HI/Prabhupada 0237 - हम कृष्ण के साथ संपर्क में आ जाते हैं उनका नाम जप कर, हरे कृष्ण: Difference between revisions
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प्रद्युम्न: अनुवाद - " हे | प्रद्युम्न: अनुवाद - " हे पृथापुत्र ! इस हीन नपुंसकता को प्राप्त मत होओ । यह तुम्हें शोभा नहीं देती । हृदय की ऐसी क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़े हो जाओ, हे शत्रुओं के दमनकर्ता ।" | ||
प्रभुपाद: तो भगवान, कृष्ण उत्साहित कर रहे | प्रभुपाद: तो भगवान, कृष्ण उत्साहित कर रहे हैं, क्षुद्रं हृदय-दौर्बल्यं। "एक क्षत्रिय का इस तरह बात करना, 'नहीं, नहीं, मैं अपने भाइयों को नहीं मार सकता । मैं अपने शस्त्र त्याग रहा हूँ, यह कायरता है, दुर्बलता । क्यों तुम यह सब बेहूदगी कर रहे हो ? " क्षुद्रं हृदय-दौर्बल्यं । " इस तरह की करुणा, क्षत्रिय के रूप में अपने कर्तव्य को त्याग देना, यह केवल हृदय की दुर्बलता है । इसका कोई उपयोग नहीं है ।" क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते । "विशेष रूप से तुम्हारे लिए । तुम मेरे मित्र हो । लोग क्या कहेंगे ? | ||
तो दिल की इस कमजोरी को त्याग दो अौर उत्तिश्ठ, खड़े हो जाओ, साहसी बनो ।" तो देखिए किस प्रकार कृष्ण अर्जुन को युद्ध करने की प्रेरणा दे रहे हैं । लोग बहुत अधिक अज्ञानता में हैं और वे कभी-कभी आलोचना करते हैं कि "कृष्ण अर्जुन को उत्तेजित कर रहे हैं । वे बहुत भद्र पुरुष हैं, अहिंसक हैं, और कृष्ण उन्हें लड़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं ।" इसे जड़-दर्शन कहा जाता है । जड़-दर्शन । जड़-दर्शन का अर्थ है भौतिक दृष्टि । इसलिए शास्त्र कहते हैं, अत: श्रीकृष्ण नामादि न भवेद् ग्राह्यम इन्द्रियै: ([[Vanisource:CC Madhya 17.136|चैतन्य चरितामृत मध्य १७.१३६]]) । श्रीकृष्ण-नामादि । हम कृष्ण के संपर्क में अा जाते हैं, उनके नामों का जप करके, हरे कृष्ण । यही श्रीकृष्ण के साथ हमारे संबंध की शुरुआत है । नामादि । तो शास्त्र कहते हैं, अत: श्रीकृष्ण-नामादि । अादि का अर्थ है शुरुआत । तो हमारा कृष्ण के साथ कोई संबंध नहीं है । लेकिन अगर हम हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते हैं, तुरंत कृष्ण से संपर्क करने का हमारा प्रथम अवसर आरंभ होता है । | |||
तो यह अभ्यास किया जाना चाहिए । ऐसा नहीं है कि तुरंत ही मैं कृष्ण को समझ जाऊँगा । ऐसा नहीं है ... निश्चित ही, अगर कोई उन्नत है, यह तुरंत संभव है । तो श्रीकृष्ण-नामादि । नाम का अर्थ है नाम । तो कृष्ण केवल नाम ही नहीं है । आदि, यह शुरुआत है, लेकिन रूप, गतिविधियाँ । जैसे श्रवणम् कीर्तनम ([[Vanisource:SB 7.5.23-24|श्रीमद्भागवतम् ७.५.२३]]) । तो श्रवणं कीर्तनं, गुणगान करना या कृष्ण के विषय में वर्णन करना... तो उनका अपना रूप है । तो नाम का अर्थ है नाम, और फिर, रूप का अर्थ है आकार । नाम, रूप... लीला का अर्थ है लीलाएँ, गुण का अर्थ है गुणवत्ता, घेरा, उनके साथी, यह सभी... अत: श्रीकृष्ण नामादि न भवेद् ([[Vanisource:CC Madhya 17.136|चैतन्य चरितामृत मध्य १७.१३६]]) । न भवेद् ग्राह्यम इन्द्रियै: । साधारण इंद्रियों के द्वारा हम नहीं समझ सकते हैं... श्रीकृष्ण के नाम को... हम श्रवण कर रहे हैं, अपने कानों के माध्यम से, श्रीकृष्ण का नाम, लेकिन अगर हम कान के शुद्धिकरण के बिना ... निश्चित हि, श्रवण करने से, वह शुद्ध हो जाएँगे । हमें मदद करनी होगी । | |||
मदद का अर्थ है अपराधों से बचाव, दस प्रकार के अपराध । तो इस तरह से हम शुद्धिकरण की प्रक्रिया में मदद कर सकते हैं । जैसे की अगर मैं आग लगना चाहता हूँ, तो मैं अाग लगाने की प्रक्रिया में मदद करता हूँ लकड़ी सूखा कर । यह बहुत जल्द ही आग पकडे़गा । इसी तरह, बस जप करके, यह हमारी मदद करेगा, पर समय लगेगा । लेकिन अगर हम अपराधों से बचते हैं, तो यह बहुत जल्द शुद्ध हो जाएगा । परिणाम आएगा । | |||
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Latest revision as of 17:39, 1 October 2020
Lecture on BG 2.3 -- London, August 4, 1973
प्रद्युम्न: अनुवाद - " हे पृथापुत्र ! इस हीन नपुंसकता को प्राप्त मत होओ । यह तुम्हें शोभा नहीं देती । हृदय की ऐसी क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़े हो जाओ, हे शत्रुओं के दमनकर्ता ।"
प्रभुपाद: तो भगवान, कृष्ण उत्साहित कर रहे हैं, क्षुद्रं हृदय-दौर्बल्यं। "एक क्षत्रिय का इस तरह बात करना, 'नहीं, नहीं, मैं अपने भाइयों को नहीं मार सकता । मैं अपने शस्त्र त्याग रहा हूँ, यह कायरता है, दुर्बलता । क्यों तुम यह सब बेहूदगी कर रहे हो ? " क्षुद्रं हृदय-दौर्बल्यं । " इस तरह की करुणा, क्षत्रिय के रूप में अपने कर्तव्य को त्याग देना, यह केवल हृदय की दुर्बलता है । इसका कोई उपयोग नहीं है ।" क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते । "विशेष रूप से तुम्हारे लिए । तुम मेरे मित्र हो । लोग क्या कहेंगे ?
