HI/Prabhupada 0244 - हमारा तत्वज्ञान है कि सब कुछ भगवान के अंतर्गत आता है: Difference between revisions

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पेरिस में उस दिन एक प्रेस रिपोर्टर मेरे पास आया था, समाजवादी प्रेस । तो मैंने उसे सूचित किया कि। "हमारा तत्वज्ञान है कि सब कुछ भगवान के अंतर्गत आता है ।" कृष्ण कहते हैं भौक्तारम यज्ञ-तपसाम सर्व-लोक-महेश्वरम ([[Vanisource:BG 5.29|भ गि ५।२९]]) "मैं भोक्ता हूँ, उपभोगी । भौक्ता का मतलब है, उपभोगी । तो भोक्तारम यज्ञ-तपसाम । वैसे ही जैसे यह शरीर काम कर रहा है । पूरा शरीर काम कर रहा है, हर किसी का, जीवन का आनंद लेने के लिए, लेकिन कहाँ से आनंद शुरू होता है? आनंद पेट से शुरू होता है । तुम्हे पेट को पर्याप्त अच्छा भोजन देना होगा । अगर पर्याप्त ऊर्जा है, तो हम पचा सकता हैं । अगर पर्याप्त ऊर्जा है, तो अन्य सभी इंद्रियॉ मजबूत हो जाती हैं । तो फिर तुम इन्द्रिय संतुष्टि का अानन्द ले सकते हप । नहीं तो यह संभव नहीं है । अगर तुम पचा नहीं सकते ... जैसे हम अब बूढ़े आदमी हैं । हम नहीं पचा सकते हैं । तो इन्द्रिय आनंद का कोई सवाल ही नहीं है । तो इन्द्रियों का आनंद पेट से शुरू होता है । पेड़ का विलासी विकास, जड़ से शुरू होता है, अगर पर्याप्त पानी हो तो । इसलिए पेड़ों को पाद-प कहा जाता है । वे पैर से पानी पीते हैं, जड़ से, न की सिर से । जैसे हम सिर से खाते हैं । तो अलग व्यवस्था है । जैसे हम मुंह से खा सकते हैं, पेड़, वे अपने पैरों से खाते हैं । लेकिन हमें खाना तो है । अाहार निद्रा भय मैथुन । भोजन तो है, या तो तुम अपने पैर या अपने मुँह या अपने हाथों के माध्यम से खाते हो । लेकिन जहॉ तक कृष्ण का संबंध है, वे कहीं से भी खा सकते हैं । वे कान से, आंखों से, पैर से, हाथों से खा सकते हैं, कहीं से भी । क्योंकि वे आध्यात्मिक है पूर्ण रूप से । उनके सिर और पैर और कान और आंखों के बीच कोई अंतर नहीं है । यह ब्रह्म संहिता में कहा गया है,
पेरिस में उस दिन एक प्रेस रिपोर्टर मेरे पास आया था, समाजवादी प्रेस । तो मैंने उसे सूचित किया कि। "हमारा तत्वज्ञान है कि सब कुछ भगवान के अंतर्गत आता है ।" कृष्ण कहते हैं भौक्तारम यज्ञ-तपसाम सर्व-लोक-महेश्वरम ([[HI/BG 5.29|भ.गी. ५.२९]]) | "मैं भोक्ता हूँ, उपभोगी । भौक्ता का मतलब है, उपभोगी । तो भोक्तारम यज्ञ-तपसाम । वैसे ही जैसे यह शरीर काम कर रहा है । पूरा शरीर काम कर रहा है, हर किसी का, जीवन का आनंद लेने के लिए, लेकिन कहाँ से आनंद शुरू होता है? आनंद पेट से शुरू होता है । तुम्हे पेट को पर्याप्त अच्छा भोजन देना होगा । अगर पर्याप्त शक्ति है, तो हम पचा सकता हैं । अगर पर्याप्त शक्ति है, तो अन्य सभी इंद्रियॉ मजबूत हो जाती हैं ।  


