HI/Prabhupada 0036 - जीवन का लक्ष्य है हमारे स्वाभाविक स्थिति को समझना: Difference between revisions
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तो जब हम हैरान हो जाते हैं, इस भौतिक | तो जब हम हैरान हो जाते हैं, इस भौतिक कार्यों से, क्या करना है - करें या न करें, यह उदाहरण है - उस समय हमें एक गुरु का अाश्रय लेना चाहिए । यहाँ यही निर्देश है, हम देखते हैं । पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता: ([[HI/BG 2.7 |भ गी २.७]]) । जब हम भ्रमित होते हैं, हम अंतर नहीं करते हैं कि क्या धार्मिक है और क्या अधार्मिक है, अपनी स्थिति का ठीक से उपयोग नहीं करते हैं । यही है कार्पण्य दोषोपहत स्वभाव: ([[HI/BG 2.7 |भ गी २.७]]) । उस समय गुरु की आवश्यकता है । यही वैदिक शिक्षा है । तद विज्ञानार्थं स गुरुं एवाभिगच्छेत् श्रोत्रियं ब्रह्म निष्ठं (मुंडक उपनिषद १.२.१२) । यही कर्तव्य है । यह सभ्यता है, कि हम जीवन की कई समस्याओं का सामना कर रहे हैं । यह स्वाभाविक है । | ||
इस भौतिक संसार में, यह भौतिक दुनिया का अर्थ है जीवन की समस्याऍ । पदं पदं यद विपदां ([[Vanisource:SB 10.14.58|श्रीमद भागवतम १०.१४.५८]]) । भौतिक दुनिया का अर्थ है हर कदम में खतरा है । यही भौतिक दुनिया है । तो इसलिए हमें गुरु से मार्गदर्शन लेना चाहिए, शिक्षक से, आध्यात्मिक गुरु से कि कैसे प्रगति करें, क्योंकि यह ... यह बाद में समझाया जाएगा कि हमारे जीवन का लक्ष्य कम से कम इस मनुष्य जीवन में, आर्य सभ्यता में, जीवन का लक्ष्य है, हमारे स्वाभाविक स्थिति को समझना, "मैं क्या हूँ । मैं क्या हूँ ।" अगर हम यह समझ नहीं सकते हैं "मैं क्या हूँ," तो मैं बिल्लियों और कुत्तों के समान हूँ । कुत्ते, बिल्लि, वे नहीं जानते हैं । उन्हे लगता है कि वे शरीर हैं । यह समझाया जाएगा । | |||
तो जीवन की ऐसी हालत में, जब हम हैरान हैं ... दरअसल हम हर पल हैरान हैं । इसलिए यह आवश्यक है कि हम उचित गुरु की शरण ग्रहण करें । अब अर्जुन शरण ग्रहण कर रहे हैं कृष्ण की, प्रथम श्रेणी के गुरु हैं । प्रथम श्रेणी के गुरु । गुरू का अर्थ है परम भगवान । वह सब के गुरु हैं, परम गुरु । तो जो कोई भी कृष्ण का प्रतिनिधित्व करता है, वह भी गुरु है । यह चौथे अध्याय में विस्तार से बताया जाएगा । एवं परम्परा प्राप्तम इमं राजर्षयो विदु: ([[HI/BG 4.2|भ गी ४.२]]) । तो कृष्ण उदाहरण दिखा रहे हैं, हमें कहाँ शरण ग्रहण करना चाहिए और गुरु स्वीकार करना चाहिए । यहां कृष्ण हैं । तो तुम्हे कृष्ण को या उनके प्रतिनिधि को गुरु स्वीकार करना होगा । फिर तुम्हारी समस्याओं का हल हो जाएगा । अन्यथा यह संभव नहीं है क्योंकि वे कह सकते हैं कि तुम्हारे लिए क्या अच्छा है, तुम्हारे लिए क्या बुरा है । वह पूछ रहा है, यच श्रेय: स्यान निशचितं ब्रूहि तत् ([[HI/BG 2.7 |भ गी २.७]]) । निशचितं । | |||
अगर तुम सलाह चाहते हो, निर्देश, निश्चितम, जो किसी भी भ्रम के बिना है, किसी भी शक के बिना, किसी भी गलती के बिना, किसी भी धोख़े के बिना, उसे निश्चितम कहा जाता है । वह तुम कृष्ण या उनके प्रतिनिधि से प्राप्त कर सकते हो । तुम अपूर्ण व्यक्ति या एक बेईमान से सही जानकारी नहीं पा सकते हो । यह सही शिक्षा नहीं है । आजकल यह एक फैशन बन गया है, हर कोई गुरु हो रहा है और वह अपनी राय दे रहा है "में सोचता हूँ," "मुझे लगता है ।" वह गुरु नहीं है । गुरु का अर्थ है कि उसे शास्त्र से सबूत देने चाहिए । य: शास्त्र विधिं उत्सृज्य वर्तते काम कारत: ([[HI/BG 16.23|भ गी १६.२३]]) "जो कोइ भी शास्त्र से, सबूत, सबूत नहीं देता है, तो" न सिध्धिं स अवाप्नोति ([[HI/BG 16.23|भ गी १६.२३]]), "उसे कभी भी सफलता नहीं मिलती," न सुखं ([[HI/BG 16.23|भ गी १६.२३]]), "न तो कोई सुख इस भौतिक संसार में, " न परां गतिं ([[HI/BG 16.23|भ गी १६.२३]]), "और अगले जीवन में ऊन्नती की क्या बात करें ।" ये आज्ञा है । | |||
