HI/Prabhupada 0216 - कृष्ण प्रथम श्रेणी के हैं, उनके भक्त भी प्रथम श्रेणी के हैं: Difference between revisions

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यह वैशनव का रवैया है । पर-दुक्ख-दुक्खी वैशनव है पर-दुक्ख-दुक्खी । यही वैशनव की योग्यता है । वह अपने व्यक्तिगत तकलीफों या असुविधा की परवाह नहीं करता । लेकिन वह, एक वैशनव पीड़ित होता है, व्यथित, जब अन्य कोई पीडित होता है । यही वैशनव है । प्रहलाद महाराज ने कहा
यह वैष्णव का रवैया है । पर-दुःख-दुखी वैष्णव है पर-दुःख-दुखी । यही वैष्णव की योग्यता है । वह अपने व्यक्तिगत तकलीफों या असुविधा की परवाह नहीं करता । लेकिन वह, एक वैष्णव, पीड़ित होता है, व्यथित, जब अन्य कोई पीडित होता है । यही वैष्णव है । प्रहलाद महाराज ने कहा  


:नैवोद्विजे पर दुरत्यय-वैतरन्यास
:नैवोद्विजे पर दुरत्यय-वैतरण्यास
:त्वद-वीर्य-गायन-महामृत-मग्न-चित्त:
:त्वद-वीर्य-गायन-महामृत-मग्न-चित्त:  
:शोचे ततो विमुख-चेतसा इन्द्रियार्थ-
:शोचे ततो विमुख-चेतसा इन्द्रियार्थ-
:माया-सुखाय भरम उद्वहतो विमूढान  
:माया-सुखाय भरम उद्वहतो विमूढान  
:([[Vanisource:SB 7.9.43|श्रीभ ७।९।४३]])
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प्रहलाद महाराज इतने परेशान किया गए थे अपने पिता द्वारा , और उनके पिता को मार डाला गया था । और फिर भी, जब उन्हें प्रभु न्रसिंह-देव द्वारा आशीर्वाद मागने को कहा गया, उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया । उन्होंने कहा, स वै वणिक मेरे प्रभु, हम रजो-गुण, तमो-गुण के परिवार में पैदा हुए हैं । रजो-गुण, तमो-गुण , असुर, वे दो निमन् गुण, रजो-गुण और तमो-गुण से प्रभावित होते हैं । और जो देवता हैं, वे सत्व-गुण से प्रभावित होते हैं । तीन गुण हैं भौतिक संसार में, गुण । सत्व-गुण ... त्रि-गुणमयी दैवी हि एश गुणमयी ( भ गी ७।१४) गुणमयी, त्रैगुणमयी । इस भौतिक दुनिया में, सत्व-गुण, रजो-गुण, तोमो-गुण । तो जो लोग सत्व-गुण से प्रभावित हैं , वे प्रथम श्रेणी के हैं । प्रथम श्रेणी का मतलब है इस भौतिक संसार में प्रथम श्रेणी । आध्यात्मिक दुनिया में नहीं । आध्यात्मिक दुनिया अलग है । वह निर्गुण है, कोई भौतिक गुण नहीं । कोई प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी, तृतीय श्रेणी नहीं है वहाँ । हर कोई प्रथम श्रेणी का है । यही पूर्णता है । कृष्ण प्रथम श्रेणी के हैं, उनके भक्त भी प्रथम श्रेणी के हैं । पेड़ प्रथम श्रेणी के हैं, पक्षि प्रथम श्रेणी के हैं, गाऍ प्रथम श्रेणी की हैं, बछड़े प्रथम श्रेणी के हैं । इसलिए उसे निरपेक्ष कहा जाता है । सापेक्ष की कोई अवधारणा नहीं है, द्वितीय श्रेणी, तृतीय श्रेणी, चौथी श्रेणी । नहीं । सब कुछ प्रथम श्रेणी का है । अान्नद-चिन्मय-रस-प्रतिभाविताभि : ( ब्र स ५।३७) हर चीज़ की रचना है अान्नद-चिन्मय-रस । कोई वर्गीकरण नहीं है । या तो हम दास्य-रस में स्थित हैं, हम साख्य-रस में स्थित हैं, या वात्सल्य-रस में या माधुर्य-रस में, वे सब एक हैं । कोई भेद नहीं है । लेकिन विविधता है । तुम्हे यह रस पसंद है, मुझे यह रस, इसकी अनुमति है । तो यहाँ इस भौतिक संसार में, वे तीन रसों से प्रभावित हैं, और प्रहलाद महाराज, हिरण्यकश्यपु के पुत्र होने के नाते वे मानते थे कि, "मैं रजो-गुण और तमो-गुण से प्रभावित हूँ । " वे वैशनव हैं, वे सब गुणों से ऊपर हैं, लेकिन एक वैशनव अपने गुणों पर गर्व नहीं करते है । दरअसल, वह उस तरह महसूस नहीं करता है, वह बहुत उन्नत है, वह बहुत ही प्रबुद्ध है । वह हमेशा सोचता है "मैं सबसे निम्न हूँ ।"
प्रहलाद महाराज इतने परेशान किये गए थे अपने पिता द्वारा, और उनके पिता को मार डाला गया था । और फिर भी, जब उन्हें भगवान नरसिंह-देव द्वारा आशीर्वाद मागने को कहा गया, उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया । उन्होंने कहा, स वै वणिक | मेरे प्रभु, हम रजो-गुण, तमो-गुण के परिवार में पैदा हुए हैं । रजो-गुण, तमो-गुण, असुर, वे दो निम्न गुण, रजो-गुण और तमो-गुण से प्रभावित होते हैं । और जो देवता हैं, वे सत्व-गुण से प्रभावित होते हैं । तीन गुण हैं भौतिक संसार में । सत्व-गुण ... त्रि-गुणमयी | दैवी हि एषा गुणमयी ([[HI/BG 7.14|.गी. ७.१४]]) | गुणमयी, त्रैगुणमयी । इस भौतिक दुनिया में, सत्व-गुण, रजो-गुण, तमो-गुण । तो जो लोग सत्व-गुण से प्रभावित हैं, वे प्रथम श्रेणी के हैं । प्रथम श्रेणी का मतलब है इस भौतिक संसार में प्रथम श्रेणी । आध्यात्मिक दुनिया में नहीं ।  