:अ<गानि यस्य सकलेन्द्रिय-वृत्तिमन्ति
तो फिर तुम इन्द्रिय संतुष्टि का अानन्द ले सकते हप ।  नहीं तो यह संभव नहीं है । अगर तुम पचा नहीं सकते  .... जैसे हम अब बूढ़े आदमी हैं । हम नहीं पचा सकते हैं । तो इन्द्रिय आनंद का कोई सवाल ही नहीं है । तो इन्द्रियों का आनंद पेट से शुरू होता है । वृक्ष का विलासी विकास, जड़ से शुरू होता है, अगर पर्याप्त पानी हो तो । इसलिए वृक्षो को पाद-प कहा जाता है । वे पैर से पानी पीते हैं, जड़ से, न की सिर से । जैसे हम सिर से खाते हैं ।  तो अलग व्यवस्था है । जैसे हम मुंह से खा सकते हैं, पेड़, वे अपने पैरों से खाते हैं । लेकिन हमें खाना तो है । अाहार निद्रा भय मैथुन । भोजन तो है, या तो तुम अपने पैर या अपने मुँह या अपने हाथों के माध्यम से खाते हो । लेकिन जहॉ तक कृष्ण का संबंध है, वे कहीं से भी खा सकते हैं । वे कान से, आंखों से, पैर से, हाथों से खा सकते हैं, कहीं से भी । क्योंकि वे आध्यात्मिक है पूर्ण रूप से ।  उनके सिर और पैर और कान और आंखों के बीच कोई अंतर नहीं है । यह ब्रह्म संहिता में कहा गया है,
:पश्यन्ति पान्ति कलयन्ति चिरम जगन्ति
:अानन्द-चिन्मय-सद्उज्वल-विग्रहस्य
:गोविन्दम अादि पुरुषम तम अहम भजामि
:(ब्र स ५।३२)


तो, जैसे इस शरीर में हमारा इन्द्रिय भोग पेट से शुरू करना चाहिए, इसी तरह, जैसे पेड़ का अलर्कंत विकास शुरू होता है जड़ से, इसी तरह, कृष्ण सब के मूल हैं, जन्मादि अस्य यत: श् ([[Vanisource:SB 1.1.1|री भ १।१।१]]) जड़ । कृष्ण भावनामृत के बिना, कृष्ण को प्रसन्न किए बिना, तुम खुश नहीं रह सकते हो । यही प्रणाली है । इसलिए कैसे कृष्ण कैसे प्रसन्न होंगे? कृष्ण खुश होंगा ... हम सभी कृष्ण के पुत्र हैं, भगवान के बेटे । सब कुछ कृष्ण की संपत्ति है । ये तथ्य हैं । अब हम कृष्ण के प्रसाद लेने का आनंद सकते हैं, क्योंकि वे मालिक हैं, भौक्ता, उपभोगी । तो सब कुछ कृष्ण को सबसे पहले दिया जाना चाहिए, और फिर तुम प्रसादम् लो । यही तुम्हे खुश करेगा । यही भगवद गीता में कहा गया है. भुन्जते ते त्व अघम पापम ये पचन्ति अात्म-कारणात ([[Vanisource:BG 3.13|भ गी ३।१३]]) "जो खुद के खाने के लिए खाना पका रहे हैं, वे केवल पाप खा रहे हैं ।" भुन्जते ते त्व अघम पापम ये पचन्ति अात्म...... यज्ञार्थात कर्मणो अन्यत्र लोको यम कर्म.... सब कुछ कृष्ण के लिए किया जाना चाहिए, यहां तक ​​कि तुम्हारा खाना भी, कुछ भी । सब इन्द्रिय आनंद, तुम आनंद ले सकते हो । लेकिन कृष्ण के अानन्द लेने के बाद । फिर तुम खा सकते हो । इसलिए कृष्ण का नाम ऋषिकेश है । वे मालिक हैं । इंद्रियों के मालिक । तुम स्वतंत्र रूप से अपने इन्द्रियों का आनंद नहीं उठा सकते हो । जैसे नौकर की तरह । नौकर आनंद नहीं ले सकता है । जैसे बाबर्ची रसोई में बहुत, अच्छे पकवान बनाता है, लेकिन वह शुरुआत में नहीं खा सकता है । यह संभव नहीं है. । फिर उसे नौकरी से निकाल दिया जाएगा । मालिक को सब से पहले लेना चाहिए, और फिर वे सब अच्छे खाद्य पदार्थों का आनंद ले सकते हैं ।
:अंगानी यस्य सकलेन्द्रिय-वृत्तिमन्ति
:पश्यन्ति पान्ति कलयन्ति चिरम जगन्ति
:अानन्द-चिन्मय-सद्उज्वल-विग्रहस्य
:गोविन्दम अादि पुरुषम तम अहम भजामि
:(ब्रह्मसंहिता ५.३२)
 
