HI/Prabhupada 0178 - कृष्ण द्वारा दिए गए आदेश धर्म हैं: Difference between revisions
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धर्म का अर्थ है जो | धर्म का अर्थ है जो पुर्ण पुरुषोत्तम भगवान द्वारा दिया जाता है । यही धर्म है । आप धर्म का निर्माण नहीं कर सकते । जैसे आजकल इतने सारे धर्मों का निर्माण किया गया है । वे धर्म नहीं हैं । धर्म का अर्थ है जो आदेश भगवान द्वारा दिए जाते हैं । वह धर्म है । जैसे कृष्ण ने कहा, सर्व-धर्मान् परित्यज्य माम एकम शरणम् व्रज ([[HI/BG 18.66|भ.गी. १८.६६]]) । हमने इतने सारे धर्मों का निर्माण किया है: हिंदू धर्म, मुस्लिम धर्म, ईसाई धर्म, पारसी धर्म, बुद्ध धर्म, यह धर्म, वह धर्म । वे धर्म नहीं हैं । वे मानसिक मनगढ़ंत कार्य हैं, मानसिक मनगढ़ंत कार्य । अन्यथा, विरोधाभास होगा । उदाहरण के लिए, हिंदू गाय की हत्या को अधर्म मानते हैं और मुसलमान गाय की हत्या को अपना धर्म । तो सही क्या है ? गाय की हत्या अधर्म है या धर्म ? | ||
इसलिए यह मानसिक मनगढ़ंत | इसलिए यह मानसिक मनगढ़ंत कार्य हैं । चैतन्य-चरितामृत कहता है, एई भल एई मंद सब मनोधर्म, "मनगढ़ंत ।" असली धर्म वो है जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का आदेश है । यही धर्म है । इसलिए कृष्ण कहते हैं: सर्व-धर्मान् परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज ([[HI/BG 18.66|भ.गी. १८.६६]]) अपने सभी निर्मित धर्मों का परित्याग करो । यहाँ असली धर्म है ।" शरणम व्रज । "केवल मेरी शरण में आओ और यही वास्तविक धर्म है ।" धर्मं तु साक्षाद् भगवत-प्रणितम् ([[Vanisource:SB 6.3.19|श्रीमद् भागवतम् ६.३.१९ ]]) । जैसे कानून । कानून निर्मित किए जा सकते हैं या सरकार द्वारा दिए जा सकते हैं । आप अपने घर में कोई भी कानून नहीं बना सकते । वह कानून नहीं है । कानून का अर्थ है सरकार द्वारा दिए गए आदेश । सर्वोच्च सरकार है पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान । अहम सर्वस्य प्रभवो ([[HI/BG 10.8|भ.गी. १०.८]]) मत्त: परतरं नान्यत् ([[HI/BG 7.7|भ.गी. ७.७]]) | कृष्ण से सर्वोच्च कोई नहीं है । इसलिए कृष्ण द्वारा दिए गए आदेश धर्म हैं । हमार यह कृष्णभावनामृत आंदोलन वह धर्म है । कृष्ण कहते हैं: सर्व-धर्मान् परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज ([[HI/BG 18.66|भ.गी. १८.६६]]) "आप सभी अन्य तथाकथित धर्म, यह धर्म, वह धर्म, इतने सारे धर्म छोड़ दो । बस मुझे आत्मसमर्पण करो ।" | ||
