HI/Prabhupada 0908 - मैं सुखी होने की कोशिश कर सकता हूँ, अगर कृष्ण मंजूरी नहीं देते हैं, मैं कभी सुखी नहीं हूँगा
730419 - Lecture SB 01.08.27 - Los Angeles
संबंध में... जैसे प्रहलाद महाराज की तरह । प्रहलाद महाराज खड़े हैं, और उनके पिता को मारा जा रहा है । यह नैतिक है ? क्या तुम अपने पिता को तुम्हारी उपस्थिति में मारे जाते हुए देखना चाहोगे, और तुम खड़े रहो ? तुम विरोध नहीं करो । क्या यह नैतिक है ? कोई भी इसको स्वीकृती नहीं देगा, कि यह नैतिक है, नहीं । लेकिन वास्तव में यह हुअा, की हिरण्यकशिपु मारा जा रहा था... चित्र यहाँ है, और प्रहलाद महाराज माला पहनाने की कोशिश कर रहै हैं - हत्यारे को (हंसी) | "मेरे प्रिय भगवान, हत्यारे, आप यह माला लीजिए । आप मेरे पिता की हत्या कर रहे हैं । आप बहुत अच्छे लड़के हैं । "(हंसी) तुम समझ रहे हो । यह, यह आध्यात्मिक समझ है ।
कोई भी अनुमती नहीं देगा... अगर तुम अपने पिता की रक्षा नहीं कर सकते हो, तो तुम्हे विरोध तो करना ही चाहिए, तुम्हे रोना चाहिए कि: "यहाँ मेरे पिता को मारा जा रहा है । आओ, आओ, आओ । मदद कीजिए..." नहीं, वे माला के साथ तैयार हैं । अौर जब वह मारा गया, उन्होंने नरसिंहदेव से कहा: "मेरे प्रिय भगवान, अब मेरे पिता मर गए हैं । तो हर कोई खुश है । अब अपने गुस्से को त्याग दीजिए ।" कोई भी दुखी नहीं है। उन्होंने यही शब्द कहा है । मोदेत साधुर अपि वृश्चिक सर्प हत्या (श्रीमद भागवतम ७.९.१४) । मोदेत साधुर अपि ।
एक साधु, एक साधु, कभी अनुमती नहीं देगा कि किसी को मारा जाए । कभी नहीँ । यहां तक कि एक जानवर को भी । एक साधु स्वीकृति नहीं देगा । क्यों जानवर को मारा जाना चाहिए ? यही साधु का काम है । लेकिन प्रहलाद महाराज कहते हैं: मोदेत साधुर अपि । एक साधु, एक साधु, भी खुश है । कब ? जब एक बिच्छू या एक सांप को मार डाला जाता है । वे भी जीव हैं । एक साधु कभी नहीं संतुष्ट होता है कि कोई भी जीव मारा जाए, लेकिन प्रहलाद महाराज कहते हैं "एक साधु प्रसन्न होता है जब एक सांप को या एक बिच्छू को मार डाला जाता है ।" तो मेरे पिता एक सांप और बिच्छू की तरह है । तो वे मारे गए है । इसलिए हर कोई खुश है ।" हर कोई था...
इस तरह का राक्षस, जो केवल भक्तों को तकलीफ देता है, ऐसा दानव, एक बहुत ही खतरनाक दानव । तो जब ऐसा राक्षस मारा जाता है, साधु भी संतुष्ट हैं । हालांकि साधु, वे नहीं चाहते हैं कि कोई भी मारा जाए । तो श्री कृष्ण अकिन्चन वित्त हैं । जिसने अपना सब कुछ भौतिक खो दिया है, उसके लिए, श्री कृष्ण एकमात्र सहारा हैं । तो कृष्ण इतने दयालु हैं कि अगर कोई भौतिक समृद्धि चाहता है, और, साथ साथ, एक भक्त बनना चाहता है ...
