच्च स्थिति जाने बिना । सस्ते में, सस्ते में वे भगवान का चयन करते हैं । भगवान इतने सस्ते हो गए हैं । "मैं भगवान हूँ, तुम भगवान हो ।" भगवान का अर्थ क्या है ? क्या तुम्हे पता है ? अगर तुम भगवान हो, मैं भगवान हूँ, तो भगवान का अर्थ क्या रहा ? तो, अवजानन्ति, यह शब्द बहुत ही उपयुक्त है। अवजानन्ति का मतलब है बेपरवाह, परवाह नहीं है । लेकिन वे मूढा: हैं। उन्हे मूढा कहा जाता है - किसी भी ज्ञान के बिना, बेतुका । अवजानन्ति माम् मूढा: मानुषिम तनुम अाश्रितम, परम् भावम अजानन्त: ([[Vanisource:BG 9.11|भ गी ९।११]]) । अागे पढो ।  
प्रभुपाद: माम मूढा: । श्रीमद-भागवतम, इस शब्द का इस्तेमाल किया गया है, अवजानन्ति स्थानाद भ्रष्ठा: पतन्ति अध: ([[Vanisource:SB 11.5.3|श्रीमद भागवतम ११.५.३]]) | इसी प्रकार वही शब्द भगवद गीता में प्रयोग किया गया है: अवजानन्ति माम मूढा: ([[HI/BG 9.11|भ.गी. ९.११]]) | मूढा: का मतलब है दुष्ट । केवल दुष्ट, वे सोचते हैं - मेरी परवाह नहीं करते हैं । दुष्ट । उसे पता नहीं है कि उसे भुगतना होगा, लेकिन वह एसा कहने की हिम्मत रखता है "मैं परवाह नहीं करता..." यही है अवजानन्ति माम मूढा: मानुषिम तनुम अाश्रितम, परम भावम अजानन्त: ([[HI/BG 9.11|भ.गी. ९.११]]) | प्रभु की सर्वोच्च स्थिति जाने बिना । सस्ते में, सस्ते में वे भगवान का चयन करते हैं । भगवान इतने सस्ते हो गए हैं । "मैं भगवान हूँ, तुम भगवान हो ।" भगवान का अर्थ क्या है ? क्या तुम्हे पता है ? अगर तुम भगवान हो, मैं भगवान हूँ, तो भगवान का अर्थ क्या रहा ? तो, अवजानन्ति, यह शब्द बहुत ही उपयुक्त है। अवजानन्ति का मतलब है बेपरवाह, परवाह नहीं है । लेकिन वे मूढा: हैं। उन्हे मूढ कहा जाता है - किसी भी ज्ञान के बिना, बेतुका । अवजानन्ति माम् मूढा: मानुषिम तनुम अाश्रितम, परम भावम अजानन्त: ([[HI/BG 9.11|भ.गी. ९.११]]) । अागे पढो ।  


भक्त: "केवल मूर्ख तथा धूर्त भगवान कृष्ण का उपहास करते हैं । ऐसे मूर्ख भगवद्भक्ति की प्रवृत्ति न होने पर भी भगवद गीता का भाष्य कर बैठते हैं । फलत: वे भजन्ति तथा वर्शिप (पूजन) शब्दों के अन्तर को नहीं समझ पाते । भक्तियोग समस्त योगों की परिणति है । अन्य योग तो भक्तियोग में भक्ति तक पहुँचने के साधन मात्र हैं । योग का वास्तविक अर्थ भक्तियोग है । अन्य सारे योग भक्तियोग रूपी गन्तव्य की दिशा में अग्रसर होते हैं । कर्मयोग से लेकर भक्तियोग तक का लम्बा रास्ता अात्म-साक्षात्कार तक जाता है । निष्काम कर्मयोग इस मार्ग का अारम्भ है । जब कर्मयोग में ज्ञान तथा वैराग्य की वृद्धि होती है तो यह अवस्था ज्ञानयोग कहलाती है । जब ज्ञानयोग में अनेक भौतिक विधियों से परमात्मा के ध्यान में वृद्धि होती है अौर मन उन पर लगा रहता है तो इसे अष्टांग योग कहते हैं । इस अष्टअंग योग को पार करने पर जब मनुष्य श्री भगवान कृष्ण के निकट पहुँचता है तो यह भक्ति योग कहलाता है ।"  
भक्त: "केवल मूर्ख तथा धूर्त भगवान कृष्ण का उपहास करते हैं । ऐसे मूर्ख भगवद भक्ति की भाव न होने पर भी भगवद गीता का भाष्य कर बैठते हैं । फलत: वे भजन्ति तथा वर्शिप (पूजन) शब्दों के अन्तर को नहीं समझ पाते । भक्तियोग समस्त योगों की परिणति है । अन्य योग तो भक्तियोग में भक्ति तक पहुँचने के साधन मात्र हैं । योग का वास्तविक अर्थ भक्तियोग है । अन्य सारे योग भक्तियोग रूपी गन्तव्य की दिशा में अग्रसर होते हैं । कर्मयोग से लेकर भक्तियोग तक का लम्बा रास्ता अात्म-साक्षात्कार तक जाता है । निष्काम कर्मयोग इस मार्ग का अारम्भ है । जब कर्मयोग में ज्ञान तथा वैराग्य की वृद्धि होती है तो यह अवस्था ज्ञानयोग कहलाती है । जब ज्ञानयोग में अनेक भौतिक विधियों से परमात्मा के ध्यान में वृद्धि होती है, अौर मन उन पर लगा रहता है तो इसे अष्टांग योग कहते हैं । इस अष्टांग योग को पार करने पर जब मनुष्य, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण के निकट पहुँचता है तो यह भक्ति योग कहलाता है ।"  


