HI/Prabhupada 0089 - कृष्ण का तेज सर्वस्व का स्रोत है

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Lecture on BG 4.24 -- August 4, 1976, New Mayapur (French farm)

फ्रेंच भक्त: इसका क्या अर्थ है, जब कृष्ण कहते हैं, "मैं उनमें नहीं हूँ? "

प्रभुपाद: क्या ? "मैं उनमें नहीं हूँ " क्योंकि आप वहाँ नहीं देख सकते। कृष्ण वहाँ है, लेकिन आप उन्हें नहीं देख सकते । आप इतने उन्नत नहीं हैं । जैसे एक उदाहरण । इधर, सूरज की रोशनी यहाँ है । हर कोई अनुभव करता है । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि सूरज यहाँ है । यह स्पष्ट है ? सूर्य यहाँ है इसका अर्थ है ... धूप यहाँ है का अर्थ है सूरज यहाँ है । लेकिन फिर भी, क्योंकि आप धूप में हो, आप यह नहीं कह सकते हैं, "अब मैंने सूरज को पकड़ लिया है ।" धूप सूरज में विद्यमान है, लेकिन सूरज धूप में मौजूद नहीं है । सूर्य के बिना कोई धूप नहीं है । इसका अर्थ यह नहीं कि धूप सूरज है । साथ ही, आप कह सकते हैं कि धूप का अर्थ सूरज है । यही अचिन्त्यभेद- अभेद कहा जाता है ।

एक ही समय में समान और अलग । धूप में आप सूरज की उपस्थिति महसूस करते हैं, लेकिन अगर आप सूर्य लोक में प्रवेश करने में सक्षम हुए, तो आप सूर्यदेव से भी मिल सकते हैं । दरअसल, धूप का अर्थ है सूर्य लोक में रहने वाले व्यक्ति के शरीर की किरणें । यह, ब्रह्म-संहिता में स्पष्ट किया गया है, यस्य प्रभा प्रभवतो जगद-अंड कोटि (ब्रह्म संहिता ५.४०) । कृष्ण के कारण... आप देखते हैं कृष्ण का तेज आ रहा है । यही सर्वस्व का स्रोत है । उस तेज का विस्तार ब्रह्मज्योति है,और उस ब्रह्मज्योति में, असंख्य आध्यात्मिक लोक, भौतिक लोक, उत्पन्न हो रहे हैं । और हर लोक में कई विविधताएँ हैं । असल में, स्त्रोत कृष्ण के शरीर की किरणें हैं और किरणों की उत्पत्ति का स्त्रोत कृष्ण हैं ।