HI/Prabhupada 0698 - इन्द्रियों की सेवा करने की बजाय, कृपया तुम राधा कृष्ण की सेवा करो, तो तुम खुश रहोगे: Difference between revisions
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भक्त: क्यों अाप राधा-कृष्ण भावनामृत सिखा रहे हैं ? | भक्त: क्यों अाप राधा-कृष्ण भावनामृत सिखा रहे हैं ? | ||
प्रभुपाद: क्योंकि तुम भूल गए हो । यही तुम्हारी स्वाभाविक स्थिति है । तुम राधा-कृष्ण की सेवा भूल गए हो, इसलिए तुम माया की सेवा कर रहे हो । तुम माया के | प्रभुपाद: क्योंकि तुम भूल गए हो । यही तुम्हारी स्वाभाविक स्थिति है । तुम राधा-कृष्ण की सेवा भूल गए हो, इसलिए तुम माया की सेवा कर रहे हो । तुम माया के, अपनी इन्द्रियों के, दास हो । इसलिए मैं सिखा रहा हूँ, "तुम अपनी इन्द्रियों की सेवा कर रहे हो, अब तुम राधा और श्री कृष्ण की अोर अपनी सेवा को मोड़ो, तुम खुश रहोगे । सेवा तो तुम्हे करनी है । या तो राधा-कृष्ण या माया, भ्रम, इन्द्रयॉ । हर कोई इन्द्रियों की सेवा कर रहा है । क्या ऐसा नहीं है ?" लेकिन वह संतुष्ट नहीं है । वह संतुष्ट नहीं हो सकता । इसलिए मैं उन्हें सही जानकारी दे रहा हूँ - कि सेवा तो तुम्हे करनी है । लेकिन इन्द्रियों की सेवा करने की बजाय, कृपया तुम राधा-कृष्ण की सेवा करो, तो तुम खुश रहोगे । सेवक की तुम्हारी स्थिति वही रहती है, लेकिन मैं एक अच्छी सेवा कर रहा हूँ । अगर तुम राधा-कृष्ण की सेवा नहीं करते हो, तो तुम अपनी इन्द्रियों की, माया की, सेवा करोगे । तो तुम्हारी सेवा की स्थिति बनी रहेगी । राधा-श्री कृष्ण की सेवा अगर न भी करो तो । इसलिए सबसे अच्छा अनुदेश यह है कि बजाय अपने इन्द्रियों की सेवा के, अपने मन मर्जी के, कृपया राधा-कृष्ण की सेवा करो, तुम खुश रहोगे । बस । | ||
भक्त: प्रभुपाद ? यह सवाल पूछने से पहले आप श्लोक के बारे में बात कर रहे थे जो भगवान चैतन्य हमारे लिए छोड़ गए | भक्त: प्रभुपाद ? यह सवाल पूछने से पहले आप श्लोक के बारे में बात कर रहे थे जो भगवान चैतन्य हमारे लिए छोड़ गए है । मैं समझ नहीं सका । एक ओर वे कहते हैं कि हम इस भौतिक जगत से मुक्ति नहीं चाहते हैं, हम केवल सेवा करना चाहते हैं । और फिर, अन्य श्लोक में से एक में, वे प्रार्थना करते हैं श्री कृष्ण से मुक्ति के लिए इस मौत के इस महासागर से, अौर उनके चरण कमलों में परमाणु बनने के लिए । यह मेरे लिए एक विरोधाभास प्रतीत हो रहा है, मैं समझ नहीं सकता... | ||
प्रभुपाद: उसमे विरोधाभास क्या है ? कृपया बताएं । | प्रभुपाद: उसमे विरोधाभास क्या है ? कृपया बताएं । | ||
भक्त: मतलब, यह लगता है ... आपने पहले समझाया कि हमें इस भौतिक समुद्र से मुक्त होने के लिए प्रार्थना नहीं करनी चाहिए । हमें केवल | भक्त: मतलब, यह लगता है... आपने पहले समझाया कि हमें इस भौतिक समुद्र से मुक्त होने के लिए प्रार्थना नहीं करनी चाहिए । हमें केवल कृष्ण की सेवा करने का प्रयास करना चाहिए जो भी हालत में हम हैं । मौत के सागर से मुक्त होना एक याचिका प्रतीत हो रहा है। (अस्पष्ट) | ||
प्रभुपाद: न धनम, न जनम, मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद भक्तिर अहैतुकी । मुझे आपकी सेवा में स्थित रहने दो । यह प्रार्थना है । और एक और प्रार्थना है: | प्रभुपाद: न धनम, न जनम, मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद भक्तिर अहैतुकी ([[Vanisource:CC Antya 20.29 |चैतन्य चरितामृत अन्त्य २०.२९, शिक्षाष्टक ४]]) । मुझे आपकी सेवा में स्थित रहने दो । यह प्रार्थना है । और एक और प्रार्थना है: | ||
:अयि नंद तनुज | :अयि नंद तनुज किंकरम | ||
: | :पतितम माम विषमे भवामबुधौ | ||
:कृपया तव पाद पंकज | :कृपया तव पाद पंकज | ||
:स्थित धूली | :स्थित धूली सदृशम विचिन्तय | ||
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दूसरा, कि "आप बस अपने चरण कमलों पर एक धूल के रूप में मुझे रखें ।" तो एक श्लोक में वे कहते हैं, "आप अपनी सेवा में मुझे संलग्न करें" एक और श्लोक में वे कहते हैं, " आप अपने चरण कमल की धूल के रूप में मुझे रखें .." - क्या फर्क है ? कोई अंतर नहीं है । | दूसरा, कि "आप बस अपने चरण कमलों पर एक धूल के रूप में मुझे रखें ।" तो एक श्लोक में वे कहते हैं, "आप अपनी सेवा में मुझे संलग्न करें", एक और श्लोक में वे कहते हैं, "आप अपने चरण कमल की धूल के रूप में मुझे रखें..." - क्या फर्क है ? कोई अंतर नहीं है । | ||
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Latest revision as of 07:56, 19 October 2018
Lecture on BG 6.46-47 -- Los Angeles, February 21, 1969
भक्त: क्यों अाप राधा-कृष्ण भावनामृत सिखा रहे हैं ?
