HI/Prabhupada 0175 -धर्म का मतलब है धीरे धीरे कौवे को हंस में बदलना

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Lecture on SB 1.8.33 -- Los Angeles, April 25, 1972

कोई भी साहित्य जिसका भगवान के ज्ञान के साथ कोई संबंध नहीं है, तद् तद् वयसम तीर्थम, वह उस जगह की तरह है जहॉ कौवे आनंद लेते हैं । कौवे कहाँ आनंद लेते हैं ? गंदी जगह में । और हंस, सफेद हंस, वे आनंद लेते हैं साफ पानी में जहाँ उद्यान होते हैं, वहाँ पक्षी हैं ।

तो, पशुओं में भी मतभेद है । हंस वर्ग और कौवा वर्ग । प्राकृतिक विभाजन । कौवा हंस के पास नहीं जाएगा । हंस कौवे के पास नहीं जाएगा । इसी प्रकार मानव समाज में, कौवा वर्ग के पुरुष और हंस वर्ग के पुरुष हैं । हंस वर्ग के पुरुष यहाँ आएँगे क्योंकि यहाँ सब कुछ अच्छा है, स्पष्ट है, अच्छा तत्वज्ञान, अच्छा भोजन, अच्छी शिक्षा, अच्छे कपड़े, अच्छा मन, सब कुछ अच्छा । और कौवा वर्ग के पुरुष जाएँगे किसी क्लब में, किसी पार्टी में, नग्न नृत्य में, इतनी सारी चीज़ें हैं । आप देखते हैं ।

तो यह कृष्णभावनामृत आंदोलन पुरुषों के हंस वर्ग के लिए है । न की पुरुषों के कौवे वर्ग के लिए । नहीं । लेकिन हम कौवे को हंस में बदल सकते हैं । यही हमारा तत्वज्ञान है । जो अब तक एक कौआ था अब वह हंस की तरह तैर रहा है । हम ऐसा कर सकते हैं । यही कृष्णभावनामृत का लाभ है । तो जब हंस कौवे बन जाते हैं, यह भौतिक संसार है । यही श्रीकृष्ण कहते हैं:

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर् भवति
(भ गी ४.७) ।

जीव इस भौतिक शरीर में कैद है और वह इन्द्रियों को संतुष्ट करने की कोशिश कर रहा है, एक के बाद एक शरीर, एक के बाद एक शरीर, एक के बाद एक शरीर । यह स्थिति है । और धर्म का अर्थ है धीरे - धीरे कौवे को हंसों में बदलना । यही धर्म है ।

जैसे एक व्यक्ति बहुत अनपढ़ हो सकता है, असभ्य, लेकिन उसे शिक्षित, सुसंस्कृत व्यक्ति में परिवर्तित किया जा सकता है । शिक्षा से, प्रशिक्षण के द्वारा । तो मनुष्य जीवन में यह संभावना है । मैं एक भक्त बनने के लिए कुत्ते को प्रशिक्षित नहीं कर सकता हूँ । यह कठिन है । यह भी किया जा सकता है । लेकिन मैं इतना शक्तिशाली नहीं हूँ ।

जैसे चैतन्य महाप्रभु नें किया था । जब वे जंगल से गुज़र रहे थे, झारिखंड, बाघ, सांप, हिरण, सभी जानवर, वे भक्त बन गए । वे भक्त बन गए । तो जो चैतन्य महाप्रभु के लिए संभव था ... क्योंकि वे स्वयं भगवान हैं । वे कुछ भी कर सकते हैं । हम ऐसा नहीं कर सकते । लेकिन हम मनुष्य समाज में कार्य कर सकते हैं । इससे फर्क नहीं पड़ता कि व्यक्ति कितना अधम है । अगर वह हमारे अादेशों का पालन करता है तो उसे बदला जा सकता है ।

इसे धर्म कहा जाता है । धर्म का अर्थ है व्यक्ति को उसकी मूल स्थिति में लाना । यही धर्म है । तो अलग अलग स्तर हो सकते हैं । लेकिन मूल स्थिति यह है कि हम भगवान के अभिन्न अंग हैं, अौर जब हम समझ जाते हैं कि हम भगवान के अभिन्न अंग हैं, तो यह हमारे जीवन की वास्तविक स्थिति है । इसे ब्रह्म-भूत कहा जाता है (श्रीमद् भागवतम् ४.३०.२०) चरण, अपने ब्रह्म साक्षात्कार को समझना, पहचानना ।