HI/Prabhupada 0497 - हर कोई न मरने की कोशिश कर रहा है

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Lecture on BG 2.15 -- Hyderabad, November 21, 1972

इधर, इस भौतिक संसार में, हम मृतत्व में डाल दिए गए हैं, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और बीमारी के अधीन । लेकिन एक और स्थिति है जहां कोई जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और बीमारी नहीं है । जो हमें कौन सी स्थिति अच्छि लगनी चाहिए - जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और बीमारी, या जन्म ही नहीं, कोई मौत नहीं, बुढ़ापा नहीं, कोई बीमारी नहीं? कौन सी हमें अच्छि लगनी चाहिए? हम्म? मुझे लगता है कि हमें जन्म ही नहीं, कोई मौत नहीं, बुढ़ापा नहीं , कोई बीमारी नहीं अच्छी लगनी चाहिए । तो यह अमृतत्व कहा जाता है । तो अमृतत्वाय कल्पते । अमृत... जैसे हम हैं, हमारे अपने मूल, संवैधानिक स्थिति में, हम जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और बीमारी के अधीन नहीं हैं । जैसे कृष्ण हैं सच-चिद-अानन्द विग्रह (ब्र स ५।१) अनन्त, आनंदमय, ज्ञानि, इसी तरह, हम कृष्ण के अभिन्न अंग होने के नाते, हम भी वही गुणवत्ता के हैं । ... हमने स्वीकार कर लिया है जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और बीमारी की इस स्थिति को, इस भौतिक दुनिया के साथ हमारे संग के कारण । अब, हर कोई न मरने की कोशिश कर रहा है, बूढा न बनने की कोशिश कर रहा है, हर कोई मौत से न मिलने की कोशिश कर रहा है । यह स्वाभाविक है । क्योंकि, स्वभाव से, हम इन चीजों के अधीन नहीं हैं, इसलिए हमारा प्रयास, हमारी गतिविधि, संघर्ष की है, कैसे जन्म न लें, मरे नहीं, बिमारी न हो । यही अस्तित्व के लिए संघर्ष है ।

तो यहाँ, भगवद गीता में, तुम्हे एक अच्छा सूत्र देता है । यम् हि न व्यथयन्ति एते पुरुषम् पुरुषर्षभ । आत्मा का यह स्थानांतरगमन, जो इस से पीड़ित नहीं है, धीरस तत्र न मुह्यति (भ गी २।१३), जो समझता है अगर मेरे पिता मर जाते हैं, अगर मेरी समझ स्पष्ट है कि "मेरे पिता की मृत्यु नहीं हुई है । उन्होंने शरीर बदला है । उन्होंने एक और शरीर को स्वीकार किया है ।" यही सच्चाई है । जैसे हमारे नींद की अवस्था में, सपनों की अवस्था में, मेरे शरीर बिस्तर पर पड़ा है, लेकिन सपने में मैं एक और शरीर बनाना हूँ और जाता हूँ हजार मील दूर एक अलग जगह में । तुम्हे दैनिक अनुभव है, इसी तरह, स्थूल शरीर रोका गया हैं, मैं, आत्मा के रूप में, नहीं रुका हूँ । मैं काम करता हूँ । मेरा मन मुझे ले जात हैं । मेरा मन सक्रिय है, मेरी बुद्धि सक्रिय है । लोगों को पता नहीं है कि मन, बुद्धि और अहंकार का बना एक और सूक्ष्म शरीर है । यह मुझे एक और स्थूल शरीर में ले जाता है । यही आत्मा की स्थानांतरगमन कहा जाता है । इसलिए जो यह जानता है कि आत्मा अनन्त है, बिना मृत्यु के, बिना जन्म के, हमेशा नवीन, नित्य: शाश्वतो अयम् पुराण: । नित्य: शाश्वत: अयम पुराण: पुराण मतलब बहुत पुरानी । हमें पता नहीं है कि हम कितने पुराने हैं, क्योंकि हमारा एक शरीर से दूसरे शरीर को स्थानांतरगमन हो रहा है । हम नहीं जानते है कि हमने यह शुरू कब किया । इसलिए, वास्तव में हम बहुत पुराने हैं, लेकिन, एक ही समय में, नित्य: शाश्वतो अयम् पुराण: हालांकि बहुत पुरानी ... जैसे कृष्ण आदि-पुरुष हैं, मूल व्यक्ति । फिर भी, तुम हमेशा कृष्ण को एक युवक मे रूप में पाअोगे , सोलह से बीस साल की उम्र के । तुम कृष्ण की तस्वीर में बूढा नहीं पाअोगे कभी भी । नव-यौवन । कृष्ण हमेशा नव-यौवन हैं । अद्वैतम अच्युतम अनादिम अनन्त रूपम अाद्यम पुराण पुरुषम् नव-यौवनम ( ब्र स ५।३३) अाद्यम मूल व्यक्ति, और सबसे पुराने, एक ही समय पर, वह हमेशा युवा जीवन में होते हैं । अाद्यम पुराण पुरुषम् नव-यौवनम तो कोई भी जानत हैं कि कैसे आत्मा एक दूसरे के शरीर को स्थानांतरगमन हो रही है धीरस तत्र न मुह्यति, जो लोग शांत हैं, ज्ञानी, वे परेशान नहीं होते हैं ।

कृष्ण का उद्देश्य, अर्जुन को इन सब बातों को सिखाना है ... क्योंकि वे हैरान थे कि वे कैसे जिऍगे, अपने अपने सभी स्वजनों अौर भाइयों को मार कर । तो कृष्ण दिखाना चाहते थै कि " तुम्हारे भाई, तुम्हारेदादा, वे मरेंगे नहीं । वे केवल शरीर को स्थानांतरित करेंगे । वासाम्सि जीर्नानि यथा विहाय (भ गी २।२२) जैसे हम अपने कपड़े बदलते हैं, वैसे ही हम हमारे शरीर को बदलते हैं । अफसोस होने की कोई बात नहीं है ।" एक अन्य जगह में, भगवद गीता, इसलिए, यह कहा जाता है कि ब्रह्म-भूत (BG 18.54) " ब्रह्मण को समझ गया," प्रसन्नात्मा वह हमेशा खुश रहेगा । वह इन भौतिक स्थितियों से परेशान नहीं होता है ।" यहां कहा गया है कि: यम हि न व्यथयन्ति एते । ये अलग परिवर्तन, विभिन्न प्रकृति के परिवर्तन, शरीर, और सब कुछ, हमें इन सब बातों से परेशान नहीं होना चाहिए । ये बाहरी हैं । हम आत्मा हैं । यह बाहरी शरीर है, या बाहरी पोशाक है । यह बदल रहा है । तो अगर हम अच्छी तरह से समझते हैं, न व्यथयन्ति, और तुम इन परिवर्तनों से परेशान नहीं होते हो, फिर सह अमृतत्वाय कल्पते, तो वह प्रगति कर रहा है, आध्यात्मिक प्रगति । इसका मतलब है कि, आध्यात्मिक प्रगति का मतलब है, वह अनन्त जीवन की दिशा में प्रगति कर रहा है । आध्यात्मिक जीवन का अर्थ है अनन्त, ज्ञान का आनंदमय जीवन । यही आध्यात्मिक जीवन है ।