प्रभुपाद: हम्म?
भक्त: क्यों अाप राधा-कृष्ण भावनामृत सिखा रहे हैं ?
प्रभुपाद: क्योंकि तुम भूल गए हो । यही तुम्हारी स्वाभाविक स्थिति है । तुम राधा-कृष्ण की सेवा भूल गए हो, इसलिए तुम माया की सेवा कर रहे हो । तुम माया के, अपनी इन्द्रियों के, दास हो । इसलिए मैं सिखा रहा हूँ, "तुम अपनी इन्द्रियों की सेवा कर रहे हो, अब तुम राधा और श्री कृष्ण की अोर अपनी सेवा को मोड़ो, तुम खुश रहोगे । सेवा तो तुम्हे करनी है । या तो राधा-कृष्ण या माया, भ्रम, इन्द्रयॉ । हर कोई इन्द्रियों की सेवा कर रहा है । क्या ऐसा नहीं है ?" लेकिन वह संतुष्ट नहीं है । वह संतुष्ट नहीं हो सकता । इसलिए मैं उन्हें सही जानकारी दे रहा हूँ - कि सेवा तो तुम्हे करनी है । लेकिन इन्द्रियों की सेवा करने की बजाय, कृपया तुम राधा-कृष्ण की सेवा करो, तो तुम खुश रहोगे । सेवक की तुम्हारी स्थिति वही रहती है, लेकिन मैं एक अच्छी सेवा कर रहा हूँ । अगर तुम राधा-कृष्ण की सेवा नहीं करते हो, तो तुम अपनी इन्द्रियों की, माया की, सेवा करोगे । तो तुम्हारी सेवा की स्थिति बनी रहेगी । राधा-श्री कृष्ण की सेवा अगर न भी करो तो । इसलिए सबसे अच्छा अनुदेश यह है कि बजाय अपने इन्द्रियों की सेवा के, अपने मन मर्जी के, कृपया राधा-कृष्ण की सेवा करो, तुम खुश रहोगे । बस ।
भक्त: प्रभुपाद ? यह सवाल पूछने से पहले आप श्लोक के बारे में बात कर रहे थे जो भगवान चैतन्य हमारे लिए छोड़ गए है । मैं समझ नहीं सका । एक ओर वे कहते हैं कि हम इस भौतिक जगत से मुक्ति नहीं चाहते हैं, हम केवल सेवा करना चाहते हैं । और फिर, अन्य श्लोक में से एक में, वे प्रार्थना करते हैं श्री कृष्ण से मुक्ति के लिए इस मौत के इस महासागर से, अौर उनके चरण कमलों में परमाणु बनने के लिए । यह मेरे लिए एक विरोधाभास प्रतीत हो रहा है, मैं समझ नहीं सकता...
प्रभुपाद: उसमे विरोधाभास क्या है ? कृपया बताएं ।
भक्त: मतलब, यह लगता है... आपने पहले समझाया कि हमें इस भौतिक समुद्र से मुक्त होने के लिए प्रार्थना नहीं करनी चाहिए । हमें केवल कृष्ण की सेवा करने का प्रयास करना चाहिए जो भी हालत में हम हैं । मौत के सागर से मुक्त होना एक याचिका प्रतीत हो रहा है। (अस्पष्ट)
प्रभुपाद: न धनम, न जनम, मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद भक्तिर अहैतुकी (चैतन्य चरितामृत अन्त्य २०.२९, शिक्षाष्टक ४) । मुझे आपकी सेवा में स्थित रहने दो । यह प्रार्थना है । और एक और प्रार्थना है:
- अयि नंद तनुज किंकरम
- पतितम माम विषमे भवामबुधौ
- कृपया तव पाद पंकज
- स्थित धूली सदृशम विचिन्तय
- (चैतन्य चरितामृत अंत्य २०.३२, शिक्षाष्टक ५)
दूसरा, कि "आप बस अपने चरण कमलों पर एक धूल के रूप में मुझे रखें ।" तो एक श्लोक में वे कहते हैं, "आप अपनी सेवा में मुझे संलग्न करें", एक और श्लोक में वे कहते हैं, "आप अपने चरण कमल की धूल के रूप में मुझे रखें..." - क्या फर्क है ? कोई अंतर नहीं है ।