HI/Prabhupada 0451 हमें भक्त क्या है यह पता नहीं है, उसकी पूजा कैसे करनी चाहिए, तो हम कनिष्ठ अधिकारी रहते है

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Lecture on SB 7.9.4 -- Mayapur, February 18, 1977

इसलिए यही योग्यता, शुद्ध भक्त, व्यक्ति को महा भागवत बनाती है । लेकिन चरण होते हैं । महा- भागवत जन्म से ही, नित्य-सिद्ध कहे जाते हैं । वे सदा सिद्ध हैं । वे कुछ प्रयोजन के लिए आते हैं । तो प्रहलाद महाराज, इस उद्देश्य से आए थे, कि राक्षस, हालांकि वे उनके पिता थे, वे उन्हें बहुत तकलीफ देते थे क्योकि वे कृष्ण भावनाभावित थे। यह निर्देश है । प्रहलाद महाराज कृष्ण के आदेश से ये दिखाना चाहते थे । हिरण्यकश्यपु भी आए थे - श्री कृष्ण का दुश्मन कैसे बनना चाहिए; और प्रहलाद महाराज अाए, दिखाने के लिए, दिखाने के लिए कि कैसे एक भक्त बना जाता है । यह चल रहा है ।

तो महा भागवत... कनिष्ठ-अधिकारी, मध्यम- अधिकारी और महा-भागवत, या उत्तम-अधिकारी । कनिष्ठ-अधिकारी, शुरुआत में उन्हें बहुत अच्छी तरह से सिखाया गया है कि अर्च विग्रह की पूजा कैसे करनी चाहिए । शास्त्र की शिक्षा के अनुसार, गुरु की शिक्षा के अनुसार, हेमें सीखना चाहिए कि अर्च विग्रह की पूजा कैसे करनी चाहिए ।

अर्चायाम एव हरये य:
पूजाम श्रद्धायेहते
न तद-भक्तेशु चान्येशु
स भक्त: प्रकृत: स्मृत:
(श्रीमद भागवतम ११.२.४७)
लेकिन व्यक्ति को प्रगति करनी चाहिए । यही भक्ति सेवा की प्रगति है । लेिकन अगर हम केवल अर्च विग्रह की पूजा में ही रहते हैं, हम दूसरों के लिए महसूस नहीं करते हैं - न चान्येशु न तद-भक्त: - तुम्हें भक्त क्या है यह पता नहीं है, उसकी पूजा कैसे करनी चाहिए, तो हम कनिष्ठ-अधिकारी रहते हैं । और मध्यम-अदीकारी का मलतब है उसे अपनी स्थिति का पता होना चाहिए, दूसरों की स्थिति भी, भक्त की स्थिति, भगवान की स्थिति, और यही मध्यम-अधिकारी है । ईश्वर तद-अधीनेशु बालिशेशु द्विशत्सु च (श्रीमद भागवतम ११.२.४६) | उसकी दृष्टि चार प्रकार की होगी: भगवान, ईश्वर; तद-अधिनेशु, जिसने भगवान की शरण ले ली है - इसका मतलब है भक्त - ईश्वर तद-अधीनेशु; बालिशु द्विशत्सु, मासूम बच्चे, जैसे इन बच्चों की तरह, बालिश, अर्भक: और, द्विशत्सु, जलना । 

एक मध्यम-अधिकारी इन चार अलग अलग व्यक्तियों को देख सकते हैं, और वे उनसे अलग तरह से पेश अाते हैं । वह क्या है? प्रेम-मैत्री-कृपोपेक्ष । ईश्वर, भगवान को, कृष्ण को, प्यार करना, प्रेम । और मैत्री । मैत्री का मतलब है दोस्त बनाना । जो एक भक्त है, हमें उसके साथ दोस्ती करनी चाहिए । हमें इर्षा नहीं करनी चाहिए, हमें दोस्त बनाना चाहिए । मैत्री । और निर्दोष, बस इन बच्चों की तरह, कृपा - उन पर दया करने के लिए, कैसे वे भक्त बनेंगे, कैसे वे जप करना सीखेंगे, नृत्य करना, उन्हे भोजन देना, उन्हें शिक्षा देना । इसे कृपा कहा जाता है । और अाखरी, उपेक्षा, उपेक्षा का मतलब है जो जलते हैं, उन लोगों के साथ संबद्ध मत रखो, उपेक्षा "नहीं..." लेकिन महा-भागवत, वह किसी की भी उपेक्षा नहीं करता है । वह उन लोगों से भी प्यार करता है जो द्विशत्सु हैं । जैसे प्रहलाद महाराज की तरह । प्रहलाद महाराज, उनके पिता बहुत, बहुत ईर्षालु थे । फिर भी, प्रहलाद महाराज नें अपने निजी लाभ के लिए कोई भी आशीर्वाद को स्वीकार करने से इनकार कर दिया, लेकिन उन्होंने विनती कि नरसिंह-देवे से कि उनकेपिता को माफ करें, कि "मेरे पिता हैं ..." उन्होंने व्यक्तिगत कुछ भी नहीं माँगा ।

लेकिन फिर भी, वे जानते थे कि, "मेरे जीवन के दौरान मेरे पिता नें दुश्मन की भूमिका निभाई है... (तोड़) तो यह अवसर है । मैं भगवान से भीख माँगता हूँ की वे मेरे पिता को माफ़ कर दे | " तो कृष्ण को यह पता था । उनके पिता को पहले ही माफ किया गया था । क्योंकि वे प्रहलाद महाराज के पिता बने थे उन्हे पहले से ही आशीर्वाद प्राप्त था । यह इतनी साधारण बात नहीं है इतना उत्तम पुत्र प्राप्त करना ।

तो जैसे ही प्रहलाद महाराज नें नरसिंह-देव से अनुरोध किया "कृपया, मेरे पिता को माफ करें," तो उन्होंने तुरंत कहा "तुम्हारे पिता ही नहीं - उनके पिता, उनके पिता, उनके पिता, हर एक मुक्त होगा ।" तो हमें प्रहलाद महाराज से शिक्षा लेनी चाहिए कि अगर एक बच्चा परिवार मेंं भक्त बन जाता है, वह सबसे अच्छा बच्चा है, सबसे अच्छा । वह परिवार के लिए सबसे अच्छी सेवा दे रहा है । लेकिन वे दुष्ट, वे अन्यथा ले रहे हैं, कि, "मेरा पुत्र भक्त बन गया है । अपहरण से, कुछ भी करके उसे वापस लाओ ।" लोग इतने बदमाश हैं । तुम देखते हो? वे इसे महान लाभ नहीं मानते हैं कि "मेरा भाग्यशाली बेटा एक भक्त बन गया है । मेरा पूरा परिवार मुक्त हो जाएगा ।" लेकिन उन्हे ज्ञान नहीं है । उनके पास दिमाग नहीं है । इसलिए मैं कहता हूँ, यह दिमाग का धुलाव नहीं है, यह दिमाग देना है । उनका तो दिमाग ही नहीं है । (हंसी) तो इसे बहुत गंभीरता से लो और अच्छी तरह से करो ।

बहुत बहुत धन्यवाद ।

भक्त: जया!