HI/Prabhupada 0246 - कृष्ण का भक्त जो बन जाता है , सभी अच्छे गुण उनके शरीर में प्रकट होते हैं: Difference between revisions

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इस भौतिक दुनिया में, तथाकथित प्रेम, समाज, दोस्ती और प्यार - सब कुछ इन्द्रिय संतुष्टि पर निर्भर करता है, मैथुनादि, सेक्स से शुरुआत । यन मैथुनादि ग्रहमेधि-सुक्खम हि तुच्छम तो जब हम इस मैथुनादि- सुक्खम से मुक्त हो जाते हैं, हम मुक्त हैं, वह मुक्त है, स्वामी, गोस्वामी । तो जब तक हम इस मैथुनादि, सेक्स आवेग से जुड़े हैं, वह न तो स्वामी है न ही गोस्वामी । स्वामी का मतलब है जो इंद्रियों का मालिक बन जाता है । जैसे कृष्ण इंद्रियों के मालिक हैं, तो जब हम कृष्ण सचेत हो जाते हैं, तो हम इंद्रियों के मालिक बन जाते हैं । यह नहीं है कि इन्द्रियों को रोकना है । नहीं, उन्हे नियंत्रित किया जाना चाहिए । "जब मुझे आवश्यकता होती है, मैं इसका इस्तेमाल होगा, अन्यथा नहीं । " यही इंद्रियों का स्वामी है । "मैं इन्द्रियों के तहत नहीं हूँ । इन्द्रियॉ मेरे तहत हैं ।" यही स्वामी है । इसलिए अर्जुन को गुडाकेश कहा जाता है । वे मालिक हैं ... वह हैं, जब चाहें वह कायर नहीं है, लेकिन वह दयालु है क्योंकि वह भक्त हैं । क्योंकि वे कृष्ण के भक्त हैं ... कृष्ण का भक्त जो बन जाता है , सभी अच्छे गुण उनके शरीर में प्रकट होते हैं । यस्यास्ति भक्तिर भगवति अकिन्चना सर्वैर गुनैस् तत्र समासते सुरा: ([[Vanisource:SB 5.18.12|श्री भ ५।१८।१२]]) सभी ईश्वरीय गुण । तो अर्जुन , वह भी है ... नहीं तो कैसे वे कृष्ण के घनिष्ठ मित्र बन सकते हैं जब तक बराबरी की स्थिति न हो? दोस्ती बहुत मजबूत हो जाती है जब दोनों दोस्त समान स्तर पर (हैं) : एक ही उम्र के, एक ही शिक्षा, वही प्रतिष्ठा, एक ही सौंदर्य । स्थिति में जितनी अधिक समानता, तो दोस्ती वहाँ है, मजबूत । तो अर्जुन भी कृष्ण के ही स्तर पर हैं । जैसे जब कोई किसी राष्ट्रपति का दोस्त, राजा या रानी का दोस्त बन जाता है । तो वह आम आदमी नहीं रहता । उसे भी एक ही स्थिति में होना चाहिए । जैसे गोस्वामीयों तरह । गोस्वामी, जब उन्होंने अपने परिवारिक जीवान को त्याग दिया..... यह श्रीनिवास आचार्य द्वारा वर्णित है, त्यक्तवा तूरनम अशेश-मंडल-पति-श्रेणिम-सदा तुच्छवत । मंडल-पति, बड़े, बड़े नेता, मंडल-पति । बड़े, बड़े नेता, जमींदार, बड़े, बड़े, बड़े आदमी । वह मंत्री थे । कौन उनका दोस्त बन सकता है जब तक कि वह भी एक बहुत बड़ा आदमी नहीं है ? तो रूप गोस्वामी नें उनकी संगती छोड दी । जैसे ही रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी श्री चैतन्य महाप्रभु से परिचित हुए, तुरंत उन्होंने फैसला किया कि "हम इस पद से रिटायर हो जाऍगे और श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ शामिल हो जाऍगे उनकी मदद करने के लिए ।" उनकी सेवा करने के लिए, उनकी मदद करने के लिए नहीं । श्री चैतन्य महाप्रभु को किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं है । लेकिन अगर हम संबद्ध बनाने की कोशिश करते हैं और उनकी सेवा करने का प्रयास करते हैं, तो हमारा जीवन सफल हो जाता है । वैसे ही जैसे कृष्ण कहते हैं ... कृष्ण भगवद गीता के उपदेश के लिए आए थे । सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज ([[Vanisource:BG 18.66|भ गी १८।६६]]) । यह उनका मिशन था, कि " ये दुष्ट इतनी सारी चीज़ें के दास बन गए हैं: समाज, दोस्ती, प्यार, धर्म, यह, वह, इतनी सारी चीजें, राष्ट्रीयता, समुदाय । इसलिए इन दुष्टों को यह सब बकवास व्यापार बंद कर देना चाहिए । " सर्व-धर्मान परित्यज्य: "यह सब बकवास छोड़ दो । बस मुझे पर्यत आत्मसमर्पण करो ।" यह धर्म है । अन्यथा, कैसे कृष्ण सलाह दे रहे हैं कि सर्व-धर्मान परित्यज्य ([[Vanisource:BG 18.66|भ गी १८।६६]]) "तुम सभी धार्मिक प्रणाली का त्याग करो?" वह आए थे - धर्म-सम्स्थापनार्थाय । वे अाए थे धर्म के सिद्धांतों को फिर से स्थापित करने के लिए । अब वे कह रहे हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य, "सब कुछ छोड दो ।" इसका मतलब है कि, कुछ भी कृष्ण चेतना के बिना, भगवान चेतना के बिना, वे सभी धोखा देने वाले धर्म हैं । वे धर्म नहीं हैं । धर्म का मतलब है धरम्म तु साक्शात भगवत प्रनितम, परम भगवान का आदेश । अगर हम परम भगवान कौन हैं, यह नहीं जानते, अगर हम परम भगवान का आदेश क्या है यह नहीं जानते, तो धर्म कहाँ है? यह धर्म नहीं है । यह धर्म के नाम पर चल सकता है, लेकिन वह धोखा देना है।
इस भौतिक दुनिया में, तथाकथित प्रेम, समाज, दोस्ती और प्यार - सब कुछ इन्द्रिय संतुष्टि पर निर्भर करता है, मैथुनादि, मैथुन से शुरुआत । यन मैथुनादि ग्रहमेधि-सुखम हि तुच्छम | तो जब हम इस मैथुनादि- सुखम से मुक्त हो जाते हैं, हम मुक्त हैं, वह मुक्त है, स्वामी, गोस्वामी । तो जब तक हम इस मैथुनादि, मैथुन आवेग से जुड़े हैं, वह न तो स्वामी है न ही गोस्वामी । स्वामी का मतलब है जो इंद्रियों का मालिक बन जाता है । जैसे कृष्ण इंद्रियों के मालिक हैं, तो जब हम कृष्ण भावनाभावित हो जाते हैं, तो हम इंद्रियों के मालिक बन जाते हैं । यह नहीं है कि इन्द्रियों को रोकना है । नहीं, उन्हे नियंत्रित किया जाना चाहिए । "जब मुझे आवश्यकता होती है, मैं इसका इस्तेमाल होगा, अन्यथा नहीं ।" यही इंद्रियों का स्वामी है । "मैं इन्द्रियों के तहत नहीं हूँ । इन्द्रियॉ मेरे तहत हैं ।" यही स्वामी है । इसलिए अर्जुन को गुडाकेश कहा जाता है । वे मालिक हैं ... वह हैं, जब चाहें वह कायर नहीं है, लेकिन वह दयालु है क्योंकि वह भक्त हैं । क्योंकि वे कृष्ण के भक्त हैं ...  
 
