HI/Prabhupada 0272 - भक्ति दिव्य है
Lecture on BG 2.10 -- London, August 16, 1973
तो ये गतिविधियॉ, मूर्ख गतिविधियॉ हैं । लेकिन जब हम सत्व गुण में होते हैं, हम शांत होते हैं । वह समझ सकते है कि कैसे जीना चाहिए, जीवन का मूल्य क्या है, जीवन का उद्देश्य क्या है, जीवन का लक्ष्य क्या है । जीवन का लक्ष्य है ब्रह्मण को समझना । ब्रह्म जानातिति ब्राह्मण: । इसलिए अच्छी गुणवत्ता वाले का मतलब है ब्राह्मण । इसी तरह, क्षत्रिय । तो वे हैं, गुण-कर्म-विभागश: गुण । गुण को ध्यान में रखा जाना चाहिए । श्री कृष्ण नें इसलिए कहा: चतुर वार्णयम मया सृष्टम गुण कर्म विभागश: (भ गी ४।१३) हमनें किसी गुण को अपनाया है । यह बहुत मुश्किल है । लेकिन हम तुरंत सभी गुणों को पार कर सकते हैं । तत्काल । कैसे? भक्ति योग प्रक्रिया के द्वारा । स गुणान समतीत्यैतान ब्रह्म भूयाय कल्पते (भ गी १४।२६) अगर तुम इस भक्ति योग प्रक्रिया को अपनाते हो, तो तुम प्रभावित नहीं होते हो अब, इन तीन गुणों से, सत्व, रजस, तमस । यह भी भगवद गीता में कहा गया है: माम च अ्वयभिचारिनी भक्ति योगेन सेवते जो कोई भी कृष्ण की भक्ति सेवा में लगा हुअा है अव्यभिचारिनी, किसी भी विचलन के बिना, कट्टर, सच्चा ध्यान, ऐसa व्यक्ति, माम च अ्वयभिचारिनी योगेन । माम च अ्वयभिचारिनी भक्ति योगेन सेवते स गुणान समतीत्यैतान ब्रह्म भूयाय कल्पते (भ गी १४।२६) इसके तत्काल बाद, वह सभी गुणों से परे हो जाता है । तो भक्ति सेवा इन भौतिक गुणों के अाधीन नहीं है । वे दिव्य हैं । भक्ति दिव्य है । इसलिए, तुम भक्ति के बिना कृष्ण या भगवान को नहीं समझ सकते हो । भक्त्या माम अभीजानाति (भ गी १८।५५) । केवल भक्त्या माम अभीजानाति । अन्यथा, यह संभव नहीं है । भक्त्या माम अभीजानाति यावान यस चास्मि तत्वत: वास्तविकता, वास्तविकता में, अगर तुम समझना चाहते हो कि भगवान क्या हैं, तो तुम इस भक्ति प्रक्रिया को अपनाअो, भक्ति सेवा । तो फिर तुम पार कर सकोगे । इसलिए, श्रीमद भागवतम में, नारद का कहना है कि: तयक्त्वा स्व-धर्मम् चरणामभुजम हरेर (श्री भ १।५।१७) अगर कोई भी, यहां तक कि भावना में भी, अपने व्यावसायिक कर्तव्य को त्याग देता है, गुण के अनुसार ... वही स्वधर्म कहा जाता है ... स्वधर्म का मतलब है अपनी गुणवत्ता के हिसाब से जो कर्तव्य उसे हासिल हुअा है । वही स्वधर्म कहा जाता है । ब्राह्मण, क्षत्िय, वैश्य, शूद्र, वे विभाजित किए गए हैं गुण-कर्म-विभागश: (भ गी ४।१३), गुणों और कर्म से ।
तो यहाँ अर्जुन का कहना है कि कार्पन्ये-दोशपहत:-स्वभाव: (भ गी २।७) "मैं क्षत्रिय हूँ ।" वे समझते हैं कि: " मैं गलत कर रहा हूँ । मैं लड़ने के लिए मना कर रहा हूँ । इसलिए, यह कार्पन्य दोश है, कृपण । " कंजूस इसका मतलब है मुझे खर्च करने के लिए कुछ साधन मिल है, लेकिन अगर मैं खर्च नहीं करता हूँ, तो यह कंजूस कहा जाता है, कृपणता । तो कृपणता, पुरुषों के दो प्रकार हैं, ब्राह्मण और शूद्र । ब्राह्मण और शूद्र । ब्राह्मण का मतलब ह .वह कंजूस नहीं है । उसे अवसर मिला है, इस मनुष्य शरीर के रूप में महान परिसंपत्ति , कई लाखों मूल्य डॉलर का, यह मानव ... लेकिन वह इसे ठीक से इस्तेमाल नहीं कर रहा है । बस इसे देखता है: "मैं कितना सुंदर हूँ " बस । बस अपनी सुंदरता को खर्चो या, अपनी संपत्ति का उपयोग करो, मानव ... वह ब्राह्मण है, उदार ।