HI/Prabhupada 0447 - सावधान रहो इन अभक्तों से संग न करके जो भगवान के बारे में कल्पना करते हैं: Difference between revisions

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तो अगर हम लक्षमी-नारायण के चरित्र का अध्ययन करें, तो हम दरिद्र-नारायण या यह या वह जैसे शब्दों का निर्माण करना हम बंद करेंगे । नहीं । इसलिए हमें इस पाशंडि का अनुसरन नहीं करना चाहिए ।
तो अगर हम लक्ष्मी-नारायण के चरित्र का अध्ययन करें, तो हम दरिद्र-नारायण या यह या वह जैसे शब्दों का निर्माण करना बंद कर देंगे । नहीं । इसलिए हमें इस पाषंडी का अनुसरन नहीं करना चाहिए ।  


:यस तु नारायणम् देवम्ब्र
:यस तु नारायणम देवम्
:ह्मारुद्रादि-दैवतै:
:ब्रह्मारुद्रादि-दैवतै:  
:समत्वेन विक्शेत
:समत्वेन विक्षेत
:स पाशंडि भवेद ध्रुवम
:स पाषंडी भवेद ध्रुवम  
:([[Vanisource:CC Madhya 18.116|चैच मध्य १८।११६]])
:([[Vanisource:CC Madhya 18.116|चैतन्य चरितामृत मध्य १८.११६]])  


