HI/Prabhupada 0453 - विश्वास करो! कृष्ण के अलावा कोई और अधिक बेहतर अधिकारी नहीं है
Lecture on SB 7.9.5 -- Mayapur, February 25, 1977
एसा नहीं है कि भगवान महसूस नहीं करते हैं, सोचते नहीं हैं । नहीं । सब कुछ है । जब तक वे सहानुभूति महसूस नहीं करते हैं , हमें यह कहॉ से मिला है? क्योंकि सब कुछ परमेश्वर की ओर से आ रहा है । जन्मादि अस्य यत: (श्री भ १।१।१) अथातो ब्रह्म जिज्ञासा । ब्रह्मण क्या है? ब्रह्मण का मतलब है सब कुछ का मूल स्रोत । यही ब्रह्मण है । ब्रहतवात ब्रहनतवात । तो यह भावना अगर भगवान में नहीं है, तो कैसे वे भगवान हो सकते हैं यह भावना ? जैसे एक मासूम सा बच्चा आता है और हमें कुछ सम्मान देता है, तुरंत हम सहानुभूतिपूर्वक दयालु होते हैं: "ओह, यहाँ एक अच्छा बच्चा है ।" तो भगवान कृष्ण, न्रसिंह-देव, वह भी बन गए परिप्लुत: संवेदनशीलता के साथ दयालु, साधारण दयालु नहीं, इस एहसास के साथ "यह बच्चा इतना मासूम है ।" तो सहानुभूतिपूर्वक, उत्थप्य, उसे तुरंत उठाया: "मेरे प्यारे बच्चे, उठो ।" और तुरंत सिर पर हाथ डाला । उत्थाप्य तच-शीर्श्नि अदधात करामभुजम । करामभुजम, कमल हाथ, कमल हथेली । तो यह भावनाऍ हैं । और वह चाहते थे ... क्योंकि यह लड़का घबराया हुअा था कि इतनी बड़ी मूर्ति स्तंभ से निकली है, और पिता, विशाल पिता, मर चुका है, स्वाभाविक रूप से वह थोड़ा मन में परेशान है । तो इसलिए वित्रस्त-धियाम् क्रताभयम: "मेरे प्यारे बच्चे, डरना नहीं । सब कुछ ठीक है । मैं हूं, और डरने की कोई ज़रूरत नहीं है । शांत रहो । मैं तुम्हे संरक्षण दूँगा । " तो यह अादान-प्रदान है । तो जरूरत नहीं है बहुत ..., पंडित आदमी बनने कि, वेदान्ती और ... केवल यही चीजों की आवश्यकता है: तुम मासूम बन जाअो, देवत्व के परम व्यक्तित्व को स्वीकार करो, और उनके कमल चरणों में गिरो - फिर सब कुछ पूर्ण है । यह ज़रूरी है: सादगी । सादगी । कृष्ण में विश्वास रखो । जैसे कृष्ण ने कहा, मत: परतरम नान्यत किन्चिद अस्ति धनन् (भ गी ७।७) विश्वास करो! कृष्ण के अलावा कोई और अधिक बेहतर अधिकारी नहीं है ।
और वे कहते हैं, मन मना भव मद भक्तो मद याजी माम नमस्कुरु (भ गी १८।६५) यह निर्देश है । यह सभी शिक्षा का सार है । कृष्ण पर विश्वास करो, परम व्यक्तित्व । यहां कृष्ण हैं । चिश्वास करो कि यहां कृष्ण हैं । मासूम बच्चा मानेगा, लेकिन हमारा मस्तिष्क इतना सुस्त है, हम पूछताछ करेंगे, "देवता पत्थर या पीतल या लकड़ी से बना है या नहीं?" क्योंकि हम मासूम नहीं हैं । हम सोच रहे हैं कि यह अर्च विग्रह पीतल का बना है । अगर यह पीतल भी है, तो पीतल भगवान नहीं हो सकता ? पीतल भी भगवान हैं । क्योंकि कृष्ण कहते हैं, भूमिर अापो अनलो वायु: खम मनो बुद्धिर...अपरेयम........भिन्ना मे प्रकृतिर अश्टधा (भ गी ७।४) सब कुछ कृष्ण हैं । कृष्ण के बिना कोई अस्तित्व नहीं है । तो क्यों कृष्ण प्रकट नहीं हो सकते हैं जैसे वे अाना चाहें? वे पीतल में प्रकट हो सकते हैं । वे पत्थर में प्रकट हो सकते हैं । वे लकड़ी में प्रकट हो सकते हैं । वे गहनों में प्रकट हो सकते हैं । वह पेंटिंग में दिखाई दे सकते हैं । किसी भी तरह से वे कर सकते हैं ... यही सर्व-शक्तिशाली है । लेकिन हमें यह मानना होगा कि, यहाँ कृष्ण हैं ।" एसा मत लो कि "कृष्ण अर्च विग्रह से अलग हैं, और यहाँ एक पीतल का अर्च विग्रह है ।" नहीं । अद्वैतम अच्युतम अनादिम अनंत-रूपम ( ब्र स ५।३३) । अद्वैत । वे बहु - विस्तार कर सकते हैं, लेकिन वे सभी एक हैं ।