तो हम | तो हम उसी सिद्धांत का प्रचार कर रहे हैं और इसकी पुष्टि की गई है चैतन्य महाप्रभु द्वारा, श्री चैतन्य महा..... अामार अाज्ञाय गुरु हय तार एई देश, यारे देख तारे कह कृष्ण उपदेश ([[Vanisource:CC Madhya 7.128|चैतन्य चरितामृत मध्य १९.५३]]) । यही धर्म है । चैतन्य महाप्रभु ने धर्म की किसी भी नई व्यवस्था का निर्माण नहीं किया । नहीं । चैतन्य महाप्रभु स्वयं श्रीकृष्ण हैं । नमो महा-वदन्याय कृष्ण प्रेम प्रदाय ते, कृष्णाय कृष्ण चैतन्य-नाम्ने ([[Vanisource:CC Madhya 19.53|चैतन्य चरितामृत मध्य १९.५३]]) । तो केवल अंतर है... वे स्वयं श्रीकृष्ण हैं । अंतर केवल इतना है कि कृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के रूप में सीधा आदेश देते हैं कि, "तुम सब बकवास छोड़ो, मेरी शरण में आओ ।" यह कृष्ण हैं । क्योंकि वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, वे सीधा आदेश दे रहे हैं । वही कृष्ण, क्योंकि लोग उन्हें गलत समझने लगे ... यहां तक कि बड़े, बड़े विद्वान, वे कहते हैं, "यह बहुत ज्य़ादा है कि कृष्ण इस तरह आदेश दे रहे हैं ।" लेकिन वे दुष्ट हैं । वे नहीं जानते । वे समझ नहीं सकते हैं कि कृष्ण क्या हैं । | ||
इसलिए क्योंकि लोगों ने उन्हें गलत समझा, कृष्ण भक्त के रूप में आए यह सिखाने के लिए कि कैसे पूरी तरह से कृष्ण को आत्मसमर्पण करें । कृष्ण आए । जैसे कभी-कभी मेरा सेवक मेरी मालिश करता है । मैं उसके सिर की मालिश करके कहता हूँ ," इस तरह से करना है ।" तो मैं उसका सेवक नहीं हूँ, लेकिन मैं उसे सिखा रहा हूँ । इसी तरह, श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं श्रीकृष्ण हैं, लेकिन वे अच्छे से सिखा रहे हैं कि कैसे कृष्ण तक पहुँचा जाए, कृष्ण की सेवा कि जाए । वही सिद्धांत । कृष्ण कहते हैं, "तुम मुझे आत्मसमर्पण करो ।" और चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, "तुम कृष्ण के प्रति समर्पण करो ।" इसलिए सिद्धांत में कोई बदलाव नहीं है । | |||
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Latest revision as of 17:39, 1 October 2020
Lecture on SB 1.10.1 -- Mayapura, June 16, 1973
धर्म का अर्थ है जो पुर्ण पुरुषोत्तम भगवान द्वारा दिया जाता है । यही धर्म है । आप धर्म का निर्माण नहीं कर सकते । जैसे आजकल इतने सारे धर्मों का निर्माण किया गया है । वे धर्म नहीं हैं । धर्म का अर्थ है जो आदेश भगवान द्वारा दिए जाते हैं । वह धर्म है । जैसे कृष्ण ने कहा, सर्व-धर्मान् परित्यज्य माम एकम शरणम् व्रज (भ.गी. १८.६६) । हमने इतने सारे धर्मों का निर्माण किया है: हिंदू धर्म, मुस्लिम धर्म, ईसाई धर्म, पारसी धर्म, बुद्ध धर्म, यह धर्म, वह धर्म । वे धर्म नहीं हैं । वे मानसिक मनगढ़ंत कार्य हैं, मानसिक मनगढ़ंत कार्य । अन्यथा, विरोधाभास होगा । उदाहरण के लिए, हिंदू गाय की हत्या को अधर्म मानते हैं और मुसलमान गाय की हत्या को अपना धर्म । तो सही क्या है ? गाय की हत्या अधर्म है या धर्म ?