:तृनाद अपि सुनिचेन
आध्यात्मिक दुनिया अलग है । वह निर्गुण है, कोई भौतिक गुण नहीं । कोई प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी, तृतीय श्रेणी नहीं है वहाँ । हर कोई प्रथम श्रेणी का है । यही पूर्णता है । कृष्ण प्रथम श्रेणी के हैं, उनके भक्त भी प्रथम श्रेणी के हैं । पेड़ प्रथम श्रेणी के हैं, पक्षी प्रथम श्रेणी के हैं, गाऍ प्रथम श्रेणी की हैं, बछड़े प्रथम श्रेणी के हैं । इसलिए उसे निरपेक्ष कहा जाता है । सापेक्ष की कोई अवधारणा नहीं है,  द्वितीय श्रेणी, तृतीय श्रेणी, चौथी श्रेणी । नहीं । सब कुछ प्रथम श्रेणी का है । आनंद-चिन्मय-रस-प्रतिभाविताभि: (ब्रह्मसंहिता ५.३७) | हर चीज़ की रचना है आनंद-चिन्मय-रस । कोई वर्गीकरण नहीं है । या तो हम दास्य-रस में स्थित हैं, हम साख्य-रस में स्थित हैं, या वात्सल्य-रस में या माधुर्य-रस में, वे सब एक हैं । कोई भेद नहीं है । लेकिन विविधता है ।
:तरोर अपि सहिश्नुना
 
:अमानिना मानदेन
तुम्हे यह रस पसंद है, मुझे यह रस, इसकी अनुमति है । तो यहाँ इस भौतिक संसार में, वे तीन रसों से प्रभावित हैं, और प्रहलाद महाराज, हिरण्यकश्यपु के पुत्र होने के नाते वे मानते थे कि, "मैं रजो-गुण और तमो-गुण से प्रभावित हूँ । " वे वैष्णव हैं, वे सब गुणों से ऊपर हैं, लेकिन एक वैष्णव अपने गुणों पर गर्व नहीं  करते है । दरअसल, वह उस तरह महसूस नहीं करता है, वह बहुत उन्नत है,  वह बहुत ही प्रबुद्ध है । वह हमेशा सोचता है "मैं सबसे निम्न हूँ ।"
 
:तृणाद अपि सुनिचेन  
:तरोर अपि सहिष्णुना
:अमानिना मानदेन  
:कीर्तनीय सदा हरि:  
:कीर्तनीय सदा हरि:  
:([[Vanisource:CC Adi 17.31|चैच अदि १७।३१]])
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यह वैशनव है ।
यह वैष्णव है ।  
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Latest revision as of 17:39, 1 October 2020



