HI/Prabhupada 0445 - यह एक फैशन बन गया है, हर किसी को नारायणा के बराबर करना: Difference between revisions
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प्रद्युम्न: अनुवाद - "भाग्य की देवी, | प्रद्युम्न: अनुवाद - "भाग्य की देवी, लक्ष्मीजी, को भगवान के सामने जाने का अनुरोध किया वहॉ मौजूद देवताअों नें, जो डर की वजह से ऐसा नहीं कर सके । लेकिन उन्होंने भी कभी नहीं देखा था भगवान का ऐसे एक अद्भुत और असाधारण रूप, और इसलिए वे भी उनके निकट नहीं जा सकी ।" | ||
प्रभुपाद: | प्रभुपाद: | ||
: | :साक्षात श्री: प्रेशिता देवैर | ||
:दृष्टवा तम् महद अदभुतम | :दृष्टवा तम् महद अदभुतम | ||
:अदृशटाश्रुत | :अदृशटाश्रुत पुर्वत्वात | ||
:सा नोपेयाय शंकिता | :सा नोपेयाय शंकिता | ||
([[Vanisource:SB 7.9.2|श्रीमद भागवतम ७.९.२]]) | |||
तो श्री, | तो श्री, लक्ष्मी, वह नारायण के साथ हमेशा रहती हैं, भगवान । लक्षमी-नारायण । जहाँ नारायण हैं, वहाँ लक्ष्मी है । ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशस: श्रीय: (विष्णु पुराण ६.५.४७) । श्रीय: । तो भगवान, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, छह ऐश्वर्यों से हमेशा पूर्ण हैं: ऐश्वर्य, धन; समग्रस्य, पूर्ण धन... कोई भी उनके साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता है । यहाँ भौतिक दुनिया में प्रतिस्पर्धा है । तुम्हारे पास एक हजार है, मेरे पास है, एक और आदमी के पास तीन हजार या तीस लाख है । कोई नहीं कह सकता है, "यहाँ अंत है 'मुझे सब पैसे मिल गए हैं' ।" नहीं, यह संभव नहीं है । प्रतियोगिता होनी चाहिए । सम उर्ध्व । सम का अर्थ है "बराबर" और उर्ध्व का अर्थ है "बेहतर | " तो कोई भी नारायण के साथ बराबरी नहीं कर सकता है, और कोई भी नारायण से बड़ा नहीं हो सकता है । यह आजकल एक फैशन बन गया है कि दरिद्र-नारायण । नहीं । दरिद्र नारायण नहीं हो सकता है, न तो नारायण दरिद्र हो सकते हैं । क्योंकि नारायण हमेशा श्री, लक्ष्मीजी के साथ होते हैं । वह कैसे दरिद्र हो सकते हैं ? ये सब मूर्ख निर्मित कल्पनाऍ हैं, अपराध । | ||
:यस तु नारायणम देवम | :यस तु नारायणम देवम | ||
: | :ब्रह्मा-रुद्रादि-दैवतै: । | ||
:समत्वेन | :समत्वेन विक्षेत | ||
:स | :स पाषंडी भवेद ध्रुवम | ||
:( | :([[Vanisource:CC Madhya 18.116|चैतन्य चरितामृत मध्य १८.११६]]) । | ||
शास्त्र कहते हैं, यस तु | शास्त्र कहते हैं, यस तु नारायणम देवम । नारायण, परम भगवान ... ब्रह्म-रुद्रादि दैवतै: । दरिद्र की क्या बात करें, अगर तुम बड़े, बड़े देवताओं के साथ नारायण की बराबरी करते हो, ब्रह्मा की तरह या भगवान शिव की तरह, अगर तुम देखते हो कि "नारायण, भगवान ब्रह्मा या भगवान शिव के समान हैं," समत्वेन विक्षेत स पाषंडी भवेद ध्रुवम, तुरंत वह एक पाषंडी है । पाषंडी का मतलब है सबसे नीच । यह शास्त्र की आज्ञा है । यस तु नारायणम देवम ब्रह्मा-रुद्रादि-दैवतै: समत्वेन । तो यह एक फैशन बन गया है, हर किसी को नारायण के बराबर करना । तो इस तरह से भारत की संस्कृति ध्वस्त हो गई है । नारायण की बराबरी नहीं हो सकती । नारायण व्यक्तिगत रूप से भगवद गीता में कहते हैं, मत्त: परतरम नान्यत किन्चिद अस्ति धनन्जय ([[HI/BG 7.7|भ.