इसलिए यह मानसिक मनगढ़ंत कार्य हैं । चैतन्य-चरितामृत कहता है, एई भल एई मंद सब मनोधर्म, "मनगढ़ंत ।" असली धर्म वो है जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का आदेश है । यही धर्म है । इसलिए कृष्ण कहते हैं: सर्व-धर्मान् परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज (भ.गी. १८.६६) अपने सभी निर्मित धर्मों का परित्याग करो । यहाँ असली धर्म है ।" शरणम व्रज । "केवल मेरी शरण में आओ और यही वास्तविक धर्म है ।" धर्मं तु साक्षाद् भगवत-प्रणितम् (श्रीमद् भागवतम् ६.३.१९ ) । जैसे कानून । कानून निर्मित किए जा सकते हैं या सरकार द्वारा दिए जा सकते हैं । आप अपने घर में कोई भी कानून नहीं बना सकते । वह कानून नहीं है । कानून का अर्थ है सरकार द्वारा दिए गए आदेश । सर्वोच्च सरकार है पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान । अहम सर्वस्य प्रभवो (भ.गी. १०.८) मत्त: परतरं नान्यत् (भ.गी. ७.७) | कृष्ण से सर्वोच्च कोई नहीं है । इसलिए कृष्ण द्वारा दिए गए आदेश धर्म हैं । हमार यह कृष्णभावनामृत आंदोलन वह धर्म है । कृष्ण कहते हैं: सर्व-धर्मान् परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज (भ.गी. १८.६६) "आप सभी अन्य तथाकथित धर्म, यह धर्म, वह धर्म, इतने सारे धर्म छोड़ दो । बस मुझे आत्मसमर्पण करो ।"
तो हम उसी सिद्धांत का प्रचार कर रहे हैं और इसकी पुष्टि की गई है चैतन्य महाप्रभु द्वारा, श्री चैतन्य महा..... अामार अाज्ञाय गुरु हय तार एई देश, यारे देख तारे कह कृष्ण उपदेश (चैतन्य चरितामृत मध्य १९.५३) । यही धर्म है । चैतन्य महाप्रभु ने धर्म की किसी भी नई व्यवस्था का निर्माण नहीं किया । नहीं । चैतन्य महाप्रभु स्वयं श्रीकृष्ण हैं । नमो महा-वदन्याय कृष्ण प्रेम प्रदाय ते, कृष्णाय कृष्ण चैतन्य-नाम्ने (चैतन्य चरितामृत मध्य १९.५३) । तो केवल अंतर है... वे स्वयं श्रीकृष्ण हैं । अंतर केवल इतना है कि कृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के रूप में सीधा आदेश देते हैं कि, "तुम सब बकवास छोड़ो, मेरी शरण में आओ ।" यह कृष्ण हैं । क्योंकि वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, वे सीधा आदेश दे रहे हैं । वही कृष्ण, क्योंकि लोग उन्हें गलत समझने लगे ... यहां तक कि बड़े, बड़े विद्वान, वे कहते हैं, "यह बहुत ज्य़ादा है कि कृष्ण इस तरह आदेश दे रहे हैं ।" लेकिन वे दुष्ट हैं । वे नहीं जानते । वे समझ नहीं सकते हैं कि कृष्ण क्या हैं ।
इसलिए क्योंकि लोगों ने उन्हें गलत समझा, कृष्ण भक्त के रूप में आए यह सिखाने के लिए कि कैसे पूरी तरह से कृष्ण को आत्मसमर्पण करें । कृष्ण आए । जैसे कभी-कभी मेरा सेवक मेरी मालिश करता है । मैं उसके सिर की मालिश करके कहता हूँ ," इस तरह से करना है ।" तो मैं उसका सेवक नहीं हूँ, लेकिन मैं उसे सिखा रहा हूँ । इसी तरह, श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं श्रीकृष्ण हैं, लेकिन वे अच्छे से सिखा रहे हैं कि कैसे कृष्ण तक पहुँचा जाए, कृष्ण की सेवा कि जाए । वही सिद्धांत । कृष्ण कहते हैं, "तुम मुझे आत्मसमर्पण करो ।" और चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, "तुम कृष्ण के प्रति समर्पण करो ।" इसलिए सिद्धांत में कोई बदलाव नहीं है ।