यही चैतन्य-चरितामृत में कहा गया है: "कोई मुझे चाहता है । उसी समय, वह भौतिक समृद्धि चाहता है । वह मूर्ख है । वह मूर्ख है । " इसलिए लोग बहुत बहुत डरते हैं, कृष्ण भावनामृत में अाने के लिए । "ओह, मेरी भौतिक समृद्धि खत्म हो जाएगी ।" क्योंकि वे चाहते हैं, नहीं चाहते, यह नहीं चाहते हैं । वे जुड़े रहना चाहते है..... आम तौर पर, वे चर्च जाते हैं, मंदिर जाते हैं भोतिक समृद्धि के लिए । "भगवान हमें हमारी दैनिक रोटी दो ।" यही भौतिक समृद्धि है । या "मुझे यह दो, मुझे वह दो ।" लेकिन वे पवित्र माने जाते हैं क्योंकि वे भगवान के पास अाए हैं । नास्तिक वर्ग, वे अाते भी नहीं है । वे कहते हैं: "क्यों मैं भगवान के पास जाऊ ? मैं अपना धन खुद पैदा करूँगा ? विज्ञान की उन्नति के द्वारा, मैं खुश हो जाऊँगा । " वे दुष्कृतिन: हैं, बहुत पापी, जो यह कहते हैं, की: "मेरी समृद्धि के लिए, मैं अपनी ही ताकत पर निर्भर करूँगा, मेरे अपने ज्ञान पर ।"
वे दुष्कृतिन: हैं । लेकिन जो यह सोचता है की "मेरी समृद्धि भगवान की दया पर निर्भर करती है, "वे पवित्र है । वे पवित्र है । क्योंकि भगवान की मंजूरी के बिना, कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता । यह एक तथ्य है। तावद तनुर इदम तनुपेक्षितानाम (?) । यह भी बयान है... की हमने अपने व्यथित हालत को कम करने के लिए इतने सारे प्रतिकार के तरीकों की खोज की है, लेकिन अगर इसे भगवान द्वारा मंजूरी नहीं मिलती है, यह प्रतिकार प्रस्ताव विफल हो जाएँगे । उदाहरण है... जैसे तुमने एक अच्छी दवा की खोज की है, बहुत ही योग्य चिकित्सक । यह सब ठीक है । लेकिन जब एक आदमी बीमार है, चिकित्सक से पूछो: "क्या तुम इस रोगी के जीवन की गारंटी दे सकते हो ?" वह कभी नहीं कहेगा: "नहीं, मैं ऐसा कर सकता हूँ । मैं ऐसा नहीं कर सकता । मैं अपनी पूरी कोशिश कर सकता हूँ । बस ।"
इसका मतलब है मंजूरी भगवान के हाथ में है । "मैं केवल साधन हूँ । अगर भगवान नहीं चाहते हैं कि तुम जीवित रहो, तो मेरी सारी दवाएं, मेरा सारा वैज्ञानिक ज्ञान, चिकित्सा ज्ञान, विफल हो जाएगा । " अंतिम मंजूरी श्री कृष्ण की है । वे, मूर्ख व्यक्ति, वे नहीं जानते । वे हैं, वे हैं... उन्हे मूढ़ कहा जाता है, धूर्त । की जो कुछ भी तुम कर रहे हो, यह बहुत अच्छा है, लेकिन अंत में, अगर यह भगवान द्वारा, कृष्ण द्वारा, मंजूर नहीं किया जाता है, यह सब विफल होगा । वे नहीं जानते हैं । इसलिए वे मूढ़ हैं । और एक भक्त जानता है की: "जो भी बुद्धि मुझे मिली है, मैं खुश रहने का प्रयास कर सकता हूँ, अगर श्री कृष्ण मंजूरी नहीं देते हैं, तो मैं कभी खुश नहीं हो सकता हूँ । " यही भक्त और अभक्त के बीच का अंतर है ।