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Latest revision as of 17:39, 1 October 2020
Lecture on BG 2.1-11 -- Johannesburg, October 17, 1975
तो जब हम हैरान हो जाते हैं, इस भौतिक कार्यों से, क्या करना है - करें या न करें, यह उदाहरण है - उस समय हमें एक गुरु का अाश्रय लेना चाहिए । यहाँ यही निर्देश है, हम देखते हैं । पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता: (भ गी २.७) । जब हम भ्रमित होते हैं, हम अंतर नहीं करते हैं कि क्या धार्मिक है और क्या अधार्मिक है, अपनी स्थिति का ठीक से उपयोग नहीं करते हैं । यही है कार्पण्य दोषोपहत स्वभाव: (भ गी २.७) । उस समय गुरु की आवश्यकता है । यही वैदिक शिक्षा है । तद विज्ञानार्थं स गुरुं एवाभिगच्छेत् श्रोत्रियं ब्रह्म निष्ठं (मुंडक उपनिषद १.२.१२) । यही कर्तव्य है । यह सभ्यता है, कि हम जीवन की कई समस्याओं का सामना कर रहे हैं । यह स्वाभाविक है ।
इस भौतिक संसार में, यह भौतिक दुनिया का अर्थ है जीवन की समस्याऍ । पदं पदं यद विपदां (श्रीमद भागवतम १०.१४.५८) । भौतिक दुनिया का अर्थ है हर कदम में खतरा है । यही भौतिक दुनिया है । तो इसलिए हमें गुरु से मार्गदर्शन लेना चाहिए, शिक्षक से, आध्यात्मिक गुरु से कि कैसे प्रगति करें, क्योंकि यह ... यह बाद में समझाया जाएगा कि हमारे जीवन का लक्ष्य कम से कम इस मनुष्य जीवन में, आर्य सभ्यता में, जीवन का लक्ष्य है, हमारे स्वाभाविक स्थिति को समझना, "मैं क्या हूँ । मैं क्या हूँ ।" अगर हम यह समझ नहीं सकते हैं "मैं क्या हूँ," तो मैं बिल्लियों और कुत्तों के समान हूँ । कुत्ते, बिल्लि, वे नहीं जानते हैं । उन्हे लगता है कि वे शरीर हैं । यह समझाया जाएगा ।
तो जीवन की ऐसी हालत में, जब हम हैरान हैं ... दरअसल हम हर पल हैरान हैं । इसलिए यह आवश्यक है कि हम उचित गुरु की शरण ग्रहण करें । अब अर्जुन शरण ग्रहण कर रहे हैं कृष्ण की, प्रथम श्रेणी के गुरु हैं । प्रथम श्रेणी के गुरु । गुरू का अर्थ है परम भगवान । वह सब के गुरु हैं, परम गुरु । तो जो कोई भी कृष्ण का प्रतिनिधित्व करता है, वह भी गुरु है । यह चौथे अध्याय में विस्तार से बताया जाएगा । एवं परम्परा प्राप्तम इमं राजर्षयो विदु: (भ गी ४.२) । तो कृष्ण उदाहरण दिखा रहे हैं, हमें कहाँ शरण ग्रहण करना चाहिए और गुरु स्वीकार करना चाहिए । यहां कृष्ण हैं । तो तुम्हे कृष्ण को या उनके प्रतिनिधि को गुरु स्वीकार करना होगा । फिर तुम्हारी समस्याओं का हल हो जाएगा । अन्यथा यह संभव नहीं है क्योंकि वे कह सकते हैं कि तुम्हारे लिए क्या अच्छा है, तुम्हारे लिए क्या बुरा है । वह पूछ रहा है, यच श्रेय: स्यान निशचितं ब्रूहि तत् (भ गी २.७) । निशचितं ।
अगर तुम सलाह चाहते हो, निर्देश, निश्चितम, जो किसी भी भ्रम के बिना है, किसी भी शक के बिना, किसी भी गलती के बिना, किसी भी धोख़े के बिना, उसे निश्चितम कहा जाता है । वह तुम कृष्ण या उनके प्रतिनिधि से प्राप्त कर सकते हो । तुम अपूर्ण व्यक्ति या एक बेईमान से सही जानकारी नहीं पा सकते हो । यह सही शिक्षा नहीं है । आजकल यह एक फैशन बन गया है, हर कोई गुरु हो रहा है और वह अपनी राय दे रहा है "में सोचता हूँ," "मुझे लगता है ।" वह गुरु नहीं है । गुरु का अर्थ है कि उसे शास्त्र से सबूत देने चाहिए । य: शास्त्र विधिं उत्सृज्य वर्तते काम कारत: (भ गी १६.२३) "जो कोइ भी शास्त्र से, सबूत, सबूत नहीं देता है, तो" न सिध्धिं स अवाप्नोति (भ गी १६.२३), "उसे कभी भी सफलता नहीं मिलती," न सुखं (भ गी १६.२३), "न तो कोई सुख इस भौतिक संसार में, " न परां गतिं (भ गी १६.२३), "और अगले जीवन में ऊन्नती की क्या बात करें ।" ये आज्ञा है ।