तो इसी तरह, उनका नाम उनका प्रतिनिधि है । अभिन्नत्वान नाम-नामिनोह (चै च मध्य १७।१३३) जब तुम श्री कृष्ण के पवित्र नाम का जाप कर रहे हो यह मत सोचो कि यह ध्वनि कंपन और कृष्ण अलग हैं । नहीं । अभिन्नत्वान । नाम-चिन्तामनि-कृष्ण: क्योंकि कृष्ण चिन्तामनि हैं, उसी प्रकार, उनका पवित्र नाम भी चिन्तामनि है । नाम चिन्तामनिह् कृष्णश् चैतन्य-रस-विग्रह चैतन्य, पूर्ण चेतना, नाम-चिन्तामनि-कृष्ण: अगर हम नाम के साथ संबद्ध रखते हैं, तुम्हें पता होना चाहिए कि , श्री कृष्ण तुम्हारी सेवा से पूरी तरह सचेत हैं । तुम संबोधित कर रहे हो , "हे कृष्ण! हे राधारानी! कृपया आपकी सेवा में मुझे व्यस्त करो ।" हरे कृष्ण मंत्र का अर्थ है, हरे कृष्ण, "हे कृष्ण, हे राधारानी, हे शक्ति कृपया अपनी सेवा में मुझे व्यस्त करें ।" अइ नंद-तनुजा पतिताम किन्करम माम विशमे भवाम्बुधौ यह चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा है । "हे मेरे भगवान, नंद, तनुजा ..." कृष्ण बहुत खुश हो जाते हैं जब तुम उनके नाम के साथ संग करते हो, उनकी गतिविधियॉ, किसी भक्त के साथ । वह अवैयक्तिक नहीं हैं । कृष्ण का कोई नाम नहीं है, लेकिन जब वे अपने भक्त के साथ संबंध रखते हैं, तब नाम है । जैसे कृष्ण का नंद महाराज के साथ संबन्ध, कि नंद महाराज के लकड़ी के जूते... यशोदामयी बच्चे कृष्ण से पूछती है - तुमने चित्र को देखा है - "क्या तुम अपने पिता के जूते ले कर अा सकते हो?" "हाँ!" तुरंत सिर पर ले लिया । तुम देख रहे हो? यह कृष्ण हैं । तो नंदा महाराजा बहुत खुश हो गए: "ओह, मेरा बेटा बहुत अच्छा है, वह इस तरह के एक भार को सहन कर सकता है ।" तो यह अादान-प्रदान है । इसलिए चैतन्य महाप्रभु श्री कृष्ण को संबोधित कर रहे हैं : अइ नंद-तनुजा: "हे कृष्ण जो नंदा महाराज के शरीर से जन्मे हैं, ..." जैसे पिता शरीर देने वाले व्यक्ति हैं, बीज, बीज देने वाले पिता, इसी तरह, कृष्ण, हालांकि वे सब कुछ के मूल हैं, लेकिन फिर भी, वे नंद महाराज के बीज से पैदा होते हैं । यह कृष्ण-लीला है । अइ नंद-तनुजा पतितम किंकरम् माम् विशमे भवाम-बुधौ (चै च ांत्य २०।३२, शिक्शाश्टक ५) चैतन्य महाप्रभु नें कभी कृष्ण को कभी संबोधिदत नहीं किया " हे सर्वशक्तिमान ।" यह अवैयक्तिक है । वे कहते हैं, अइ नंद-तनुजा, सीमित, "नंद महाराज के बेटे ।" नंद महाराज के बेटे । तो यह भक्ति है । वे असीमित हैं । जैसी कुन्तीदेवी को आश्चर्य हुअा कि, जब वे सोचतीं थी, कि कृष्ण यशौदामयी से डरते थे । वह श्लोक तुम्हें पता है । तो वह थे ..., वे हैरान थीं कि "कृष्ण, जो इतने ऊंचे और महान हैं कि हर कोई उनसे डरता है, लेकिन वे यशोदायी से डरते हैं ।" तो यह भक्तों द्वारा अानन्द लिया जा सकता है, वह नही ... नास्तिक वर्ग पुरुष या अभक्त नहीं समझ सकते हैं । इसलिए कृष्ण ने कहा, भक्त्या माम अभिजानाति (भ गी १८।५५) केवल भक्त, कोई अन्य नहीं । अन्य, उन्हे इस राज्य में कोई प्रवेश नहीं है, समझने के लिए । अगर तुम कृष्ण को समझना चाहता हो तो यह केवल भक्ति के माध्यम से ही हो सकता है । न ज्ञान और न ही योग और न ही कर्म, न ही ज्ञान, कुछ भी नहीं - कुछ भी मदद नहीं मिलेगी । केवक एक भक्त । और भक्त कैसे बनें ? यह कितना आसान है? यहां देखो, प्रहलाद महाराज, मासूम बच्चा, सिर्फ अपना दण्डवत प्रणाम पेश कर रहा है । और कृष्ण भी तुम से पूछ रहे हैं, मन मना भव मद भक्तो मद याजी माम नमस्कुरु (भ गी १८।६५) अगर तुम ईमानदारी से इन चार वस्तुओं को करते हो - हमेशा कृष्ण के बारे में सोचना ... हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे, (भक्तों जप में शामिल होते हैं ) हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे । तो यह कृष्ण के बारे में सोचना है, मन मना । अौर तुम हरे कृष्ण मंत्र के इस सिद्धांत से चिपके रह सकते हो अगर तुम विशुद्ध भक्त हो । बिना विशुद्ध भक्त बने यह बहुत मुश्किल है । तुम थक जाअोगे । लेकिन हम अभ्यास करेंगे । अभ्यास योग युक्तेन (भ गी ८।८) ।