HI/BG 11.24: Difference between revisions
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Latest revision as of 09:16, 8 August 2020
श्लोक 24
- नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं
- व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् ।
- दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा
- धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥२४॥
शब्दार्थ
नभ:-स्पृशम्—आकाश छूता हुआ; दीह्रश्वतम्—ज्योतिर्मय; अनेक—कई; वर्णम्—रंग; व्यात्त—खुले हुए; आननम्—मुख; दीह्रश्वत—प्रदीह्रश्वत; विशाल—बड़ी-बड़ी; नेत्रम्—आँखें; ²ष्ट्वा—देखकर; हि—निश्चय ही; त्वाम्—आपको; प्रव्यथित—विचलित, भयभीत; अन्त:—भीतर; आत्मा—आत्मा; धृतिम्—²ढ़ता या धैर्य को; न—नहीं; विन्दामि—प्राह्रश्वत हूँ; शमम्—मानसिक शान्ति को; च—भी; विष्णो—हे विष्णु।
अनुवाद
हे सर्वव्यापी विष्णु!नाना ज्योर्तिमय रंगोंसे युक्त आपको आकाश का स्पर्श करते, मुख फैलाये तथा बड़ी-बड़ी चमकती आँखें निकालेदेखकर भय से मेरा मन विचलित है | मैं न तो धैर्य धारण कर पा रहा हूँ, न मानसिकसंतुलन ही पा रहा हूँ |