HI/Prabhupada 0446 - तो ऐसा करने की, नारायण से लक्ष्मी को अलग करने की, कोशिश मत करो
Lecture -- Seattle, October 2, 1968
तो साक्षात श्री । वे हमेशा जुड़ी हुई हैं । अगर कोई भी नारायण से श्री को अलग करने की कोशिश करता है, तो वह परास्त किया जाएगा । उदाहरण रावण है । रावण राम से लक्षमी को अलग करना चाहता था । यह प्रयास इतना खतरनाक है कि रावण बजाय खुश होने के , ... वह तथाकथित खुश था, भौतिक भव्यता । लेकिन जैसे ही उसने नारायण को लक्षमी से अलग किया, वह अपने दोस्तों के साथ परास्त हो गया । तो ऐसा करने की कोशिश मत करो, नारायण से लक्षमी को अलग करना । वे अलग नहीं की जा सकती हैं । लेकिन अगर कोई भी यह प्रयास करता है , वह बर्बाद हो जाएगा । वह बर्बाद हो जाएगा । उदाहरण रावण है । तो वर्तमान समय में लोगों बहुत ज्यादा शौकीन हैं श्री के, पैसा । श्री- एश्वर्य । श्री- एश्वर्य । श्री- एश्वर्य प्रजेपसव: । सामान्य लोग, वे श्री चाहते हैं, पैसा, या सौंदर्य, खूबसूरत औरत । श्री- एश्वर्य : पैसा, धन । श्री- एश्वर्य प्रजेपसव: प्रजा । प्रजा का मतलब है परिवार, समाज, पैसा । वे चाहते हैं । तो श्री को हमेशा तलाशा जाता है, उत्कंठा होती है। लेकिन अकेले श्री को रखने की कोशिश मत करो । तो तुम बर्बाद हो जाअोगे । यह निर्देश है । तुम अकेले श्री को रखने की कोशिश मत करो । नारायण के साथ हमेशा रखो । तो फिर तुम खुश हो जाअोगे । नारायण को रखो । तो जो अमीर हैं, धनी हैं, धन, उन्हे अपने पैसे के साथ भी नारायण की पूजा करनी चाहिए । पैसा खर्च करो । पैसा नारायण की सेवा के लिए है । तो अगर तुम्हारे पास पैसा है, रावण की तरह इसे खराब मत करो, लेकिन कृष्ण की सेवा में संलग्न करो । अगर तुम्हारे पास पैसा है, तो उसे खर्च करो बहुत महंगे मंदिर के लिए, लक्षमी-नारायण स्थापित करने के लिए, राधा कृष्ण, सीता राम, उस तरह । अन्य तरीके से अपने पैसे को खराब मत करो । तो फिर तुम हमेशा समृद्ध रहोगे । तुम गरीब कभी नहीं होगे । लेकिन जैसे ही तुम नारायण को धोखा देने की कोशिश करते हो, कि "मैंने आपकी लक्षमी ले ली है ।" अब आप भूखे रहो । यही नीति बहुत बुरी है । तो वैसे भी, श्री जहाँ हैं, नारायण वहाँ हैं, और नारायण जहाँ हैं, श्री वहॉ हैं । इसलिए नारायण और श्री । न्रसिंह-देव नारायण हैं, अौर लक्षमी, वे लगातार... इसलिए जब देवताओं नें देखा कि "नारायण, न्रसिंह-देव बहुत, बहुत गुस्से में थे । कोई भी उन्हें शांत नहीं कर पा रहा था ।" तो उन्होंने सोचा कि लक्षंीजि व्यक्तिगत सहयोगी हैं, लगातार नारायण के साथ, तो उन्हें जाने दो और शांत करने दो ।" यहाँ यह कहा गया है । साक्षात श्री: प्रेशिता देवैर देवता, भगवान ब्रह्मा, भगवान शिव और दूसरे, उन्होंने अनुरोध किया, "माँ, अाप