HI/Prabhupada 0242 - सभ्यता की मूल प्रक्रिया को हमारा वापस जाना बहुत मुश्किल है: Difference between revisions

(Created page with "<!-- BEGIN CATEGORY LIST --> Category:1080 Hindi Pages with Videos Category:Prabhupada 0242 - in all Languages Category:HI-Quotes - 1973 Category:HI-Quotes - Lec...")
 
(Vanibot #0019: LinkReviser - Revise links, localize and redirect them to the de facto address)
 
Line 6: Line 6:
[[Category:HI-Quotes - in United Kingdom]]
[[Category:HI-Quotes - in United Kingdom]]
<!-- END CATEGORY LIST -->
<!-- END CATEGORY LIST -->
<!-- BEGIN NAVIGATION BAR -- DO NOT EDIT OR REMOVE -->
{{1080 videos navigation - All Languages|Hindi|HI/Prabhupada 0241 - इन्द्रियॉ सर्पों की तरह हैं|0241|HI/Prabhupada 0243 - एक शिष्य गुरु के पास ज्ञान के लिए आता है|0243}}
<!-- END NAVIGATION BAR -->
<!-- BEGIN ORIGINAL VANIQUOTES PAGE LINK-->
<!-- BEGIN ORIGINAL VANIQUOTES PAGE LINK-->
<div class="center">
<div class="center">
Line 14: Line 17:


<!-- BEGIN VIDEO LINK -->
<!-- BEGIN VIDEO LINK -->
{{youtube_right|dDxl5wpPItA|सभ्यता की मूल प्रक्रिया को हमारा वापस जाना बहुत मुश्किल है - Prabhupāda 0242}}
{{youtube_right|SjMsaLHFv-U|सभ्यता की मूल प्रक्रिया को हमारा वापस जाना बहुत मुश्किल है - Prabhupāda 0242}}
<!-- END VIDEO LINK -->
<!-- END VIDEO LINK -->


<!-- BEGIN AUDIO LINK -->
<!-- BEGIN AUDIO LINK -->
<mp3player>http://vaniquotes.org/w/images/730804BG.LON_clip6.mp3</mp3player>
<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/clip/730804BG.LON_clip6.mp3</mp3player>
<!-- END AUDIO LINK -->
<!-- END AUDIO LINK -->


Line 26: Line 29:


<!-- BEGIN TRANSLATED TEXT -->
<!-- BEGIN TRANSLATED TEXT -->
प्रभुपाद: बस कल ही हम पढ़ रहे थे मनु, वैवस्वत मनु, करदम मुनि के पास आए थे, वह स्वागत कर रहे हैं, "सर, मैं जानत हूँ कि अापके दौरे का मतलब है कि अाप सिर्फ ...क्या कहते हैं, जांच करते हुए?
प्रभुपाद: बस कल ही हम पढ़ रहे थे मनु, वैवस्वत मनु, कर्दम मुनि के पास आए थे, वह स्वागत कर रहे हैं, "प्रभु, मैं जानत हूँ कि अापके दौरे का मतलब है कि अाप सिर्फ ...क्या कहते हैं, जांच करना?  