पाशंडि का मतलब है, शैतान, या अभक्त । अभक्त हिना चर । सावधान रहो इन अभक्तों से संग न करके जो भगवान के बारे में कल्पना करते हैं । वे वास्तव में भगवान में विश्वास नहीं करते । ये पाशंडि का मतलब है जो भगवान में विश्वास नहीं करते हैं । वे सोचते हैं कि कोई भगवान नहीं है, लेकिन वे केवल कहते हैं, "हाँ, भगवान है, लेकिन भगवान का कोई सिर नहीं है, कोई पूंछ नहीं है, कोई मुंह नहीं है, कुछ भी नहीं है ।" और तो फिर भगवान क्या हैं? लेकिन ये दुष्ट कहते हैं निराकार । निराकार का मतलब है कोई भगवान नहीं है । स्पष्ट रूप से कहो कि कोई भगवान नहीं है । क्यों तुम कहते हो, "हाँ, भगवान है, लेकिन उनका कोई सिर नहीं है, कोई पूंछ नहीं है, कोई पैर नहीं है, कोई हाथ नहीं है ? तो क्या है? तो यह एक और धोखा है । जो लोग नास्तिक हैं, वे साफ साफ केहते हैं "मैं भगवान में विश्वास नहीं करता हूँ । नहीं है ..." यह हम समझ सकते हैं । लेकिन ये दुष्ट, वे कहते हैं "भगवान हैं, लेकिन निराकार ।" निराकार का मतलब है कोई भगवान नहीं है , लेकिन कभी कभी निराकार शब्द का प्रयोग किया जाता है । लेकिन उस निराकार का मतलब यह नहीं है कि भगवान का कोई अाकार नहीं है । यह निराकार का मतलब है कि यह भौतिक अाकार नहीं । ईष्वर: परम: कृष्ण:-सच-चिद-अानन्द विग्र: ( ब्र स ५।१) । उनका शरीर है सच-चिद-अानन्द । यह इस भौतिक दुनिया के भीतर देखना पूरी तरह से असंभव है । हमारा शरीर सत नहीं है, यह असत है । यह शरीर जो अब मुझे मिला है या तुम्हे मिला है, यह रहेगा जब तक यह जीवन ... अौर जब यह समाप्त होता है, यह हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है । तुम्हे फिर से यह शरीर कभी नहीं मिलेगा । इसलिए असत । लेकिन कृष्ण का शरीर इस तरह का नहीं है । कृष्ण का शरीर वही है, सत, हमेशा एक ही । कृष्ण का दूसरा नाम है नराकृति । हमारा शरीर कृष्ण के शरीर की नकल है, न कि श्री कृष्ण का शरीर हमाते शरीर की नकल है । नहीं । कृष्ण के पास उनका शरीर है, नराकृति, नर-वापु । ये बातें हैं । लेकिन वह वापु इस असत की तरह नहीं है । हमारा शरीर असत है । यह नहीं रहेगा । उनका शरीर है सत-चिद-आनंद । हमारा शरीर असत, अचित, निरानन्द - बिलकुल विपरीत । यह नहीं रहेगा, और ज्ञान नहीं है, अचित, और कोई आनंद नहीं है । हमेशा हम दुखी हैं । तो निराकार का मतलब है इस तरह का शरीर नहीं । उनका शरीर अलग है । आनंद निन्माया रस प्रतिभाविताभिस ( ब्र स ५।३७) । अानन्द चिन्माया । अंगानि यस्य सकलेन्द्रिय वृत्ति मंति पश्यन्ति पान्ति कलयन्ति चिरम जगन्ति ( ब्र स ५।३२) उनकी अंगानि, अंगानि, शरीर के कुछ हिस्से, वर्णित है, सकलेन्द्रिय-वृत्ति मन्ति । मैं अपनी आँखों से देख सकता हूँ । मेरे, मेरेा यह विशेष कार्य , शरीर के इस हिस्सा का काम है देखना । लेकिन कृष्ण: सकलेन्द्रिय वृत्ति मन्ति- वे न केवल देख सकते हैं, लेकिन वे खा भी सकते हैं । यही तात्पर्य है । देख कर, हम नहीं खा सकते हैं, लेकिन जो कुछ भी हम प्रदान करते हैं, अगर कृष्ण देखते हैं, वे खाते भी हैं । अंगानि यस्य सकलेन्द्रिय वृत्ति मन्ति । तो कैसे हम अपने शरीर के साथ कृष्ण के शरीर की तुलना कर सकते हैं? लेकिन अवजानन्ति माम मूढा: ([[Vanisource:BG 9.11|भ गी ९।११]]) जो दुष्ट हैं, वे सोचते हैं कि, "कृष्ण के दो हाथ हैं, दो पैर हैं, इसलिए मैं भी कृष्ण हूँ । मैं भी हूँ ।" तो इन दुष्टों, पाशंडि द्वारा गुमराह मत हो । शास्त्र में जैसा है वैसे ही लो, अधिकृत सूत्रों से यह जानो, और खुश रहो।
पाषंडी का मतलब है, शैतान, या अभक्त । अभक्ता हिन चर । सावधान रहो की इन अभक्त, जो भगवन के बारे में कल्पना करते हैं, उनका संग ना हो । वे वास्तव में भगवान में विश्वास नहीं करते । ये पाषंडी का मतलब है जो भगवान में विश्वास नहीं करते हैं । वे सोचते हैं कि कोई भगवान नहीं है, लेकिन वे केवल कहते हैं, "हाँ, भगवान है, लेकिन भगवान का कोई सिर नहीं है, कोई पूंछ नहीं है, कोई मुंह नहीं है, कुछ भी नहीं है ।" और तो फिर भगवान क्या हैं? लेकिन ये दुष्ट कहते हैं निराकार । निराकार का मतलब है कोई भगवान नहीं है । स्पष्ट रूप से कहो कि कोई भगवान नहीं है । क्यों तुम कहते हो, "हाँ, भगवान है, लेकिन उनका कोई सिर नहीं है, कोई पूंछ नहीं है, कोई पैर नहीं है, कोई हाथ नहीं है ? तो क्या है? तो यह एक और धोखा है । जो लोग नास्तिक हैं, वे साफ साफ केहते हैं "मैं भगवान में विश्वास नहीं करता हूँ । नहीं है ..."  


बहुत बहुत धन्यवाद
यह हम समझ सकते हैं । लेकिन ये दुष्ट, वे कहते हैं "भगवान हैं, लेकिन निराकार ।" निराकार का मतलब है कोई भगवान नहीं है, लेकिन कभी कभी निराकार शब्द का प्रयोग किया जाता है । लेकिन उस निराकार का मतलब यह नहीं है कि भगवान का कोई अाकार नहीं है । यह निराकार का मतलब है कि यह भौतिक अाकार नहीं । ईश्वर: परम: कृष्ण:-सच-चिद-अानन्द विग्रह: (ब्रह्मसंहिता ५.१) । उनका शरीर है सच-चिद-अानन्द । यह इस भौतिक दुनिया के भीतर देखना पूरी तरह से असंभव है । हमारा शरीर सत नहीं है, यह असत है । यह शरीर जो अब मुझे मिला है या तुम्हे मिला है, यह रहेगा जब तक यह जीवन ... अौर जब यह समाप्त होता है, यह हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है । तुम्हे फिर से यह शरीर कभी नहीं मिलेगा । इसलिए असत । लेकिन कृष्ण का शरीर इस तरह का नहीं है । कृष्ण का शरीर वही है, सत, हमेशा एक ही । कृष्ण का दूसरा नाम है नराकृति । हमारा शरीर कृष्ण के शरीर की नकल है, न कि श्री कृष्ण का शरीर हमाते शरीर की नकल है । नहीं ।  


