HI/Prabhupada 0243 - एक शिष्य गुरु के पास ज्ञान के लिए आता है

Revision as of 09:58, 22 May 2015 by Rishab (talk | contribs) (Created page with "<!-- BEGIN CATEGORY LIST --> Category:1080 Hindi Pages with Videos Category:Prabhupada 0243 - in all Languages Category:HI-Quotes - 1973 Category:HI-Quotes - Lec...")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)


Invalid source, must be from amazon or causelessmery.com

Lecture on BG 2.9 -- London, August 15, 1973

प्रद्युम्न: अनुवाद, "संजय ने कहा: यह कहकर, अर्जुन दुश्मनों का ताड़क, नें श्री कृष्ण से कहा, 'गोविंदा, मैं युद्ध नहीं करूँगा,' और चुप हो गए। "

प्रभुपाद: पिछले श्लोक में, अर्जुन ने कहा कि "इस लड़ाई में कोई लाभ नहीं है क्योंकि दूसरी तरफ, वे सभी अपने रिश्तेदार, भाई, हैं, और उन्हें मारकर, मैं विजयी हो भी जाता हूँ, तो इसका मूल्य क्या है? " यह हमने समझाया है कि, इस तरह का त्याग कभी कभी अज्ञानता में में होता है । दरअसल, यह बहुत ज्यादा समझदारी की सोच नहीं है । तो इस तरह से, एवं उक्त्वा, एसा कह कर, "'तो लड़ने में कोई लाभ नहीं है ।" एवं उक्त्वा, "यह कह कर, " ऋषिकेशम, वह इंद्रियों के मालिक से बात कर रहे हैं । और पिछले श्लोक में उन्होंने कहा है कि, शिष्यस ते अहम प्रपनन्म (भ गी २।७) "मैं आपके समक्ष आत्मसमर्पण शिष्य हूँ" तो कृष्ण गुरु बन जाते हैं, और अर्जुन शिष्य बन जाते हैं । पूर्व में वे दोस्त के रूप में बात कर रहे थे । लेकिन अनुकूल बातें कोई भी गंभीर सवाल तय नहीं कर सकते हैं । अगर कोई गंभीर बात है, तो यह अधिकारियों के बीच बात की जानी चाहिए । तो ऋषिकेशम, मैंने कई बार समझाया है । ऋषीक का मतलब है इंद्रियॉ , और ईष का अर्थ है मालिक । ऋषीक-ईष, अौर वे जुड कर: ऋषिकेश । इसी तरह, अर्जुन भी । गुडाक ईष । गुदाक का मतलब है अंधकार, और ईष ... अंधकार का अर्थ है अज्ञान । अज्ञान-तिमिरानधस्य ज्ञानान्जन-शलाकया चक्शुर-उन्मिलितम् येन तस्मै श्री-गुरुवे नम: गुरु का कर्तव्य है ... एक शिष्य, एक शिष्य, गुरु के पास ज्ञान के लिए आता है । हर कोई मूर्खता में जन्म लेता है । हर कोई । यहां तक कि मनुष्य भी, क्योंकि वे जानवरों के साम्राज्य से आ रहे हैं विकास से, इसलिए जन्म वैसा हि , अज्ञानता, जानवरों की तरह । इसलिए, भले ही वह एक इंसान है, लेकिन शिक्षा की आवश्यकता है । पशु शिक्षा नहीं ले सकता है, लेकिन एक इंसान शिक्षा ले सकता है । इसलिए शास्त्र कहता है, नायम् देहो देह-भाजाम् न्रलोके कष्टान कामान अर्हते विड-भुजाम् ये (श्री भ ५।५।१) । मैं कई बार इस श्लोक को सुना चुका हूँ, कि अब.... मनुष्य जीवन के निचली अवस्था में, हमें बहुत कड़ी मेहनत करनी पडती है, केवल जीवन की चार आवश्यकताओं के लिए:, खाना, संभोग और बचाव अौर सोना । इन्द्रिय संतुष्टि । मुख्य वस्तु इन्द्रिय संतुष्टि है । इसलिए हर कोई बहुत कड़ी मेहनत कर रहा है । लेकिन मनुष्य जीवन में, कृष्ण नें हमें इतनी सुविधाऍ दी हैं, , बुद्धिमत्ता । हम रहने की हमारी मानक को बहुत ही आरामदायक कर सकते हैं, लेकिन कृष्ण चेतना में पूर्णता को प्राप्त करने के उद्देश्य के साथ । तुम आराम से रहो । कोई बात नहीं । लेकिन जानवरों की तरह मत रहो, केवल इन्द्रिय संतुष्टि बढ़ाते हुए । मानवता का प्रयास चल रहा है कि कैसे आरामदायक जीवन रहा जा सकता है, लेकिन वे आराम से रहना चाहते हैं इन्द्रिय संतुष्टि के लिए । यही आधुनिक सभ्यता की गलती है । युक्ताहार-विहारश च योगो भवति सिद्धि; । भगवद गीता में यह कहा गया है , युक्ताहार । हाँ, तुम्हे खाना चाहिए, तुम्हे सोना चाहिए, तुम्हे इन्द्रिय तृप्ति पूरी करनी चाहिए, तुम्हे बचाव की व्यवस्था करनी चाहिए - जितना संभव हो, उसपर बहुत ज्यादा ध्यान देने के लिए नहीं । हमें खाना तो है, यक्ताहार । यह एक तथ्य है । लेकिन अत्याहार नहीं । रूपा गोस्वामि नें यह सलाह दी है अपनी उपदेशम्रत में

अत्याहार: प्रयासश् च
प्रजल्पो नियमाग्रह
लौल्यम् जन-संगस् च
शधभीर भक्तिर विनश्यति
(NOI २)

( २ अगर तुम आध्यात्मिक चेतना में अग्रिम होना चाहते हो -क्योंकि यही जीवन का एकमात्र उद्देश्य है - तो तुम्हे अधिक खाना नहीं चाहिए, अत्याहार:, या अधिक जमा करना । अत्याहार: प्रयासश् च प्रजल्पो नियमाग्रह । यह हमारा तत्वज्ञान है ।