भक्त: निरीक्षण।
भक्त: निरीक्षण।


प्रभुपाद: निरीक्षण, हाँ । निरीक्षण । "अापका दौरे का मतलब है निरीक्षण कि वर्णाश्रम ... क्या ब्राह्मण वास्तव में ब्राह्मण का काम कर रहा है या नहीं, क्या क्षत्रिय वास्तव में क्षत्रिय का काम कर रहे हैं ।" यही राजा का दौरा है । राजा का दौरा राज्य की कीमत पर एक उपभोग का दौरा नहीं है कि कहीं जाना है और वापस आना है । नहीं । वे थे ... कभी कभी राजा भेस में यह देखते थे कि यह वर्णाश्रम-धर्म क़ायम है , ठीक से अनुगमन किया जा रहा है, क्या कोई समय बर्बाद कर रहा है बस हिप्पी की तरह । नहीं, यह नहीं किया जा सकता है । यह नहीं किया जा सकता । अब अपनी सरकार में कुछ निरीक्षण है कि कोई भी कार्यरत है , लेकिन ... बेरोजगार । लेकिन इतनी सारी चीजें का व्यावहारिक रूप से निरीक्षण नहीं होता है । लेकिन यह सब कुछ देखना सरकार का कर्तव्य है । वर्णाश्रमाचरवता, हर कोई ब्राह्मण के रूप में अभ्यास कर रहा है . बस झूठ द्वारा ब्राह्मण होना झूठ से क्षत्रिय बनना, - नहीं । तुम्हें करना होगा । तो यह राजा का कर्तव्य था, सरकार का कर्तव्य । अब सब कुछ उल्टा - पुल्टा हो गया है । कुछ भी व्यावहारिक मूल्य का नहीं रहा । इसलिए चैतन्य महाप्रभु नें कहा, कलौ ...
प्रभुपाद: निरीक्षण, हाँ । निरीक्षण । "अापका दौरे का मतलब है निरीक्षण कि वर्णाश्रम ... क्या ब्राह्मण वास्तव में ब्राह्मण का काम कर रहा है या नहीं, क्या क्षत्रिय वास्तव में क्षत्रिय का काम कर रहे हैं ।" यही राजा का दौरा है । राजा का दौरा राज्य की कीमत पर एक उपभोग का दौरा नहीं है कि कहीं जाना है और वापस आना है । नहीं । वे थे ... कभी कभी राजा भेस बदलकर यह देखते थे कि यह वर्णाश्रम-धर्म क़ायम है , ठीक से अनुगमन किया जा रहा है, क्या कोई समय बर्बाद कर रहा है बस हिप्पी की तरह । नहीं, यह नहीं किया जा सकता है । यह नहीं किया जा सकता । अब अपनी सरकार में कुछ निरीक्षण है कि कोई भी कार्यरत है , लेकिन ... बेरोजगार ।  


:हरेर नाम हरेर नाम
लेकिन इतनी सारी चीजें का व्यावहारिक रूप से निरीक्षण नहीं होता है । लेकिन यह सब कुछ देखना सरकार का कर्तव्य है । वर्णाश्रमाचरवता, हर कोई ब्राह्मण के रूप में अभ्यास कर रहा है . बस झूठ द्वारा ब्राह्मण होना, झूठ से क्षत्रिय बनना - नहीं ।  तुम्हें करना होगा । तो यह राजा का कर्तव्य था, सरकार का कर्तव्य । अब सब कुछ उल्टा - पुल्टा हो गया है ।  कुछ भी व्यावहारिक मूल्य का नहीं रहा । इसलिए चैतन्य महाप्रभु नें कहा, कलौ ...  
:हरेर नामैव केवलम
:कलौ नास्ति एव नास्ति एव
:नास्ति एव गतिर अन्यथा
:([[Vanisource:CC Adi 17.21|चै च अादि १७।२१]])


सभ्यता की मूल प्रक्रिया को हमारा वापस जाना बहुत मुश्किल है । तो एक वैश्नव के लिए, जैसे मैं समझा रहा था, त्रि-दश-अाकाश-पुष्पायते दुर्दान्तेन्द्रिय-काल-सर्प-पटली । तो इन्द्रियों को नियंत्रित करना, यह दुर्दान्त है । दुर्दान्त का मतलब है दुर्जेय । इंद्रियों पर नियंत्रण बहुत, बहुत मुश्किल है । इसलिए योग प्रक्रिया, रहस्यवादी योग प्रक्रिया - कैसे इन्द्रियों को नियंत्रित करने का अभ्यास । लेकिन एक भक्त के लिए ... वे ... बस जीभ की तरह, अगर यह केवल हरे कृष्ण मंत्र जप और केवल कृष्ण प्रसाद खाने के व्यापार में लगा हो तो, यह पूर्ण है, पूर्ण योगी । बिल्कुल सही । तो एक भक्त के लिए, इंद्रियों से कोई परेशानी नहीं होती है क्योंकि एक भक्त जानता है कि कैसे प्रत्येक इन्द्रियों को भगवान की सेवा में संलग्न करना । ऋषिकेण ऋषिकेश सेवनम ([[Vanisource:CC Madhya 19.170|चै च मध्य १९।१७०]]) । यही भक्ति है । ऋषिक का मतलब है इन्द्रियॉ । जब इन्द्रियॉ केवल कृष्ण, ऋषिकेश की सेवा में लगे हुए हैं, तो योग के अभ्यास की कोई जरूरत नहीं है । स्वचालित रूप से वे कृष्ण की सेवा में संलग्न हैं । उनके पास अन्य कोई काम नहीं है । यही सबसे उच्च है । इसलिए कृष्ण कहते हैं,
:हरेर नाम हरेर नाम
:हरेर नामैव केवलम
:कलौ नास्ति एव नास्ति एव
:नास्ति एव गतिर अन्यथा
:([[Vanisource:CC Adi 17.21|चैतन्य चरितामृत अादि १७.२१]])