प्रभुपाद: हाँ, योग की धीरे-धीरे प्रगति । कर्म-योग से ज्ञानयोग। कर्म-योग का मतलब है सामान्य गतिविधियॉ, सकाम कर्म । सामान्य गतिविधियों का मतलब है पापी गतिविधियॉ , लेकिन कर्म-योग का मतलब पापी गतिविधियॉ नहीं है। केवल पवित्र, पुण्य गतिविधियॉ या निर्धारित गतिविधियॉ । यही कर्म-योग कहा जाता है । फिर, कर्म-योग करने से हम ज्ञानयोग के मंच पर आते हैं, ज्ञान । और इस ज्ञान से, अष्टांग योग, अष्टअंग योग प्रणाली - ध्यान, धारणा, प्राणायाम, आसन - ऐसे ही, जो अष्टअंग-योग का अभ्यास कर रहे हैं । फिर अष्टांग योग से, विष्णु पर मन को केंद्रित करते हुए भक्ति-योग के मंच पर अाना । अौर जब हम भक्ति-योग के मंच पर अाते हैं, वह योग की पूर्णता है । और यह कृष्ण भावनामृत का मतलब है शुरुआत से, सीधे, भक्ति-योग । अागे पढो ।
प्रभुपाद: हाँ, योग की धीरे-धीरे प्रगति । कर्म-योग से ज्ञानयोग। कर्म-योग का मतलब है सामान्य गतिविधियॉ, सकाम कर्म । सामान्य गतिविधियों का मतलब है पापी गतिविधियॉ, लेकिन कर्म-योग का मतलब पापी गतिविधियॉ नहीं है। केवल पवित्र, पुण्य गतिविधियॉ या निर्धारित गतिविधियॉ । यही कर्म-योग कहा जाता है । फिर, कर्म-योग करने से हम ज्ञानयोग के मंच पर आते हैं, ज्ञान । और इस ज्ञान से, अष्टांग योग, अष्टांग योग प्रणाली - ध्यान, धारणा, प्राणायाम, आसन - ऐसे ही, जो अष्टांग-योग का अभ्यास कर रहे हैं । फिर अष्टांग योग से, विष्णु पर मन को केंद्रित करते हुए भक्ति-योग के मंच पर अाना । अौर जब हम भक्ति-योग के मंच पर अाते हैं, वह योग की पूर्णता है । और यह कृष्ण भावनामृत का मतलब है शुरुआत से, सीधे, भक्ति-योग । अागे पढो ।  
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020



Lecture on BG 6.46-47 -- Los Angeles, February 21, 1969

भक्त: "इस श्लोक में भी, भजन्ति शब्द का प्रयोग किया गया है। भजन्ति शब्द का प्रयोग परमेश्वर के लिए ही प्रयुक्त किया जा सकता है, जबकी वर्शिप (पूजन) का प्रयोग देवताअों या अन्य किसी सामान्य जीव के लिए किया जाता है । यह शब्द अवजानन्ति... "

प्रभुपाद: अवजानन्ति का मतलब है उपेक्षा । "भगवान क्या हैं? मैं भगवान हूँ ? भगवान क्या हैं ? क्यों मैं भगवान की सेवा करूँ ? यही अवजानन्ति है। अपराधी की तरह, "आह, सरकार क्या है? मैं अपने मामलों का संभाल सकता हूँ । मुझे सरकार की परवाह नहीं है ।" इसे अवजानन्ति कहा जाता है । लेकिन तुम नहीं कर सकते । अगर मैं कहूँ, "मैं सरकार की परवाह नहीं करता हूँ," ठीक है, तुम कह सकते हो, लेकिन पुलिस विभाग है । वह तुम्हे दर्द देगा, वह दंडित करेगा । भौतिक प्रकृति तिगुना दुख के साथ तुम्हे सज़ा देगी । अागे पढो ।

भक्त: "श्रीमद भागवतम के इस श्लोक में प्रयुक्त शब्द अवजानन्ति भगवद गीता में भी पाया जाता है । अवजानन्ति...