गी. ७.७]]) । | ||
: | एक और शब्द का इस्तेमाल किया जाता है: असमौर्ध्व । कोई भी नारायण के साथ बराबर नही हो सकता है । विष्णु-तत्त्व । नहीं । अोम तद विष्णु परमम पदम् सदा पश्यन्ति सूरय: (ऋग्वेद १.२२.२०) । यह ऋग मंत्र है । विष्णु परमम पदम । भगवान अर्जुन द्वारा संबोधित किए जाते हैं, परम ब्रह्म परम धाम पवित्रम परमम भवान ([[HI/BG 10.12-13|भ.गी. १०.१२]]) | परमम भवान । तो यह पाषंडी कल्पना आध्यात्मिक जीवन में हमारी उन्नति को मार देगी । मायावाद । मायावाद । तो इसलिए चैतन्य महाप्रभु नें मायावादियों के साथ संबद्ध रखने के लिए सख्ती से मना किया है । मायावादी भाष्य शुनिले होय सर्व-नाश ([[Vanisource:CC Madhya 6.169|चरिता चरितामृत मध्य ६.१६९]]): "जो कोई भी मायावादी के साथ जुड़ा हुआ है, उसका आध्यात्मिक जीवन समाप्त हो गया है ।" सर्व-नाश । मायावादी हय कृष्णे अपराधि । | ||
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एक श्री नहीं, | तुम्हे बहुत, बहुत सावधान रहना चाहिए इन मायावादी दुष्टों से बचने के लिए । ऐसी बात नहीं हो सकती है जैसे, "नारायण दरिद्र बन गए हैं ।" यह असंभव है । तो नारायण हमेशा साक्षात श्री: के साथ है । श्री, विशेष रूप से यहाँ, श्री, लक्षमीजी का नाम लिया गया है, कि वे लगातार नारायण के साथ जुड़े हुए हैं । यह श्री का विस्तार वैकुण्ठ लोक में है । लक्ष्मी-सहस्र शत-सम्भ्रम सेव्यमानम । | ||
:चिंतामणि प्रकर-सद्मशु कल्प वृक्ष | |||
:लक्षावृतेशु सुरभीर अभीपालयन्तम | |||
:लक्ष्मी-सहस्र शत-सम्भ्रम सेव्यमानम | |||
:गोविन्दम आदि-पुरुषम तम अहम भजामि | |||
:(ब्रह्मसंहिता ५.२९) | |||
एक श्री नहीं, लक्ष्मी, लेकिन लक्ष्मी-सहस्र शत । और वे सेवा कर रही हैं भगवान की, सम्भ्रम सेव्यमानम । हम लक्षमीजी को प्रार्थना कर रहे हैं सम्भ्रम के साथ, "माँ, मुझे थोड़ा पैसा दो । मुझे थोड़ी कृपा दो, ताकि मैं खुश हो सकूँ ।" हम श्री की पूजा कर रहे हैं । फिर भी, वह नहीं रहती हैं, श्री | श्री का एक और नाम है चंचला । चंचला, वे इस भौतिक संसार में हैं । आज मैं करोड़पति हो सकता हूँ कल मैं गली में भिखारी हो सकता हूँ । क्योंकि हर संपन्नता पैसे पर निर्भर करती है । इसलिए पैसा, यहाँ कोई नहीं तय कर सकता है । यह संभव नहीं है । वह श्री जो इतनी चंचल हैं, वे सम्भ्रम के साथ भगवान की पूजा कर रहे हैं, सम्मान के साथ । | |||