:योगीाम अपि सर्वेशाम
सभ्यता की मूल प्रक्रिया को हमारा वापस जाना बहुत मुश्किल है । तो एक वैष्णव के लिए, जैसे मैं समझा रहा था,  त्रि-दश-अाकाश-पुष्पायते दुर्दान्तेन्द्रिय-काल-सर्प-पटली । तो इन्द्रियों को नियंत्रित करना, यह दुर्दान्त है । दुर्दान्त का मतलब है दुर्जेय । इंद्रियों पर नियंत्रण बहुत, बहुत मुश्किल है । इसलिए योग प्रक्रिया, रहस्यवादी योग प्रक्रिया - कैसे इन्द्रियों को नियंत्रित करने का अभ्यास । लेकिन एक भक्त के लिए ... वे ... बस जीभ की तरह, अगर यह केवल हरे कृष्ण मंत्र जप और केवल कृष्ण प्रसाद खाने के व्यापार में लगा हो तो, यह पूर्ण है, पूर्ण योगी । बिल्कुल सही । तो एक भक्त के लिए, इंद्रियों से कोई परेशानी नहीं होती है क्योंकि एक भक्त जानता है कि कैसे प्रत्येक इन्द्रियों को भगवान की सेवा में  संलग्न करना । ऋषिकेण ऋषिकेश सेवनम ([[Vanisource:CC Madhya 19.170|चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१७०]]) । यही भक्ति है । ऋषिक का मतलब है इन्द्रियॉ । जब इन्द्रियॉ केवल कृष्ण, ऋषिकेश की सेवा में लगी हुई हैं, तो योग के अभ्यास की कोई जरूरत नहीं है । स्वचालित रूप से वे कृष्ण की सेवा में संलग्न हैं । उनके पास अन्य कोई काम नहीं है ।  यही सबसे उच्च है । इसलिए कृष्ण कहते हैं,
:मद-गतेनान्तरात्मना
:श्रद्धावान भजते यो माम
:स मे युक्तातमो मत:
:([[Vanisource:BG 6.47|भगी ६।४७]])


"एक प्रथम श्रेणी का योगी वह है जो हमेशा मेर बारे में सोचता है ।" इसलिए यह हरे कृष्ण मंत्र का जाप, अगर हम केवल मंत्र का जाप करें और सुनें, प्रथम श्रेणी योगी । तो ये प्रक्रिया है । तो कृष्ण चाहते हैं कि अर्जुन "क्यों तुम मन की इस कमजोरी में लिप्त हो? तुम मेरी सुरक्षा के तहत हो । मैं लड़ने के लिए तुम्हे आदेश दे रहा हूँ । क्यों तुम इस बात से इनकार कर रहे हो ? " यह मुराद है ।
:योगीनाम अपि सर्वेशाम
:मद-गतेनान्तरात्मना
:श्रद्धावान भजते यो माम
:स मे युक्ततमो मत:
:([[HI/BG 6.47|भ.गी. ६.४७]])


बहुत बहुत धन्यवाद ।
"एक प्रथम श्रेणी का योगी वह है जो हमेशा मेर बारे में सोचता है ।" इसलिए यह हरे कृष्ण मंत्र का जप, अगर हम केवल मंत्र का जप करें और सुनें, प्रथम श्रेणी योगी । तो ये प्रक्रिया है । तो कृष्ण  चाहते हैं कि अर्जुन "क्यों तुम मन की इस कमजोरी में लिप्त हो? तुम मेरी सुरक्षा के तहत हो ।  मैं लड़ने के लिए तुम्हे आदेश दे रहा हूँ । क्यों तुम इस बात से इनकार कर रहे हो ? " यह तात्पर्य है । 
 
बहुत बहुत धन्यवाद ।  
<!-- END TRANSLATED TEXT -->
<!-- END TRANSLATED TEXT -->

Latest revision as of 18:23, 17 September 2020



Lecture on BG 2.3 -- London, August 4, 1973

प्रभुपाद: बस कल ही हम पढ़ रहे थे मनु, वैवस्वत मनु, कर्दम मुनि के पास आए थे, वह स्वागत कर रहे हैं, "प्रभु, मैं जानत हूँ कि अापके दौरे का मतलब है कि अाप सिर्फ ...क्या कहते हैं, जांच करना?