अपने पति को शांत करने का प्रयास करें । यह हमारे द्वारा संभव नहीं है ।" लेकिन वह भी डर गई । वह भी डर गई । साक्षात श्री: प्रेशिता देवैर द्रष्टवा तम महद अद्भुतम । वे जानती हैं कि, "मेरे पति न्रसिंह-देव के रूप में प्रकट हुए हैं " लेकिन क्योंकि भगवान का यह अद्भुत रूप, इतना भयानक था उनकी हिम्मत नहीं हुई उनके सामने आने की । क्यों? अब, अदृष्टश्रुत-पूरवत्वात : क्योंकि वे भी नहीं जानती थीं कि उनके पति न्रसिंह-देव के रूप में अाऍगे । यह न्रसींह-देव का विशेष रूप से हिरण्यकश्यप के लिए अपनाया गया था । यह सर्व-शक्तिशाली है । हिरण्यकश्यप नें भगवान ब्रह्मा से आशीर्वाद लिया कि कोई देवता, यक्ष, उसे मार नहीं सकता है; कोई आदमी उसे मार नहीं सकता है, कोई जानवर उसे मार नहीं सकता है , इस तरह से । परोक्ष रूप से उसने योजना बनाई कि कोई भी उसे मार नहीं सकता है । और क्योंकि वह सब से पहले अमर बनना चाहता था, इसलिए भगवान ब्रह्मा नें कहा की, " मैं अमर नहीं हूँ । मैं तुम्हें कैसे बनने का आशीर्वाद दे सकता हूँ ...? यह संभव नहीं है ।" तो यह राक्षस, असुर, वे बहुत बुद्धिमान होते हैं, दुशक्रतिन । बुद्धिमान - लेकिन पापी गतिविधियों के लिए । यही राक्षस की पहचान है । तो उसने कुछ योजना बनाई कि "परोक्ष रूप से में भगवान ब्रह्मा से आशीर्वाद ले लूँ्गा, इस तरह से कि मैं अमर रहूँगा । " तो ब्रह्मा का वादा रखने के लिए, नारायण अवतरित हुए : न्रसिंह-देव के रूप में: आधा शेर और आधा आदमी इसलिए अदृष्टाश्रुत-पूरवा । यहां तक कि लक्षमी नें प्रभु का यह रूप नही देखा, आधा आदमी, आधा शेर । यह नारायण हैं, या कृष्ण, सर्व शक्तिशाली । वे कोई भी रूप ग्रहण कर सकते हैं । यही ... अदृष्टाश्रुत-पूर्वा । कभी नहीं देखा । हालांकि वे नारायण के साथ जुड़ी हैं, लेकिन उन्होंने नारायण का यह अद्भुत रूप कभी नहीं देखा है । इसलिए यह कहा जाता है, अदृष्टाश्रुत-पूर्वत्तव्त सा न उपेयाय शंकिता । लक्षमीजी पवित्र हैं । तो शंकित: वह भयभीत थीं, "हो सकता है कि वह अलग व्यक्ति हैं ।" और वे पवित्र हैं, सबसे पवित्र । वह कैसे अलग व्यक्ति के साथ मिश्रण कर सकती हैं? इसलिए शंकित । इस शब्द का इस्तेमाल किया जाता है, शंकित । हालांकि उन्हे सब कुछ पता होता है, फिर भी, वह सोच रही थीं, "शायद मेरे पति नहीं हो सकते हैं ।" यही आदर्श पवित्र है, शुद्धता, कि यहां तक कि लक्षमीजी, विष्णु के बारे में शक कर रही हैं, उन्होंने बात नहीं की, समीप नहीं गइ । शंकित। यह लक्षमीजी का एक और गुण है । वह डर गई है, "वे नारायण नहीं हो सकता हैं," क्योंकि उन्होंने वह पति के इस तरह के अद्भुत रूप अनुभव कभी नहीं किया है, आधा शेर और आधा मनुष्य का । तो अदृष्टाश्रुत-पूर्वत्तव्त सा नोपेयाय शंकिता ।