तो, जैसे इस शरीर में हमारा इन्द्रिय भोग पेट से शुरू करना चाहिए, इसी तरह, जैसे पेड़ का अलर्कंत विकास शुरू होता है जड़ से, इसी तरह, कृष्ण सब के मूल हैं, जन्मादि अस्य यत: ([[Vanisource:SB 1.1.1|श्रीमद भागवतम १.१.१]]), जड़ । कृष्ण भावनामृत के बिना, कृष्ण को प्रसन्न किए बिना, तुम खुश नहीं रह सकते हो । यही प्रणाली है । इसलिए कृष्ण कैसे प्रसन्न होंगे? कृष्ण खुश होंगे... हम सभी कृष्ण के पुत्र हैं, भगवान के बेटे । सब कुछ कृष्ण की संपत्ति है । ये तथ्य हैं । अब हम कृष्ण के प्रसाद लेने का आनंद ले सकते हैं, क्योंकि वे मालिक हैं, भौक्ता, उपभोगी । तो सब कुछ कृष्ण को सबसे पहले दिया जाना चाहिए, और फिर तुम प्रसादम् लो । यही तुम्हे खुश करेगा । यही भगवद गीता में कहा गया है. भुन्जते ते त्व अघम पापम ये पचन्ति अात्म-कारणात ([[HI/BG 3.13|भ.गी. ३.१३]]) "जो खुद के खाने के लिए खाना पका रहे हैं, वे केवल पाप खा रहे हैं ।"  
 
भुन्जते ते त्व अघम पापम ये पचन्ति अात्म...... यज्ञार्थात कर्मणो अन्यत्र लोको यम कर्म.... सब कुछ कृष्ण के लिए किया जाना चाहिए, यहां तक ​​कि तुम्हारा खाना भी, कुछ भी । सब इन्द्रिय आनंद, तुम आनंद ले सकते हो । लेकिन कृष्ण के अानन्द लेने के बाद । फिर तुम खा सकते हो । इसलिए कृष्ण का नाम ऋषिकेश है । वे मालिक हैं । इंद्रियों के मालिक । तुम स्वतंत्र रूप से अपने इन्द्रियों का आनंद नहीं उठा सकते हो । जैसे नौकर की तरह । नौकर आनंद नहीं ले सकता है । जैसे बावर्ची रसोई में बहुत, अच्छे पकवान बनाता है, लेकिन वह शुरुआत में नहीं खा सकता है । यह संभव नहीं है. । तो फिर उसे नौकरी से निकाल दिया जाएगा । मालिक को सब से पहले लेना चाहिए, और फिर वे सब अच्छे खाद्य पदार्थों का आनंद ले सकते हैं ।  
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Latest revision as of 18:23, 17 September 2020



Lecture on BG 2.9 -- London, August 15, 1973

पेरिस में उस दिन एक प्रेस रिपोर्टर मेरे पास आया था, समाजवादी प्रेस । तो मैंने उसे सूचित किया कि। "हमारा तत्वज्ञान है कि सब कुछ भगवान के अंतर्गत आता है ।" कृष्ण कहते हैं भौक्तारम यज्ञ-तपसाम सर्व-लोक-महेश्वरम (भ.गी. ५.२९) | "मैं भोक्ता हूँ, उपभोगी । भौक्ता का मतलब है, उपभोगी । तो भोक्तारम यज्ञ-तपसाम । वैसे ही जैसे यह शरीर काम कर रहा है । पूरा शरीर काम कर रहा है, हर किसी का, जीवन का आनंद लेने के लिए, लेकिन कहाँ से आनंद शुरू होता है? आनंद पेट से शुरू होता है । तुम्हे पेट को पर्याप्त अच्छा भोजन देना होगा । अगर पर्याप्त शक्ति है, तो हम पचा सकता हैं । अगर पर्याप्त शक्ति है, तो अन्य सभी इंद्रियॉ मजबूत हो जाती हैं ।

