HI/Prabhupada 0256 - इस कलियुग में कृष्ण उनके नाम के रूप में आए हैं, हरे कृष्ण

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Lecture on BG 2.8 -- London, August 8, 1973

कृष्ण-वर्णम त्विशाकृष्णम
सांगोपांगास्त्र-पारषदम
यजै: संकीर्तनै: प्रायैर
यजन्ति हि सुमेदस:
(श्री भ ११।५।३२)

तो, इस कमरे में, विशेष रूप से, कृष्ण-वर्णम त्विशाकृष्णम, यहाँ चैतन्य महाप्रभु हैं । वे श्री कृष्ण खुद हैं, लेकिन उनका रंग अकृष्ण है, काला नहीं है । कृष्ण-वर्णम त्विशा... त्विशा का मतलब है रंग रूप से । अकृष्ण । पीले रंग के । सांगोपांगास्त्र-पारषदम । और वे अपने सहयोगियों के साथ हैं, नित्यानंद प्रभु, अद्वैत प्रभु, श्रीवासादि गौर-भक्त-वृन्द । यह इस युग में पूजनीय अर्च विग्रह है । कृष्ण-वर्णम त्विशाकृष्ण । तो पूजा करने की प्रक्रिया क्या है? यजै: संकीर्तनै: प्रायैर यजन्ति हि सुमेदस: यह संकीर्तन-यज्ञ, जो हम भगवान चैतन्य, नित्यानंद और दूसरों के सामने प्रदर्शन कर रहे हैं, यह इस युग में यज्ञ का सही प्रदर्शन है । अन्यथा, कोई अन्य ... इसलिए यह सफल होता जा रहा है । यही केवल एक निर्धारित यज्ञ है । अन्य यज्ञ, राजसूय यज्ञ, यह यज्ञ, वह ... इतने सारे यज्ञ हैं ... और कभी कभी भारत, वे तथाकथित यज्ञों का प्रदर्शन करते हैं । वे कुछ पैसे इकट्ठा करते हैं । बस । यह सफल नहीं हो सकता है क्योंकि कोई यज्ञिक ब्राह्मण नहीं है । यज्ञिक ब्राह्मण वर्तमान समय में अस्तित्व में नहीं हैं । यज्ञिक ब्राह्मण वे वैदिक मंत्रों का सही ढंग से उच्चारण कर रहे हैं या नहीं इसका वे परीक्षण करते थे । परीक्षण यह था कि एक जानवर को आग में डाल दिया जाना चाहिए और वह फिर से ताजा, युवा शरीर के साथ आ जाएगा । तो फिर यह प्रमाणित है कि यह यज्ञ अच्छी तरह से प्रदर्शन किया गया है । ब्राह्मण, यज्ञिक ब्राह्मण, वे सही ढंग से वेद मंत्रों का उच्चारण कर रहे हैं । यह परीक्षण है । लेकिन इस युग में उस तरह का ब्राह्मण कहॉ है? इसलिए कोई यज्ञ की सिफारिश नहीं की गई है । कलौ पंच विवर्जेत अश्वमेधम अवलम्भम सन्नयासम बाल-पैतृकम देवरेन सुत-पितृ कलौ पंच विवर्जेत (चै च अादि १७।१६४) इसलिए इस युग में कोई यज्ञ नहीं है । कोई यझिक ब्राह्मण नहीं है । केवल यही यज्ञ है: हरे कृष्ण मंत्र का जाप करो और नृत्य करो परमानंद में । केवल यही यज्ञ है ।

