HI/Prabhupada 0235 - अयोग्य गुरू का मतलब है जो शिष्य का मार्गदर्शन कैसे करना है यह नहीं जानता है

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Lecture on BG 2.4-5 -- London, August 5, 1973

तो गुरुन् अहत्वा । कृष्ण का भक्त, अगर आवश्यकता हो, अगर वह अयोग्य गुरु है... अयोग्य गुरू का अर्थ है वह जो शिष्य का मार्गदर्शन करना नहीं जानता । गुरु का कर्तव्य है मार्गदर्शन करना । तो इस तरह के गुरु को कम से कम अस्वीकार किया जा सकता है । यही जीव गोस्वामी का... कार्य-कार्यम् अजानत: । जो गुरु जानता ही नहीं कि क्या करना है और क्या नहीं करना है, लेकिन भूल, भूल से मैंने किसी को गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया है, उसे अस्वीकार किया जा सकता है । उसे अस्वीकार करके आप एक वास्तविक प्रमाणिक गुरु को स्वीकार कर सकते हैं । तो गुरु का वध नहीं किया जाता, लेकिन उसे अस्वीकार किया जा सकता है । यही शास्त्र का आदेश है ।

तो भीष्मदेव व द्रोणाचार्य, निश्चित रूप से वे गुरु थे, लेकिन कृष्ण अप्रत्यक्ष रूप से अर्जुन को संकेत दे रहे हैं, कि, "हालांकि वे गुरु की स्थिति में हैं, तुम उन्हें अस्वीकार कर सकते हो ।" कार्य-कार्यम् अजानत: ... "वे वास्तव में नहीं जानते हैं ।" भीष्मदेव, उन्होंने भौतिक रूप से अपनी स्थिति पर विचार किया । वे आरंभ से ही सब कुछ जानते थे, कि पांडव, वे अनाथ थे, अनाथ बच्चे थे, और उन्होंने आरंभ से ही उनका पालन-पोषण किया था । इतना ही नहीं, वे पांडवों के प्रति इतने स्नेहिल थे कि वे सोच रहे थे, जब उन्हें वन भेजा गया था, निर्वासित किया गया था, उस समय भीष्मदेव क्रन्दन कर रहे थे, कि, "ये पाँच बालक, वे इतने शुद्ध हैं, सत्यवादी हैं । और न केवल शुद्ध और सत्यवादी, इतने शक्तिशाली योद्धा हैं, अर्जुन और भीम । और ये द्रौपदी व्यावहारिक रूप से प्रत्यक्ष भाग्य की देवी है । और उनके मित्र हैं, परम भगवान श्रीकृष्ण । और वे कष्ट भोग रहे हैं ?" वे रोए । वे इतने स्नेहिल थे ।

इसलिए अर्जुन विचार कर रहे हैं, "मैं कैसे भीष्म का वध कर सकता हूँ ?" लेकिन कर्तव्य इतना दृढ़ है । कृष्ण सुझाव दे रहे हैं, "हाँ उनका वध किया जाना चाहिए क्योंकि वे विपक्ष में चले गए हैं । वे अपने कर्तव्य को भूल गए हैं । उन्हें तुम्हारे साथ सम्मिलित होना चाहिए था । इसलिए वे गुरु की स्थिति में नहीं रहे । तुम्हे उन्हें मारना होगा । वे गलत तौर पर, दूसरे पक्ष में सम्मिलित हो गए । इसलिए कोई हानि नहीं है, उन्हें मार कर । इसी तरह द्रोणाचार्य । इसी तरह द्रोणाचार्य । मैं जानता हूँ कि वे महान व्यक्ति हैं, उनके हृदय में बहुत स्नेह है । लेकिन केवल व्यावहारिक विचार कर वे वहाँ चले गए ।" वह व्यावहारिक विचार क्या है?

भीष्म नें सोचा कि "दुर्योधन के धन से मेरा भरण-पोषण होता है । दुर्योधन मुझे पालता है । अब वह संकट में है । अगर मैं दूसरे पक्ष में चला गया, तो मैं कृतघ्न कहलाऊँगा । उसने मेरा इतने लंबे समय तक पालन-पोषण किया है । अौर यदि मैं, संकट के समय में, जब युद्ध हो रहा है, यदि मैं दूसरे पक्ष में चला गया तो यह..." उन्होंने इस तरह विचार किया । उन्होंने यह नहीं सोचा कि, "दुर्योधन मेरा पालन-पोषण करता है, लेकिन उसने पांडवों की संपत्ति छीन ली है ।" लेकिन यह उनकी महानता है । उन्हें पता था कि अर्जुन का वध कभी नहीं किया जा सकता क्योंकि कृष्ण वहाँ हैं । "तो व्यवाहारिक दृष्टि से, मुझे दुर्योधन का आभारी होना चाहिए ।" यही स्थिति द्रोणाचार्य की भी थी । उनका भरण-पोषण किया जाता था ।