प्रभुपाद: माम मूढा: । श्रीमद-भागवतम, इस शब्द का इस्तेमाल किया गया है, अवजानन्ति स्थानाद भ्रष्ठा: पतन्ति अध: (श्रीमद भागवतम ११.५.३) | इसी प्रकार वही शब्द भगवद गीता में प्रयोग किया गया है: अवजानन्ति माम मूढा: (भ.गी. ९.११) | मूढा: का मतलब है दुष्ट । केवल दुष्ट, वे सोचते हैं - मेरी परवाह नहीं करते हैं । दुष्ट । उसे पता नहीं है कि उसे भुगतना होगा, लेकिन वह एसा कहने की हिम्मत रखता है "मैं परवाह नहीं करता..." यही है अवजानन्ति माम मूढा: मानुषिम तनुम अाश्रितम, परम भावम अजानन्त: (भ.गी. ९.११) | प्रभु की सर्वोच्च स्थिति जाने बिना । सस्ते में, सस्ते में वे भगवान का चयन करते हैं । भगवान इतने सस्ते हो गए हैं । "मैं भगवान हूँ, तुम भगवान हो ।" भगवान का अर्थ क्या है ? क्या तुम्हे पता है ? अगर तुम भगवान हो, मैं भगवान हूँ, तो भगवान का अर्थ क्या रहा ? तो, अवजानन्ति, यह शब्द बहुत ही उपयुक्त है। अवजानन्ति का मतलब है बेपरवाह, परवाह नहीं है । लेकिन वे मूढा: हैं। उन्हे मूढ कहा जाता है - किसी भी ज्ञान के बिना, बेतुका । अवजानन्ति माम् मूढा: मानुषिम तनुम अाश्रितम, परम भावम अजानन्त: (भ.गी. ९.११) । अागे पढो ।

भक्त: "केवल मूर्ख तथा धूर्त भगवान कृष्ण का उपहास करते हैं । ऐसे मूर्ख भगवद भक्ति की भाव न होने पर भी भगवद गीता का भाष्य कर बैठते हैं । फलत: वे भजन्ति तथा वर्शिप (पूजन) शब्दों के अन्तर को नहीं समझ पाते । भक्तियोग समस्त योगों की परिणति है । अन्य योग तो भक्तियोग में भक्ति तक पहुँचने के साधन मात्र हैं । योग का वास्तविक अर्थ भक्तियोग है । अन्य सारे योग भक्तियोग रूपी गन्तव्य की दिशा में अग्रसर होते हैं । कर्मयोग से लेकर भक्तियोग तक का लम्बा रास्ता अात्म-साक्षात्कार तक जाता है । निष्काम कर्मयोग इस मार्ग का अारम्भ है । जब कर्मयोग में ज्ञान तथा वैराग्य की वृद्धि होती है तो यह अवस्था ज्ञानयोग कहलाती है । जब ज्ञानयोग में अनेक भौतिक विधियों से परमात्मा के ध्यान में वृद्धि होती है, अौर मन उन पर लगा रहता है तो इसे अष्टांग योग कहते हैं । इस अष्टांग योग को पार करने पर जब मनुष्य, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण के निकट पहुँचता है तो यह भक्ति योग कहलाता है ।"

प्रभुपाद: हाँ, योग की धीरे-धीरे प्रगति । कर्म-योग से ज्ञानयोग। कर्म-योग का मतलब है सामान्य गतिविधियॉ, सकाम कर्म । सामान्य गतिविधियों का मतलब है पापी गतिविधियॉ, लेकिन कर्म-योग का मतलब पापी गतिविधियॉ नहीं है। केवल पवित्र, पुण्य गतिविधियॉ या निर्धारित गतिविधियॉ । यही कर्म-योग कहा जाता है । फिर, कर्म-योग करने से हम ज्ञानयोग के मंच पर आते हैं, ज्ञान । और इस ज्ञान से, अष्टांग योग, अष्टांग योग प्रणाली - ध्यान, धारणा, प्राणायाम, आसन - ऐसे ही, जो अष्टांग-योग का अभ्यास कर रहे हैं । फिर अष्टांग योग से, विष्णु पर मन को केंद्रित करते हुए भक्ति-योग के मंच पर अाना । अौर जब हम भक्ति-योग के मंच पर अाते हैं, वह योग की पूर्णता है । और यह कृष्ण भावनामृत का मतलब है शुरुआत से, सीधे, भक्ति-योग । अागे पढो ।