तो राज्यम सुरानाम अपि चाधिपत्यम (भ गी २।८) पूर्व में कई राक्षस थे जिन्होंने देवताओं के राज्य पर विजय प्राप्त की । राज्यम सुरानाम अपि चाधिपत्यम । जैसे हिरण्यकशिपु की तरह । यहां तक कि उसने इंद्र के राज्य पर अपना अधिकार फैल दिया । इन्द्रारि व्याकुलम् लोकम् मृदयन्ति युगे युगे (श्री भ १।३।२८) । इन्द्रारि । इन्द्रारि का मतलब है इंद्र का दुश्मन । इंद्र स्वर्गीय ग्रहों के राजा हैं, और दुश्मन का मतलब है राक्षस । देवता और उनके दुश्मन, राक्षस । जैसे हमारे कई दुश्मन हैं । क्योंकि हम हरे कृष्ण मंत्र का जाप कर रहे हैं, कई आलोचक और इतने सारे दुश्मन भी हैं । वे पसंद नहीं करते । तो यह हमेशा होता है । अब संख्या बढ़ गई है । पूर्व में, कुछ थे । अब कई हैं । तो इसलिए इन्द्रारि व्याकुलम लोकम । जब ये राक्षस, जनसंख्या, राक्षसी जनसंख्या बढ़ जाती है, तो व्याकुलम लोकम । लोग हैरान हो जाते हैं । इन्द्रारि व्याकुलम् लोकम् मृदयन्ति युगे युगे । तो, जब उस समय, कृष्ण आते हैं । एते चाम्श-कला: पुमस: कृष्णस तु भगवान स्वयम (श्री भ १।३।२८) । कृष्ण और भगवान के अवतार के नामों की सूची भी है । सभी नामों का उल्लेख करने के बाद,भगवान बताते हैं कि " यहॉ सूचित नामों में, वे कृष्ण के आंशिक प्रतिनिधित्व हैं । लेकिन यह नाम, कृष्ण है । वे असली, मूल व्यक्तित्व हैं ... " कृष्णस तू भगवान स्वयम । और वे आते हैं ... इन्द्रारि व्याकुलम लोके । जब लोग बहुत ज्यादा राक्षसों के हमले से शर्मिंदा हो जाते हैं, वे आते हैं । और वे भी पुष्टि करते हैं । यह शास्त्र है । एक शास्त्र कहता है कि वह इस स्थिति में आते हैं । और कृष्ण कहते हैं: "हाँ, यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर भवति भारत.... तदात्मानम सृजामि अहम : (भ गी ४।७) उस समय, मैं अाता हूँ ।"

तो इस कलियुग में, लोग इतने परेशान हैं । इसलिए, कृष्ण उनके नाम के रूप में आए हैं, हरे कृष्ण । कृष्ण व्यक्तिगत रूप से नहीं आए हैं, लेकिन उनके नाम के रूप में । लेकिन क्योंकि कृष्ण पूर्ण हैं, उनके नाम में और उनमें कोई अंतर नहीं है । अभिन्नत्वान नाम नामिनो: (चै च मध्य १७।१३३) नामा-चिंतामणि कृष्ण-चैतन्य-रस-विग्रह पूर्ण: शुद्धो नित्य-मुकत: नाम पूर्ण है । जैसे कि कृष्ण पूर्ण हैं, पूर्ण, इसी तरह, कृष्ण का नाम भी पूर्ण है, पूर्ण । शु्ध ।यह भौतिक बातें नहीं है । पूर्ण: शुद्धो नित्य: । अनन्त । जैसे श्री कृष्ण अनन्त हैं, उनका नाम भी अनन्त है । पूर्ण: शुद्धो नित्य-मुकत: । हरे कृष्ण मंत्र के जप में कोई भौतिक अवधारणा नहीं है । अभिन्नत्वा नाम-नामिनो: । नाम, प्रभु अौर पवित्र नाम, वे हैं अभिन्न, समान । तो हम खुश नहीं हो सकते हैं ... राज्यम सुरानाम अपि चधिपत्यम (भ गी २।८) । अगर हमें देवताअों का राज्य भी मिल जाए, असप्तय, किसी भी प्रतिद्वंद्वी के बिना फिर भी हम खुश नहीं हो सकते हैं जब तक भौतिक अवधारणा है हममे । यह संभव नहीं है । यही इस श्लोक में विस्तार से बताया गया है । बहुत बहुत धन्यवाद । बस ।