यहाँ हम सोच रहे हैं "लक्ष्मी दूर न चली जाए, " लेकिन वहाँ, श्री सोच रही हैं, "कृष्ण दूर न चले जाऍ ।" यह अंतर है । यहाँ हम डरते हैं कि लक्ष्मी किसी भी क्षण दूर न चली जाए, अौर वे कृष्ण से दूर जाने से डरते हैं । यह अंतर है । तो इस तरह के कृष्ण, ऐसे नारायण, कैसे वे दरिद्र हो सकते हैं? यह सब कल्पना है । | |||
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Latest revision as of 17:39, 1 October 2020
Lecture on SB 7.9.2 -- Mayapur, February 12, 1977
प्रद्युम्न: अनुवाद - "भाग्य की देवी, लक्ष्मीजी, को भगवान के सामने जाने का अनुरोध किया वहॉ मौजूद देवताअों नें, जो डर की वजह से ऐसा नहीं कर सके । लेकिन उन्होंने भी कभी नहीं देखा था भगवान का ऐसे एक अद्भुत और असाधारण रूप, और इसलिए वे भी उनके निकट नहीं जा सकी ।"
प्रभुपाद:
- साक्षात श्री: प्रेशिता देवैर
- दृष्टवा तम् महद अदभुतम
- अदृशटाश्रुत पुर्वत्वात
- सा नोपेयाय शंकिता
तो श्री, लक्ष्मी, वह नारायण के साथ हमेशा रहती हैं, भगवान । लक्षमी-नारायण । जहाँ नारायण हैं, वहाँ लक्ष्मी है । ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशस: श्रीय: (विष्णु पुराण ६.५.४७) । श्रीय: । तो भगवान, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, छह ऐश्वर्यों से हमेशा पूर्ण हैं: ऐश्वर्य, धन; समग्रस्य, पूर्ण धन... कोई भी उनके साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता है । यहाँ भौतिक दुनिया में प्रतिस्पर्धा है । तुम्हारे पास एक हजार है, मेरे पास है, एक और आदमी के पास तीन हजार या तीस लाख है । कोई नहीं कह सकता है, "यहाँ अंत है 'मुझे सब पैसे मिल गए हैं' ।" नहीं, यह संभव नहीं है । प्रतियोगिता होनी चाहिए । सम उर्ध्व । सम का अर्थ है "बराबर" और उर्ध्व का अर्थ है "बेहतर | " तो कोई भी नारायण के साथ बराबरी नहीं कर सकता है, और कोई भी नारायण से बड़ा नहीं हो सकता है । यह आजकल एक फैशन बन गया है कि दरिद्र-नारायण । नहीं । दरिद्र नारायण नहीं हो सकता है, न तो नारायण दरिद्र हो सकते हैं । क्योंकि नारायण हमेशा श्री, लक्ष्मीजी के साथ होते हैं । वह कैसे दरिद्र हो सकते हैं ? ये सब मूर्ख निर्मित कल्पनाऍ हैं, अपराध ।
- यस तु नारायणम देवम
- ब्रह्मा-रुद्रादि-दैवतै: ।
- समत्वेन विक्षेत
- स पाषंडी भवेद ध्रुवम
- (चैतन्य चरितामृत मध्य १८.११६) ।
शास्त्र कहते हैं, यस तु नारायणम देवम । नारायण, परम भगवान ... ब्रह्म-रुद्रादि दैवतै: । दरिद्र की क्या बात करें, अगर तुम बड़े, बड़े देवताओं के साथ नारायण की बराबरी करते हो, ब्रह्मा की तरह या भगवान शिव की तरह, अगर तुम देखते हो कि "नारायण, भगवान ब्रह्मा या भगवान शिव के समान हैं," समत्वेन विक्षेत स पाषंडी भवेद ध्रुवम, तुरंत वह एक पाषंडी है । पाषंडी का मतलब है सबसे नीच । यह शास्त्र की आज्ञा है । यस तु नारायणम देवम ब्रह्मा-रुद्रादि-दैवतै: समत्वेन । तो यह एक फैशन बन गया है, हर किसी को नारायण के बराबर करना । तो इस तरह से भारत की संस्कृति ध्वस्त हो गई है । नारायण की बराबरी नहीं हो सकती । नारायण व्यक्तिगत रूप से भगवद गीता में कहते हैं, मत्त: परतरम नान्यत किन्चिद अस्ति धनन्जय (भ.गी. ७.७) ।
