HI/Prabhupada 0253 - असली खुशी भगवद गीता में वर्णित है

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Lecture on BG 2.8 -- London, August 8, 1973

प्रद्युम्न:

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद
यच चोकम उच्कछोशनम इन्द्रियानाम
अवाप्य भूमाव असप्तम ऋद्धम्रा
ज्यम सुरानाम अपि चाधिपत्याम
(भ गी २।८)

अनुवाद, "मुझे कोई साधन नहीं मिल रहा है इस दु: ख को दूर भगाने के लिए जो मेरी इन्द्रियों को सुखा रहा है। मैं इसे नष्ट करने में सक्षम नहीं हो पाऊँगा चाहे में पृथ्वी पर एक बेजोड़ राज्य भी जीतूँ, संप्रभुता के साथ जैसे स्वर्ग में देवताओं की है ।

प्रभुपाद: न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद यही भौतिक अस्तित्व की स्थिति है । हम कभी कभी कठिनाई में हैं । कभी कभी नहीं । हमेशा की तरह, हम कठिनाई में हैं लेकिन हम कभी कभी यह कहते हैं, क्योंकि कठिनाई से बाहर अाने के लिए, हम कुछ प्रयास करते हैं, और वह प्रयास को खुशी मान लेते हैं । असल में कोई खुशी नहीं है । लेकिन कभी कभी, आशा के साथ कि: "इस प्रयास से, मैं भविष्य में खुश हो जाऊँगा," ... अौर यह तथाकथित वैज्ञानिकों सपना देख रहे हैं, भविष्य में, हम मौत के बिना होंगे ।" तो कई, वे सपना देख रहे हैं । लेकिन जो लोग समझदार हैं, वे कहते हैं: " भविष्य पर विश्वास मत करो, कितना ही सुखद क्यों न हो ।"

तो यही वास्तविक स्थिति है । न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद । इसलिए उन्होंने कृष्ण से कहा : शिष्यस ते अहम (भ गी २।७) "मैं, अब मैं अापका शिष्य हुअा ।" "तुम मेरे पास क्यों आए हो?" "क्योंकि मैं किसी और को नहीं जानता हूँ जो मुझे बचा सके इस खतरनाक स्थिति से ।" यह वास्तविक अर्थ है । यच चोकम उच्कछोशनम इन्द्रियानाम (भ गी २।८) । उच्कछोशनम । जब हम बड़ी कठिनाइयों में पडते हैं, यह इंद्रियों के अस्तित्व को सूखा देता है । कोई इन्दि्य भोग भी हमें खुश नहीं कर सकता है । उच्कछोशनम इन्द्रियानाम । यहाँ खुशी का मतलब है इन्द्रिय संतुष्टि । असल में यह खुशी नहीं है । असली खुशी भगवद गीता में वर्णित है: अतिन्द्रियम सुखम अत्यन्तिकम यत तत अतिन्द्रियम (भ गी ६।२१) । असली खुशी, अत्यन्तिकम, परम सुख, का अानन्द इंद्रियों द्वारा नहीं लिया जाता है । अतीन्द्रिय, इन्द्रियों से परे, श्रेष्ठ हैं । वह असली खुशी है । लेकिन हमने खुशी को इन्द्रिय भोग समझ लिया है । तो इन्द्रिय भोग से, कोई भी खुश नहीं हो सकता है । क्योंकि हम भौतिक अस्तित्व में हैं । और हमारी इन्द्रियॉ झूठी इन्द्रियॉ हैं । वास्तविक इन्द्रियॉ - आध्यात्मिक इन्द्रियॉ . इसलिए हमें अपने आध्यात्मिक चेतना को जगाना होगा । तब आध्यात्मिक इंद्रियों द्वारा हम आनंद ले सकते हैं । सुखम अत्यन्तिकम यत तत अतिन्द्रियम (भ गी ६।२१) । इन इंद्रियों से परे । इन इंद्रियों से परे का मतलब है ... यह इंद्रियॉ, मतलब अावरण । वैसे ही जैसे मैं इस शरीर में हूँ । वास्तव में मैं यह शरीर नहीं हूँ । मैं आत्मा हूँ । लेकिन यह मेरे असली शरीर का अावरण है, आध्यात्मिक शरीर । इसी तरह, आध्यात्मिक शरीर की आध्यात्मिक इन्द्रियॉ हैं । एसा नहीं निराकार । क्यों निराकार? यह एक आम समझ है । जैसे तुम्हारे पास एक या दो हाथ हैं, तुम्हारे पास दो हाथ हैं । इसलिए जब हाथ को कुछ कपड़े से ढको, तो कपड़े को भी एक हाथ मिल जाता है । क्योंकि मैंरे हाथ हैं, इसलिए मेरी पोशाक के हाथ हैं । क्योंकि मैरे पैर हैं, इसलिए मेरे अावरण, कपड़े, को पैर हैं, पतलूण । यह एक आम समझ है । कहाँ से यह शरीर आया? यह शरीर वर्णित है: वासाम्सि, वस्त्र । तो वस्त्र मतलब यह शरीर के अनुसार कटता है । यही वस्त्र है । न कि मेरा शरीर वस्त्र के अनुसार बनाया जाता है। यह एक अाम समझ है । तो जब मेरे शर्ट के हाथ हैं, यह मेरा सूक्ष्म शरीर या स्थूल शरीर है, इसलिए मूल, आध्यात्मिक, मेरे अपने हाथ और पैर हैं । अन्यथा, यह कैसे आते हैं ? कैसे विकसित होते हैं?