HI/Prabhupada 0600 - हम आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार नहीं हैं । यह हमारा भौतिक रोग है

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Lecture on BG 2.23 -- Hyderabad, November 27, 1972

तो चैतन्य महाप्रभु, क्योंकि लोग कृष्ण को गलत समझते हैं ... कृष्ण नें भगवद गीता में पूछा कि "तुम मुझे पर्यत आत्मसमर्पण करो ।" वे क्या कर सकते हैं ? वे भगवान हैं । वे कृष्ण हैं । वे वहाँ हैं, आपसे कहते हैं, आदेश देते हैं : "तुम आत्मसमर्पण करो । मैं तुम्हारी जिम्मेदारी लेता हूँ ।" अहम् त्वाम सर्व-पाप ... लेकिन फिर भी, लोग गलत समझते हैं: "ओह, मैं क्यों कृष्ण को आत्मसमर्पण करूँ ? वह भी मेरे जैसे एक आदमी है । शायद थोडा सा महत्वपूर्ण । लेकिन क्यों मैं उनको पर्यत आत्मसमर्पण करूँ ?" क्योंकि यहाँ भौतिक रोग है आत्मसमर्पण न करने का । हर कोई घमंडी है: "मैं कुछ हूँ । " यह भौतिक बीमारी है । इसलिए इस भौतिक बीमारी से ठीक होने के लिए, आप को आत्मसमर्पण करना होगा ।

तद विद्धि प्रणिपातेन
परिप्रश्नेन सेवया
उपदेक्षयन्ति ते ज्ञानम
ज्ञानिनस तत्व दर्शिन:
(भ गी ४।३४)

तो जब तक अाप आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार नहीं हो... भौतिकवादी व्यक्ति के लिए यह एक महान मुश्किल काम है । कोई भी आत्मसमर्पण करना नहीं चाहता है । वह प्रतिस्पर्धा करना चाहता है । व्यक्तिगत रूप से, व्यक्ति सेव्यक्ति, परिवार से परिवार, राष्ट्र से राष्ट्र, हर कोई मालिक बनने की कोशिश कर रहा है । समर्पण का सवाल कहां है? आत्मसमर्पण करने का कोई सवाल ही नहीं है । तो यह रोग है । इसलिए कृष्ण अादेश देते हैं कि इस धूर्तता का इलाज करने के लिए, या सबसे पुरानी बीमारी, आप आत्मसमर्पण करो सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज (भ गी १८।६६) "फिर? अगर मैं समर्पण करता हूँ, तो पूरी बात विफल हो जाएगी ? मेरा व्यापार, मेरी योजना, मेरी, कई बातें ...?" नहीं । "मैं तुम्हारी जिम्मेदारी लेता हूँ । मैं तुम्हारी जिम्मेदारी लेता हूँ ।" अहम् त्वाम सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: "चिंता मत करो ।" इतना आश्वासन है । फिर भी, हम आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार नहीं हैं । यह हमारा भौतक रोग है । इसलिए कृष्ण फिर से अाए एक भक्त के रूप में केवल दिखाने के लिए कि कृष्ण को आत्मसमर्पण कैसे करना है । चैतन्य महाप्रभु । कृष्ण-वर्णम् त्विषाकृष्णम सामगोपांगास्त्र पार्षदम (श्री भ ११।५।३२)

तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन बहुत ही वैज्ञानिक और अधिकृत है । यह एक फर्जी बात नहीं है, मन के द्वारा निर्मित को मनगढ़ंत कहानी । यह अधिकृत है, वैदिक शिक्षा पर आधारित, कृष्ण कहते हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज (भ गी १८।६६) । इसलिए हम केवल यह तत्वझान को पढ़ाते हैं, कि अाप ... कृष्ण, यहाँ कृष्ण हैं, देवत्व के परम व्यक्तित्व । अाप भगवान को खोज रहे हैं । अाप समझ नहीं सकते हैं कि भगवान क्या हैं । यहां भगवान हैं, कृष्ण । उनका नाम, उनकी गतिविधियों, सब कुछ भगवद गीता में है । आप स्वीकार करो और उन्हे आत्मसमर्पण करो । और जैसा कि कृष्ण कहते हैं, मन मना भव मद-भक्तो मद-याजी माम नमस्कुरु (ब गी १८।६५) तो हम एक ही बात बोल रहे हैं । जो यह भगवद गीता में कहा गया है । हम गलत अर्थ नहीं निकालते हैं । हम पूरे भगवद गीता को खराब नहीं करते हैं । हम यह शरारत नहीं करते । कभी कभी लोग कहते हैं, "स्वामीजी, आपने अद्भुत काम किया है ।" लेकिन क्या अद्भुत ? मैं एक जादूगर नहीं हूँ । मेरी श्रेय केवल यह है कि मैंने भगवद गीता को खराब नहीं किया है । मैं यथार्थ प्रस्तुत किया है । इसलिए यह सफल रहा है ।

बहुत बहुत धन्यवाद । हरे कृष्ण । (समाप्त)