HI/Prabhupada 0174 - प्रत्येक जीव भगवान की सन्तान है



Lecture on SB 1.8.26 -- Los Angeles, April 18, 1973

तो प्रत्येक जीव भगवान का पुत्र है । भगवान ही परमपिता हैं । कृष्ण कहते हैं अहम बीज प्रद: पिता । "मैं प्रत्येक जीव का बीज- प्रदाता पिता हूँ । " सर्व योनिषु कौन्तेय (भ गी १४.४)। " जिस भी रूप में वे हों, वे सभी जीव हैं, वे मेरे पुत्र हैं । " असल में यह तथ्य है । हम सब जीव, हम भगवान के पुत्र हैं । लेकिन हम भूल गए हैं । इसलिए हम लड़ रहे हैं । जैसे एक अच्छे परिवार में अगर कोई जानता है : " पिता हमें खाद्य आपूर्ति कर रहे हैं, तो हम भाई हैं, हम क्यों लड़ें ?" इसी तरह अगर हम कृष्ण के प्रति सजग हो जाते हैं, अगर हम भगवान के प्रति सजग हो जाते हैं , तो यह लड़ाई खत्म हो जाएगी । "मैं अमरिकी हूँ, मैं भारतीय हूँ, मैं रूसी हूँ, मैं चीनी हूँ ।" ये सब बकवास बातें खत्म हो जाएँगी । कृष्णभावनामृत आंदोलन इतना अच्छा है ।

जैसे ही लोग श्रीकृष्ण के प्रति सजग हो जाते हैं, यह लड़ाई, यह राजनीतिक लड़ाई, राष्ट्रीय लड़ाई, तुरंत खत्म हो जाएँगी । क्योंकि वे सब असली चेतना में अा जाएँगे कि सब कुछ भगवान का है । और जैसे बच्चे, परिवार के बालक को पिता से लाभ लेने का अधिकार मिलता है, उसी प्रकार से हर कोई भगवान का अभिन्न अंग है, अगर सब भगवान की संतान हैं, फिर हर किसी को पिता की संपत्ति का उपयोग करने का अधिकार मिलता है । तो यह अधिकार ... यह नहीं की अधिकार,अधिकार मनुष्य को मिलतै है । भगवद्गीता के अनुसार, यह अधिकार सभी जीवों के लिए है । कोई बात नहीं कि वह जीव है या जानवर या पेड़, या पक्षी या जानवर या कीट है । यही कृष्णभावनामृत है । हम नहीं सोचते हैं कि कोवल मेरा भाई अच्छा है, मैं अच्छा हूँ । और बाकी सब बुरे हैं । इस तरह की संकीर्ण, अपंग चेतना से हम नफ़रत करते हैं , हम इसे बाहर निकालते हैं । हम सोचते है: पण्डिता: सम-दर्शिन: (भगी ५.१८) । भगवद्गीता में आप पाएँगे ।

विद्या-विनय-सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: सम-दर्शिन:
(भगी ५.१८)

जो पण्डित है, जो ज्ञानी है, वह हर जीव को समदृष्टि से देखता है । इसलिए एक वैष्णव इतना दयालु है । लोकानाम् हित-कारिणौ । वे वास्तव में मनुष्य के लिए लाभप्रद कार्य कर सकते हैं । वे देख रहे हैं, वास्तव में महसूस करना कि सभी जीव, वे भगवान के अभिन्न अंग हैं । किसी न किसी प्रकार से, वे इस भौतिक संसार के संपर्क में अा गए हैं, और, अलग कर्म के अनुसार, वे शरीर के विभिन्न प्रकार ग्रहण करते हैं । तो पण्डित, जो ज्ञानी हैं, उन में कोई भेदभाव नहीं है कि: "यह जानवर है, इन्हें क़साईखाना भेजा जाना चाहिए और यह मनुष्य है, वह इसे खाएगा ।" नहीं । वास्तव में कृष्णभावनामृत व्यक्ति, वह हर किसी के प्रति उदार है । क्यों जानवरों की बलि दी जानी चाहिए । इसलिए हमारा सिद्धांत है मांस न खाना । मांस न खाना । आप नहीं कर सकते । तो वे हमारी बात नहीं सुनेंगे । "ओह, यह क्या बकवास है ? यह हमारा भोजन है । मैं क्यों नहीं खा सकता ?" क्योंकि एधमान-मद: (श्रीमद् भागवतम् १.८.२६) । वह नशे में धुत्त बदमाश है । वह वास्तविक तथ्य नहीं सुनेगा ।