भक्त: जय श्रील प्रभुपाद!
कृष्ण के पास उनका शरीर है, नराकृति, नर-वपु । ये बातें हैं । लेकिन वह वपु इस असत की तरह नहीं है । हमारा शरीर असत है । यह नहीं रहेगा । उनका शरीर है सत-चिद-आनंद । हमारा शरीर असत, अचित, निरानन्द - बिलकुल विपरीत । यह नहीं रहेगा, और ज्ञान नहीं है, अचित, और कोई आनंद नहीं है । हमेशा हम दुखी हैं । तो निराकार का मतलब इस तरह का शरीर नहीं है । उनका शरीर अलग है । आनंद चिन्माया रस प्रतिभाविताभिस (ब्रह्मसंहिता ५.३७) । अानन्द चिन्माया । अंगानि यस्य सकलेन्द्रिय वृत्ति मंति पश्यन्ति पान्ति कलयन्ति चिरम जगन्ति (ब्रह्मसंहिता ५.३२) | उनकी अंगानि, अंगानि, शरीर के कुछ हिस्से, वर्णित है, सकलेन्द्रिय-वृत्ति मन्ति । मैं अपनी आँखों से देख सकता हूँ । मेरा, मेरा यह विशेष कार्य , शरीर के इस हिस्से का काम है देखना । लेकिन कृष्ण: सकलेन्द्रिय वृत्ति मन्ति- वे न केवल देख सकते हैं,  लेकिन वे खा भी सकते हैं । यही तात्पर्य है ।
 
देख कर, हम नहीं खा सकते हैं, लेकिन जो कुछ भी हम प्रदान करते हैं, अगर कृष्ण देखते हैं, वे खाते भी हैं । अंगानि यस्य सकलेन्द्रिय वृत्ति मन्ति । तो कैसे हम अपने शरीर के साथ कृष्ण के शरीर की तुलना कर सकते हैं? लेकिन अवजानन्ति माम मूढा: ([[HI/BG 9.11|भ.गी. ९.११]]) | जो दुष्ट हैं, वे सोचते हैं कि, "कृष्ण के दो हाथ हैं, दो पैर हैं, इसलिए मैं भी कृष्ण हूँ । मैं भी हूँ ।" तो इन दुष्ट, पाषंडी, द्वारा गुमराह मत हो । शास्त्र में जैसा है वैसे ही लो, अधिकृत सूत्रों से यह जानो, और खुश रहो । बहुत बहुत धन्यवाद । भक्त: जय श्रील प्रभुपाद!  
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Latest revision as of 17:39, 1 October 2020



Lecture on SB 7.9.2 -- Mayapur, February 12, 1977

तो अगर हम लक्ष्मी-नारायण के चरित्र का अध्ययन करें, तो हम दरिद्र-नारायण या यह या वह जैसे शब्दों का निर्माण करना बंद कर देंगे । नहीं । इसलिए हमें इस पाषंडी का अनुसरन नहीं करना चाहिए ।

यस तु नारायणम देवम्
ब्रह्मारुद्रादि-दैवतै:
समत्वेन विक्षेत
स पाषंडी भवेद ध्रुवम
(चैतन्य चरितामृत मध्य १८.११६)

पाषंडी का मतलब है, शैतान, या अभक्त । अभक्ता हिन चर । सावधान रहो की इन अभक्त, जो भगवन के बारे में कल्पना करते हैं, उनका संग ना हो । वे वास्तव में भगवान में विश्वास नहीं करते । ये पाषंडी का मतलब है जो भगवान में विश्वास नहीं करते हैं । वे सोचते हैं कि कोई भगवान नहीं है, लेकिन वे केवल कहते हैं, "हाँ, भगवान है, लेकिन भगवान का कोई सिर नहीं है, कोई पूंछ नहीं है, कोई मुंह नहीं है, कुछ भी नहीं है ।" और तो फिर भगवान क्या हैं? लेकिन ये दुष्ट कहते हैं निराकार । निराकार का मतलब है कोई भगवान नहीं है । स्पष्ट रूप से कहो कि कोई भगवान नहीं है । क्यों तुम कहते हो, "हाँ, भगवान है, लेकिन उनका कोई सिर नहीं है, कोई पूंछ नहीं है, कोई पैर नहीं है, कोई हाथ नहीं है ? तो क्या है? तो यह एक और धोखा है । जो लोग नास्तिक हैं, वे साफ साफ केहते हैं "मैं भगवान में विश्वास नहीं करता हूँ । नहीं है ..."