तो दिल की इस कमजोरी को त्याग दो अौर उत्तिश्ठ, खड़े हो जाओ, साहसी बनो ।" तो देखिए किस प्रकार कृष्ण अर्जुन को युद्ध करने की प्रेरणा दे रहे हैं । लोग बहुत अधिक अज्ञानता में हैं और वे कभी-कभी आलोचना करते हैं कि "कृष्ण अर्जुन को उत्तेजित कर रहे हैं । वे बहुत भद्र पुरुष हैं, अहिंसक हैं, और कृष्ण उन्हें लड़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं ।" इसे जड़-दर्शन कहा जाता है । जड़-दर्शन । जड़-दर्शन का अर्थ है भौतिक दृष्टि । इसलिए शास्त्र कहते हैं, अत: श्रीकृष्ण नामादि न भवेद् ग्राह्यम इन्द्रियै: (चैतन्य चरितामृत मध्य १७.१३६) । श्रीकृष्ण-नामादि । हम कृष्ण के संपर्क में अा जाते हैं, उनके नामों का जप करके, हरे कृष्ण । यही श्रीकृष्ण के साथ हमारे संबंध की शुरुआत है । नामादि । तो शास्त्र कहते हैं, अत: श्रीकृष्ण-नामादि । अादि का अर्थ है शुरुआत । तो हमारा कृष्ण के साथ कोई संबंध नहीं है । लेकिन अगर हम हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते हैं, तुरंत कृष्ण से संपर्क करने का हमारा प्रथम अवसर आरंभ होता है ।
तो यह अभ्यास किया जाना चाहिए । ऐसा नहीं है कि तुरंत ही मैं कृष्ण को समझ जाऊँगा । ऐसा नहीं है ... निश्चित ही, अगर कोई उन्नत है, यह तुरंत संभव है । तो श्रीकृष्ण-नामादि । नाम का अर्थ है नाम । तो कृष्ण केवल नाम ही नहीं है । आदि, यह शुरुआत है, लेकिन रूप, गतिविधियाँ । जैसे श्रवणम् कीर्तनम (श्रीमद्भागवतम् ७.५.२३) । तो श्रवणं कीर्तनं, गुणगान करना या कृष्ण के विषय में वर्णन करना... तो उनका अपना रूप है । तो नाम का अर्थ है नाम, और फिर, रूप का अर्थ है आकार । नाम, रूप... लीला का अर्थ है लीलाएँ, गुण का अर्थ है गुणवत्ता, घेरा, उनके साथी, यह सभी... अत: श्रीकृष्ण नामादि न भवेद् (चैतन्य चरितामृत मध्य १७.१३६) । न भवेद् ग्राह्यम इन्द्रियै: । साधारण इंद्रियों के द्वारा हम नहीं समझ सकते हैं... श्रीकृष्ण के नाम को... हम श्रवण कर रहे हैं, अपने कानों के माध्यम से, श्रीकृष्ण का नाम, लेकिन अगर हम कान के शुद्धिकरण के बिना ... निश्चित हि, श्रवण करने से, वह शुद्ध हो जाएँगे । हमें मदद करनी होगी ।
मदद का अर्थ है अपराधों से बचाव, दस प्रकार के अपराध । तो इस तरह से हम शुद्धिकरण की प्रक्रिया में मदद कर सकते हैं । जैसे की अगर मैं आग लगना चाहता हूँ, तो मैं अाग लगाने की प्रक्रिया में मदद करता हूँ लकड़ी सूखा कर । यह बहुत जल्द ही आग पकडे़गा । इसी तरह, बस जप करके, यह हमारी मदद करेगा, पर समय लगेगा । लेकिन अगर हम अपराधों से बचते हैं, तो यह बहुत जल्द शुद्ध हो जाएगा । परिणाम आएगा ।