HI/BG 3.4

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His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 4

k

शब्दार्थ

न—नहीं; कर्मणाम्—नियत कर्मों के; अनारम्भात्—न करने से; नैष्कम्र्यम्—कर्मबन्धन से मुक्ति को; पुरुष:—मनुष्य; अश्नुते—प्राह्रश्वत करता है; न—नहीं; च—भी; सन्न्यसनात्—त्याग से; एव—केवल; सिद्धिम्—सफलता; समधिगच्छति—प्राह्रश्वत करता है।

अनुवाद

न तो कर्म से विमुख होकर कोई कर्मफल से छुटकारा पा सकता है और न केवल संन्यास से सिद्धि प्राप्त की जा सकती है

तात्पर्य

भौतिकतावादी मनुष्यों के हृदयों को विमल करने के लिए जिन कर्मों का विधान किया गया है उनके द्वारा शुद्ध हुआ मनुष्य ही संन्यास ग्रहण कर सकता है | शुद्धि के बिना संन्यास ग्रहण करने से सफलता नहीं मिल पाती | ज्ञानयोगियों के अनुसार संन्यास ग्रहण करने अथवा सकाम कर्म से विरत होने से ही मनुष्य नारायण के समान हो जाता है | किन्तु भगवान् कृष्ण इस मत का अनुमोदन नहीं करते | हृदय की शुद्धि के बिना संन्यास सामाजिक व्यवस्था में उत्पात उत्पन्न करता है | दूसरी ओर यदि कोई नियत कर्मों को न करके भी भगवान् की दिव्य सेवा करता है तो वह उस मार्ग में जो कुछ भी उन्नति करता है उसे भगवान् स्वीकार कर लेते हैं (बुद्धियोग) | स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्| ऐसे सिद्धान्त की रंचमात्र सम्पन्नता भी महान कठिनाइयों को पार करने में सहायक होती है |