कृष्ण का भक्त जो बन जाता है , सभी अच्छे गुण उनके शरीर में प्रकट होते हैं । यस्यास्ति भक्तिर भगवति अकिन्चन सर्वैर गुणैस तत्र समासते सुरा: ([[Vanisource:SB 5.18.12|श्रीमद भागवतम ५.१८.१२]]) | सभी ईश्वरीय गुण । तो अर्जुन , वह भी है ... नहीं तो कैसे वे कृष्ण के घनिष्ठ मित्र बन सकते हैं जब तक बराबरी की पद न हो? दोस्ती बहुत मजबूत हो जाती है जब दोनों दोस्त समान स्तर पर (हैं) : एक ही उम्र के, एक ही शिक्षा, वही प्रतिष्ठा, एक ही सौंदर्य । स्थिति में जितनी अधिक समानता, तो दोस्ती वहाँ है, मजबूत । तो अर्जुन भी कृष्ण के ही स्तर पर हैं । जैसे जब कोई किसी राष्ट्रपति का दोस्त, राजा या रानी का दोस्त बन जाता है ।  
 
तो वह आम आदमी नहीं रहता । उसे भी एक ही स्थिति में होना चाहिए । जैसे गोस्वामीओ तरह । गोस्वामी, जब उन्होंने अपने परिवारिक जीवान को त्याग दिया..... यह श्रीनिवास आचार्य द्वारा वर्णित है, त्यक्तवा तूर्णम अशेश-मंडल-पति-श्रेणिम-सदा तुच्छवत । मंडल-पति, बड़े, बड़े नेता, मंडल-पति । बड़े, बड़े नेता, जमीनदार, बड़े, बड़े, बड़े आदमी । वह मंत्री थे । कौन उनका दोस्त बन सकता है जब तक कि वह भी एक बहुत बड़ा आदमी नहीं है ? तो रूप गोस्वामी नें उनकी संगती छोड दी । जैसे ही रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी श्री चैतन्य महाप्रभु से परिचित हुए, तुरंत उन्होंने फैसला किया कि "हम इस पद से निवृत्त हो जाऍगे और श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ शामिल हो जाऍगे उनकी मदद करने के लिए ।" उनकी सेवा करने के लिए, उनकी मदद करने के लिए नहीं । श्री चैतन्य महाप्रभु को किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं है । लेकिन अगर हम सम्बन्ध बनाने की कोशिश करते हैं और उनकी सेवा करने का प्रयास करते हैं, तो हमारा जीवन सफल हो जाता है । वैसे ही जैसे कृष्ण कहते हैं ... कृष्ण भगवद गीता के उपदेश के लिए आए थे ।  
 
सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज ([[HI/BG 18.66|भ.गी. १८.६६]]) । यह उनका मिशन था, कि " ये दुष्ट इतनी सारी चीज़ो के दास बन गए हैं: समाज, दोस्ती, प्यार, धर्म, यह, वह, इतनी सारी चीजें, राष्ट्रीयता, समुदाय । इसलिए इन दुष्टों को यह सब बकवास व्यापार बंद कर देना चाहिए । " सर्व-धर्मान परित्यज्य: "यह सब बकवास छोड़ दो । बस मुझको आत्मसमर्पण करो ।" यह धर्म है । अन्यथा, कैसे कृष्ण सलाह दे रहे हैं कि सर्व-धर्मान परित्यज्य ([[HI/BG 18.66|भ.गी. १८.६६]]) "तुम सभी धार्मिक प्रणाली का त्याग करो?" वह आए थे - धर्म-संस्थापनार्थाय  । वे अाए थे धर्म के सिद्धांतों को फिर से स्थापित करने के लिए । अब वे कह रहे हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य, "सब कुछ छोड दो ।" इसका मतलब है कि, कुछ भी कृष्ण भावनामृत के बिना, भगवद भावनामृत के बिना, वे सभी धोखा देने वाले धर्म हैं । वे धर्म नहीं हैं । धर्म का मतलब है धर्मम तु साक्षाद भगवत प्रणीतम, परम भगवान का आदेश । अगर हम परम भगवान कौन हैं, यह नहीं जानते, अगर हम परम भगवान का आदेश क्या है यह नहीं जानते, तो धर्म कहाँ है? यह धर्म नहीं है । यह धर्म के नाम पर चल सकता है, लेकिन वह धोखा देना है।  
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Latest revision as of 18:23, 17 September 2020



Lecture on BG 2.9 -- London, August 15, 1973

इस भौतिक दुनिया में, तथाकथित प्रेम, समाज, दोस्ती और प्यार - सब कुछ इन्द्रिय संतुष्टि पर निर्भर करता है, मैथुनादि, मैथुन से शुरुआत । यन मैथुनादि ग्रहमेधि-सुखम हि तुच्छम | तो जब हम इस मैथुनादि- सुखम से मुक्त हो जाते हैं, हम मुक्त हैं, वह मुक्त है, स्वामी, गोस्वामी । तो जब तक हम इस मैथुनादि, मैथुन आवेग से जुड़े हैं, वह न तो स्वामी है न ही गोस्वामी । स्वामी का मतलब है जो इंद्रियों का मालिक बन जाता है । जैसे कृष्ण इंद्रियों के मालिक हैं, तो जब हम कृष्ण भावनाभावित हो जाते हैं, तो हम इंद्रियों के मालिक बन जाते हैं । यह नहीं है कि इन्द्रियों को रोकना है । नहीं, उन्हे नियंत्रित किया जाना चाहिए । "जब मुझे आवश्यकता होती है, मैं इसका इस्तेमाल होगा, अन्यथा नहीं ।" यही इंद्रियों का स्वामी है । "मैं इन्द्रियों के तहत नहीं हूँ । इन्द्रियॉ मेरे तहत हैं ।" यही स्वामी है । इसलिए अर्जुन को गुडाकेश कहा जाता है । वे मालिक हैं ... वह हैं, जब चाहें वह कायर नहीं है, लेकिन वह दयालु है क्योंकि वह भक्त हैं । क्योंकि वे कृष्ण के भक्त हैं ...