Lecture on SB 1.7.47-48 -- Vrndavana, October 6, 1976

यह वैष्णव का रवैया है । पर-दुःख-दुखी । वैष्णव है पर-दुःख-दुखी । यही वैष्णव की योग्यता है । वह अपने व्यक्तिगत तकलीफों या असुविधा की परवाह नहीं करता । लेकिन वह, एक वैष्णव, पीड़ित होता है, व्यथित, जब अन्य कोई पीडित होता है । यही वैष्णव है । प्रहलाद महाराज ने कहा

नैवोद्विजे पर दुरत्यय-वैतरण्यास
त्वद-वीर्य-गायन-महामृत-मग्न-चित्त:
शोचे ततो विमुख-चेतसा इन्द्रियार्थ-
माया-सुखाय भरम उद्वहतो विमूढान
(श्रीमद भागवतम ७.९.४३)
प्रहलाद महाराज इतने परेशान किये गए थे अपने पिता द्वारा, और उनके पिता को मार डाला गया था । और फिर भी, जब उन्हें भगवान नरसिंह-देव द्वारा आशीर्वाद मागने को कहा गया, उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया । उन्होंने कहा, स वै वणिक | मेरे प्रभु, हम रजो-गुण, तमो-गुण के परिवार में पैदा हुए हैं । रजो-गुण, तमो-गुण, असुर, वे दो निम्न गुण, रजो-गुण और तमो-गुण से प्रभावित होते हैं । और जो देवता हैं, वे सत्व-गुण से प्रभावित होते हैं । तीन गुण हैं भौतिक संसार में । सत्व-गुण ... त्रि-गुणमयी | दैवी हि एषा गुणमयी (भ.गी. ७.१४) | गुणमयी, त्रैगुणमयी । इस भौतिक दुनिया में, सत्व-गुण, रजो-गुण, तमो-गुण । तो जो लोग सत्व-गुण से प्रभावित हैं, वे प्रथम श्रेणी के हैं । प्रथम श्रेणी का मतलब है इस भौतिक संसार में प्रथम श्रेणी । आध्यात्मिक दुनिया में नहीं । 

आध्यात्मिक दुनिया अलग है । वह निर्गुण है, कोई भौतिक गुण नहीं । कोई प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी, तृतीय श्रेणी नहीं है वहाँ । हर कोई प्रथम श्रेणी का है । यही पूर्णता है । कृष्ण प्रथम श्रेणी के हैं, उनके भक्त भी प्रथम श्रेणी के हैं । पेड़ प्रथम श्रेणी के हैं, पक्षी प्रथम श्रेणी के हैं, गाऍ प्रथम श्रेणी की हैं, बछड़े प्रथम श्रेणी के हैं । इसलिए उसे निरपेक्ष कहा जाता है । सापेक्ष की कोई अवधारणा नहीं है, द्वितीय श्रेणी, तृतीय श्रेणी, चौथी श्रेणी । नहीं । सब कुछ प्रथम श्रेणी का है । आनंद-चिन्मय-रस-प्रतिभाविताभि: (ब्रह्मसंहिता ५.३७) | हर चीज़ की रचना है आनंद-चिन्मय-रस । कोई वर्गीकरण नहीं है । या तो हम दास्य-रस में स्थित हैं, हम साख्य-रस में स्थित हैं, या वात्सल्य-रस में या माधुर्य-रस में, वे सब एक हैं । कोई भेद नहीं है । लेकिन विविधता है ।

तुम्हे यह रस पसंद है, मुझे यह रस, इसकी अनुमति है । तो यहाँ इस भौतिक संसार में, वे तीन रसों से प्रभावित हैं, और प्रहलाद महाराज, हिरण्यकश्यपु के पुत्र होने के नाते वे मानते थे कि, "मैं रजो-गुण और तमो-गुण से प्रभावित हूँ । " वे वैष्णव हैं, वे सब गुणों से ऊपर हैं, लेकिन एक वैष्णव अपने गुणों पर गर्व नहीं करते है । दरअसल, वह उस तरह महसूस नहीं करता है, वह बहुत उन्नत है, वह बहुत ही प्रबुद्ध है । वह हमेशा सोचता है "मैं सबसे निम्न हूँ ।"

तृणाद अपि सुनिचेन
तरोर अपि सहिष्णुना
अमानिना मानदेन
कीर्तनीय सदा हरि:
(चैतन्य चरितामृत आदि १७.३१)
यह वैष्णव है ।