एक और शब्द का इस्तेमाल किया जाता है: असमौर्ध्व । कोई भी नारायण के साथ बराबर नही हो सकता है । विष्णु-तत्त्व । नहीं । अोम तद विष्णु परमम पदम् सदा पश्यन्ति सूरय: (ऋग्वेद १.२२.२०) । यह ऋग मंत्र है । विष्णु परमम पदम । भगवान अर्जुन द्वारा संबोधित किए जाते हैं, परम ब्रह्म परम धाम पवित्रम परमम भवान (भ.गी. १०.१२) | परमम भवान । तो यह पाषंडी कल्पना आध्यात्मिक जीवन में हमारी उन्नति को मार देगी । मायावाद । मायावाद । तो इसलिए चैतन्य महाप्रभु नें मायावादियों के साथ संबद्ध रखने के लिए सख्ती से मना किया है । मायावादी भाष्य शुनिले होय सर्व-नाश (चरिता चरितामृत मध्य ६.१६९): "जो कोई भी मायावादी के साथ जुड़ा हुआ है, उसका आध्यात्मिक जीवन समाप्त हो गया है ।" सर्व-नाश । मायावादी हय कृष्णे अपराधि ।
तुम्हे बहुत, बहुत सावधान रहना चाहिए इन मायावादी दुष्टों से बचने के लिए । ऐसी बात नहीं हो सकती है जैसे, "नारायण दरिद्र बन गए हैं ।" यह असंभव है । तो नारायण हमेशा साक्षात श्री: के साथ है । श्री, विशेष रूप से यहाँ, श्री, लक्षमीजी का नाम लिया गया है, कि वे लगातार नारायण के साथ जुड़े हुए हैं । यह श्री का विस्तार वैकुण्ठ लोक में है । लक्ष्मी-सहस्र शत-सम्भ्रम सेव्यमानम ।
- चिंतामणि प्रकर-सद्मशु कल्प वृक्ष
- लक्षावृतेशु सुरभीर अभीपालयन्तम
- लक्ष्मी-सहस्र शत-सम्भ्रम सेव्यमानम
- गोविन्दम आदि-पुरुषम तम अहम भजामि
- (ब्रह्मसंहिता ५.२९)
एक श्री नहीं, लक्ष्मी, लेकिन लक्ष्मी-सहस्र शत । और वे सेवा कर रही हैं भगवान की, सम्भ्रम सेव्यमानम । हम लक्षमीजी को प्रार्थना कर रहे हैं सम्भ्रम के साथ, "माँ, मुझे थोड़ा पैसा दो । मुझे थोड़ी कृपा दो, ताकि मैं खुश हो सकूँ ।" हम श्री की पूजा कर रहे हैं । फिर भी, वह नहीं रहती हैं, श्री | श्री का एक और नाम है चंचला । चंचला, वे इस भौतिक संसार में हैं । आज मैं करोड़पति हो सकता हूँ कल मैं गली में भिखारी हो सकता हूँ । क्योंकि हर संपन्नता पैसे पर निर्भर करती है । इसलिए पैसा, यहाँ कोई नहीं तय कर सकता है । यह संभव नहीं है । वह श्री जो इतनी चंचल हैं, वे सम्भ्रम के साथ भगवान की पूजा कर रहे हैं, सम्मान के साथ ।
यहाँ हम सोच रहे हैं "लक्ष्मी दूर न चली जाए, " लेकिन वहाँ, श्री सोच रही हैं, "कृष्ण दूर न चले जाऍ ।" यह अंतर है । यहाँ हम डरते हैं कि लक्ष्मी किसी भी क्षण दूर न चली जाए, अौर वे कृष्ण से दूर जाने से डरते हैं । यह अंतर है । तो इस तरह के कृष्ण, ऐसे नारायण, कैसे वे दरिद्र हो सकते हैं? यह सब कल्पना है ।