यह हम समझ सकते हैं । लेकिन ये दुष्ट, वे कहते हैं "भगवान हैं, लेकिन निराकार ।" निराकार का मतलब है कोई भगवान नहीं है, लेकिन कभी कभी निराकार शब्द का प्रयोग किया जाता है । लेकिन उस निराकार का मतलब यह नहीं है कि भगवान का कोई अाकार नहीं है । यह निराकार का मतलब है कि यह भौतिक अाकार नहीं । ईश्वर: परम: कृष्ण:-सच-चिद-अानन्द विग्रह: (ब्रह्मसंहिता ५.१) । उनका शरीर है सच-चिद-अानन्द । यह इस भौतिक दुनिया के भीतर देखना पूरी तरह से असंभव है । हमारा शरीर सत नहीं है, यह असत है । यह शरीर जो अब मुझे मिला है या तुम्हे मिला है, यह रहेगा जब तक यह जीवन ... अौर जब यह समाप्त होता है, यह हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है । तुम्हे फिर से यह शरीर कभी नहीं मिलेगा । इसलिए असत । लेकिन कृष्ण का शरीर इस तरह का नहीं है । कृष्ण का शरीर वही है, सत, हमेशा एक ही । कृष्ण का दूसरा नाम है नराकृति । हमारा शरीर कृष्ण के शरीर की नकल है, न कि श्री कृष्ण का शरीर हमाते शरीर की नकल है । नहीं ।

कृष्ण के पास उनका शरीर है, नराकृति, नर-वपु । ये बातें हैं । लेकिन वह वपु इस असत की तरह नहीं है । हमारा शरीर असत है । यह नहीं रहेगा । उनका शरीर है सत-चिद-आनंद । हमारा शरीर असत, अचित, निरानन्द - बिलकुल विपरीत । यह नहीं रहेगा, और ज्ञान नहीं है, अचित, और कोई आनंद नहीं है । हमेशा हम दुखी हैं । तो निराकार का मतलब इस तरह का शरीर नहीं है । उनका शरीर अलग है । आनंद चिन्माया रस प्रतिभाविताभिस (ब्रह्मसंहिता ५.३७) । अानन्द चिन्माया । अंगानि यस्य सकलेन्द्रिय वृत्ति मंति पश्यन्ति पान्ति कलयन्ति चिरम जगन्ति (ब्रह्मसंहिता ५.३२) | उनकी अंगानि, अंगानि, शरीर के कुछ हिस्से, वर्णित है, सकलेन्द्रिय-वृत्ति मन्ति । मैं अपनी आँखों से देख सकता हूँ । मेरा, मेरा यह विशेष कार्य , शरीर के इस हिस्से का काम है देखना । लेकिन कृष्ण: सकलेन्द्रिय वृत्ति मन्ति- वे न केवल देख सकते हैं, लेकिन वे खा भी सकते हैं । यही तात्पर्य है ।

देख कर, हम नहीं खा सकते हैं, लेकिन जो कुछ भी हम प्रदान करते हैं, अगर कृष्ण देखते हैं, वे खाते भी हैं । अंगानि यस्य सकलेन्द्रिय वृत्ति मन्ति । तो कैसे हम अपने शरीर के साथ कृष्ण के शरीर की तुलना कर सकते हैं? लेकिन अवजानन्ति माम मूढा: (भ.गी. ९.११) | जो दुष्ट हैं, वे सोचते हैं कि, "कृष्ण के दो हाथ हैं, दो पैर हैं, इसलिए मैं भी कृष्ण हूँ । मैं भी हूँ ।" तो इन दुष्ट, पाषंडी, द्वारा गुमराह मत हो । शास्त्र में जैसा है वैसे ही लो, अधिकृत सूत्रों से यह जानो, और खुश रहो । बहुत बहुत धन्यवाद । भक्त: जय श्रील प्रभुपाद!