भक्त: निरीक्षण।

प्रभुपाद: निरीक्षण, हाँ । निरीक्षण । "अापका दौरे का मतलब है निरीक्षण कि वर्णाश्रम ... क्या ब्राह्मण वास्तव में ब्राह्मण का काम कर रहा है या नहीं, क्या क्षत्रिय वास्तव में क्षत्रिय का काम कर रहे हैं ।" यही राजा का दौरा है । राजा का दौरा राज्य की कीमत पर एक उपभोग का दौरा नहीं है कि कहीं जाना है और वापस आना है । नहीं । वे थे ... कभी कभी राजा भेस बदलकर यह देखते थे कि यह वर्णाश्रम-धर्म क़ायम है , ठीक से अनुगमन किया जा रहा है, क्या कोई समय बर्बाद कर रहा है बस हिप्पी की तरह । नहीं, यह नहीं किया जा सकता है । यह नहीं किया जा सकता । अब अपनी सरकार में कुछ निरीक्षण है कि कोई भी कार्यरत है , लेकिन ... बेरोजगार ।

लेकिन इतनी सारी चीजें का व्यावहारिक रूप से निरीक्षण नहीं होता है । लेकिन यह सब कुछ देखना सरकार का कर्तव्य है । वर्णाश्रमाचरवता, हर कोई ब्राह्मण के रूप में अभ्यास कर रहा है . बस झूठ द्वारा ब्राह्मण होना, झूठ से क्षत्रिय बनना - नहीं । तुम्हें करना होगा । तो यह राजा का कर्तव्य था, सरकार का कर्तव्य । अब सब कुछ उल्टा - पुल्टा हो गया है । कुछ भी व्यावहारिक मूल्य का नहीं रहा । इसलिए चैतन्य महाप्रभु नें कहा, कलौ ...

हरेर नाम हरेर नाम
हरेर नामैव केवलम
कलौ नास्ति एव नास्ति एव
नास्ति एव गतिर अन्यथा
(चैतन्य चरितामृत अादि १७.२१)

सभ्यता की मूल प्रक्रिया को हमारा वापस जाना बहुत मुश्किल है । तो एक वैष्णव के लिए, जैसे मैं समझा रहा था, त्रि-दश-अाकाश-पुष्पायते दुर्दान्तेन्द्रिय-काल-सर्प-पटली । तो इन्द्रियों को नियंत्रित करना, यह दुर्दान्त है । दुर्दान्त का मतलब है दुर्जेय । इंद्रियों पर नियंत्रण बहुत, बहुत मुश्किल है । इसलिए योग प्रक्रिया, रहस्यवादी योग प्रक्रिया - कैसे इन्द्रियों को नियंत्रित करने का अभ्यास । लेकिन एक भक्त के लिए ... वे ... बस जीभ की तरह, अगर यह केवल हरे कृष्ण मंत्र जप और केवल कृष्ण प्रसाद खाने के व्यापार में लगा हो तो, यह पूर्ण है, पूर्ण योगी । बिल्कुल सही । तो एक भक्त के लिए, इंद्रियों से कोई परेशानी नहीं होती है क्योंकि एक भक्त जानता है कि कैसे प्रत्येक इन्द्रियों को भगवान की सेवा में संलग्न करना । ऋषिकेण ऋषिकेश सेवनम (चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१७०) । यही भक्ति है । ऋषिक का मतलब है इन्द्रियॉ । जब इन्द्रियॉ केवल कृष्ण, ऋषिकेश की सेवा में लगी हुई हैं, तो योग के अभ्यास की कोई जरूरत नहीं है । स्वचालित रूप से वे कृष्ण की सेवा में संलग्न हैं । उनके पास अन्य कोई काम नहीं है । यही सबसे उच्च है । इसलिए कृष्ण कहते हैं,

योगीनाम अपि सर्वेशाम
मद-गतेनान्तरात्मना
श्रद्धावान भजते यो माम
स मे युक्ततमो मत:
(भ.गी. ६.४७)

"एक प्रथम श्रेणी का योगी वह है जो हमेशा मेर बारे में सोचता है ।" इसलिए यह हरे कृष्ण मंत्र का जप, अगर हम केवल मंत्र का जप करें और सुनें, प्रथम श्रेणी योगी । तो ये प्रक्रिया है । तो कृष्ण चाहते हैं कि अर्जुन "क्यों तुम मन की इस कमजोरी में लिप्त हो? तुम मेरी सुरक्षा के तहत हो । मैं लड़ने के लिए तुम्हे आदेश दे रहा हूँ । क्यों तुम इस बात से इनकार कर रहे हो ? " यह तात्पर्य है ।

बहुत बहुत धन्यवाद ।