HI/Prabhupada 0233 - हमें गुरु और कृष्ण की दया के माध्यम से कृष्ण भावनामृत मिलती है

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Lecture on BG 2.4-5 -- London, August 5, 1973

तो कृष्ण के दुश्मन हैं । अरिसूदन । और उन्हें मारना पडता है । कृष्ण के दो काम हैं : परित्रानाय साधूनामम विनाशाय च दुष्कृताम (भ गी ४।८) शरारती तत्व ... वे शरारती तत्व हैं । जो राक्षस कृष्ण को चुनौती देते हैं, जो कृष्ण के साथ प्रतिस्पर्धा करना चाहता हैं, जो कृष्ण के साथ संपत्ति बाँटना चाहते हैं, वे सभी कृष्ण के दुश्मन हैं, और उन्हे मार डाला जाना चाहिए । तो हत्या दुश्मनं का व्यापार है, आमतौर पर नहीं । तो अगला सवाल है, "ठीक है, दुश्मन, तुम मार सकते हो, स्वीकारा । लेकिन तुम कैसे अपने गुरुओं को मारने के लिए मुझे सलाह दे रहे हो? गुरुन अहत्वा । लेकिन अगर कृष्ण के के लिए, जरूरत है, तो तुम्हे गुरु को भी मारना होगा । यही तत्वज्ञान है । कृष्ण की खातिर । कृष्ण चाहते हैं, तो तुम नहीं कर सकते ... अगर कृष्ण चाहते हैं कि तुम अपने गुरु को मारो, तो तुम्हे यह करना होगा । यही कृष्ण भावनामृत है । हालांकि, कृष्ण गुरु को मारने के लिए तुम्हे अादेश नहीं देंगे, लेकिन ... क्योंकि गुरु और कृष्ण एक ही हैं । गुरु कृष्ण-कृपाय (चै च मध्य १९।१५१) । हमें गुरु और कृष्ण की दया के माध्यम से कृष्ण भावनामृत मिलती है । तो असली गुरु को कभी मारा नहीं जाता है, लेकिन तथाकथित गुरु को मार डाला जाता है। तथाकथित, छद्म गुरु, झूठे गुरु, उसे मार डाला जाना चाहिए । जैसे प्रहलाद महाराज । जबकि प्रहलाद महाराज ... वह खड़े थे । इधर, न्रसिंहदेव उसके पिता को मार रहे थे । पिता गुरु हैं । सर्व-देवमयो-गुरु: (श्री भ ११।१७।२७) । इसी तरह, पिता, यह भी गुरु हैं, अौपचारिक गुरू । भौतिक दृष्टि से वे गुरु हैं । तो कैसे प्रहलाद महाराज नें अनुमति दी न्रसिंहदेव द्वारा अपने गुरु को मारने की ? उनके पिता । हर कोई जानता है कि हिरण्यकश्यप पिता हैं । क्या तुम देखना चाहेगे कि तुम्हारे पिता किसी व्यक्ति द्वारा मारे जा रहे हैं और आप खड़े हैं? तुम विरोध नहीं करोगे? क्या यह तुम्हारा कर्तव्य नहीं है? नहीं, यह मेरा कर्तव्य नहीं है । जब तुम्हारे पिता पर हमला किया जाता है, तुम्हे विरोध करना चाहिए । कम से कम, अगर तुम असमर्थ हो, तुम्हे लड़ना चाहिए । सब से पहले तुम्हे अपने प्राण त्यागने होंगे । "कैसे, मेरे पिता मेरे सामने मारे जा रहे हैं?" यह हमारा कर्तव्य है । लेकिन प्रहलाद महाराज नें विरोध नहीं किया था । वे अनुरोध कर सकते थे - वह भक्त हैं - "मेरे प्यारे सर , प्रभु, मेरे भगवान, तुम मेरे पिता को माफ करो ।" उनहोंने यह किया । लेकिन वे जानते थे, "मेरे पिता को मारा नहीं जा रहा है । यह पिता का शरीर है ।" बाद में उन्होंने अलग तरह से अपने पिता के लिए विनती की । सबसे पहले, न्रसिंहदेव गुस्से में थे, वे शरीर की हत्या कर रहे थे, वे जानते थे, "यह शरीर मेरे पिता का नहीं है। आत्मा मेरे पिता हैं । तो भगवान को संतुष्ट होने दो मेरे पिता के शरीर को मारकर , फिर मैं उन्हे बचाऊँगा ।"