तो फिर तुम इन्द्रिय संतुष्टि का अानन्द ले सकते हप । नहीं तो यह संभव नहीं है । अगर तुम पचा नहीं सकते .... जैसे हम अब बूढ़े आदमी हैं । हम नहीं पचा सकते हैं । तो इन्द्रिय आनंद का कोई सवाल ही नहीं है । तो इन्द्रियों का आनंद पेट से शुरू होता है । वृक्ष का विलासी विकास, जड़ से शुरू होता है, अगर पर्याप्त पानी हो तो । इसलिए वृक्षो को पाद-प कहा जाता है । वे पैर से पानी पीते हैं, जड़ से, न की सिर से । जैसे हम सिर से खाते हैं । तो अलग व्यवस्था है । जैसे हम मुंह से खा सकते हैं, पेड़, वे अपने पैरों से खाते हैं । लेकिन हमें खाना तो है । अाहार निद्रा भय मैथुन । भोजन तो है, या तो तुम अपने पैर या अपने मुँह या अपने हाथों के माध्यम से खाते हो । लेकिन जहॉ तक कृष्ण का संबंध है, वे कहीं से भी खा सकते हैं । वे कान से, आंखों से, पैर से, हाथों से खा सकते हैं, कहीं से भी । क्योंकि वे आध्यात्मिक है पूर्ण रूप से । उनके सिर और पैर और कान और आंखों के बीच कोई अंतर नहीं है । यह ब्रह्म संहिता में कहा गया है,

अंगानी यस्य सकलेन्द्रिय-वृत्तिमन्ति
पश्यन्ति पान्ति कलयन्ति चिरम जगन्ति
अानन्द-चिन्मय-सद्उज्वल-विग्रहस्य
गोविन्दम अादि पुरुषम तम अहम भजामि
(ब्रह्मसंहिता ५.३२)

तो, जैसे इस शरीर में हमारा इन्द्रिय भोग पेट से शुरू करना चाहिए, इसी तरह, जैसे पेड़ का अलर्कंत विकास शुरू होता है जड़ से, इसी तरह, कृष्ण सब के मूल हैं, जन्मादि अस्य यत: (श्रीमद भागवतम १.१.१), जड़ । कृष्ण भावनामृत के बिना, कृष्ण को प्रसन्न किए बिना, तुम खुश नहीं रह सकते हो । यही प्रणाली है । इसलिए कृष्ण कैसे प्रसन्न होंगे? कृष्ण खुश होंगे... हम सभी कृष्ण के पुत्र हैं, भगवान के बेटे । सब कुछ कृष्ण की संपत्ति है । ये तथ्य हैं । अब हम कृष्ण के प्रसाद लेने का आनंद ले सकते हैं, क्योंकि वे मालिक हैं, भौक्ता, उपभोगी । तो सब कुछ कृष्ण को सबसे पहले दिया जाना चाहिए, और फिर तुम प्रसादम् लो । यही तुम्हे खुश करेगा । यही भगवद गीता में कहा गया है. भुन्जते ते त्व अघम पापम ये पचन्ति अात्म-कारणात (भ.गी. ३.१३) "जो खुद के खाने के लिए खाना पका रहे हैं, वे केवल पाप खा रहे हैं ।"

भुन्जते ते त्व अघम पापम ये पचन्ति अात्म...... यज्ञार्थात कर्मणो अन्यत्र लोको यम कर्म.... सब कुछ कृष्ण के लिए किया जाना चाहिए, यहां तक ​​कि तुम्हारा खाना भी, कुछ भी । सब इन्द्रिय आनंद, तुम आनंद ले सकते हो । लेकिन कृष्ण के अानन्द लेने के बाद । फिर तुम खा सकते हो । इसलिए कृष्ण का नाम ऋषिकेश है । वे मालिक हैं । इंद्रियों के मालिक । तुम स्वतंत्र रूप से अपने इन्द्रियों का आनंद नहीं उठा सकते हो । जैसे नौकर की तरह । नौकर आनंद नहीं ले सकता है । जैसे बावर्ची रसोई में बहुत, अच्छे पकवान बनाता है, लेकिन वह शुरुआत में नहीं खा सकता है । यह संभव नहीं है. । तो फिर उसे नौकरी से निकाल दिया जाएगा । मालिक को सब से पहले लेना चाहिए, और फिर वे सब अच्छे खाद्य पदार्थों का आनंद ले सकते हैं ।