कृष्ण का भक्त जो बन जाता है , सभी अच्छे गुण उनके शरीर में प्रकट होते हैं । यस्यास्ति भक्तिर भगवति अकिन्चन सर्वैर गुणैस तत्र समासते सुरा: (श्रीमद भागवतम ५.१८.१२) | सभी ईश्वरीय गुण । तो अर्जुन , वह भी है ... नहीं तो कैसे वे कृष्ण के घनिष्ठ मित्र बन सकते हैं जब तक बराबरी की पद न हो? दोस्ती बहुत मजबूत हो जाती है जब दोनों दोस्त समान स्तर पर (हैं) : एक ही उम्र के, एक ही शिक्षा, वही प्रतिष्ठा, एक ही सौंदर्य । स्थिति में जितनी अधिक समानता, तो दोस्ती वहाँ है, मजबूत । तो अर्जुन भी कृष्ण के ही स्तर पर हैं । जैसे जब कोई किसी राष्ट्रपति का दोस्त, राजा या रानी का दोस्त बन जाता है ।

तो वह आम आदमी नहीं रहता । उसे भी एक ही स्थिति में होना चाहिए । जैसे गोस्वामीओ तरह । गोस्वामी, जब उन्होंने अपने परिवारिक जीवान को त्याग दिया..... यह श्रीनिवास आचार्य द्वारा वर्णित है, त्यक्तवा तूर्णम अशेश-मंडल-पति-श्रेणिम-सदा तुच्छवत । मंडल-पति, बड़े, बड़े नेता, मंडल-पति । बड़े, बड़े नेता, जमीनदार, बड़े, बड़े, बड़े आदमी । वह मंत्री थे । कौन उनका दोस्त बन सकता है जब तक कि वह भी एक बहुत बड़ा आदमी नहीं है ? तो रूप गोस्वामी नें उनकी संगती छोड दी । जैसे ही रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी श्री चैतन्य महाप्रभु से परिचित हुए, तुरंत उन्होंने फैसला किया कि "हम इस पद से निवृत्त हो जाऍगे और श्री चैतन्य महाप्रभु के साथ शामिल हो जाऍगे उनकी मदद करने के लिए ।" उनकी सेवा करने के लिए, उनकी मदद करने के लिए नहीं । श्री चैतन्य महाप्रभु को किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं है । लेकिन अगर हम सम्बन्ध बनाने की कोशिश करते हैं और उनकी सेवा करने का प्रयास करते हैं, तो हमारा जीवन सफल हो जाता है । वैसे ही जैसे कृष्ण कहते हैं ... कृष्ण भगवद गीता के उपदेश के लिए आए थे ।

सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज (भ.गी. १८.६६) । यह उनका मिशन था, कि " ये दुष्ट इतनी सारी चीज़ो के दास बन गए हैं: समाज, दोस्ती, प्यार, धर्म, यह, वह, इतनी सारी चीजें, राष्ट्रीयता, समुदाय । इसलिए इन दुष्टों को यह सब बकवास व्यापार बंद कर देना चाहिए । " सर्व-धर्मान परित्यज्य: "यह सब बकवास छोड़ दो । बस मुझको आत्मसमर्पण करो ।" यह धर्म है । अन्यथा, कैसे कृष्ण सलाह दे रहे हैं कि सर्व-धर्मान परित्यज्य (भ.गी. १८.६६) "तुम सभी धार्मिक प्रणाली का त्याग करो?" वह आए थे - धर्म-संस्थापनार्थाय । वे अाए थे धर्म के सिद्धांतों को फिर से स्थापित करने के लिए । अब वे कह रहे हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य, "सब कुछ छोड दो ।" इसका मतलब है कि, कुछ भी कृष्ण भावनामृत के बिना, भगवद भावनामृत के बिना, वे सभी धोखा देने वाले धर्म हैं । वे धर्म नहीं हैं । धर्म का मतलब है धर्मम तु साक्षाद भगवत प्रणीतम, परम भगवान का आदेश । अगर हम परम भगवान कौन हैं, यह नहीं जानते, अगर हम परम भगवान का आदेश क्या है यह नहीं जानते, तो धर्म कहाँ है? यह धर्म नहीं है । यह धर्म के नाम पर चल सकता है, लेकिन वह धोखा देना है।