HI/Prabhupada 0448 - हमें गुरु से, साधु से और शास्त्र से भगवान की शिक्षा लेना चाहिए: Difference between revisions

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प्रद्युम्न: अनुवाद - "इसके बाद भगवान ब्रह्मा नें प्रहलाद महाराज से अनुरोध किया जो उनके बहुत पास खड़े थे : मेरे प्यारे बेटे, भगवान न्रसिंह-देव तुम्हारे आसुरी पिता पर बेहद नाराज हैं । कृपया आगे जाअो और प्रभु को संतुष्ट करो ।"
प्रद्युम्न: अनुवाद - "इसके बाद ब्रह्माजी नें प्रहलाद महाराज से अनुरोध किया जो उनके बहुत पास खड़े थे: मेरे प्रिय पुत्र, भगवान नरसिंह-देव तुम्हारे आसुरी पिता पर बेहद नाराज हैं । कृपया आगे जाअो और प्रभु को संतुष्ट करो ।"  


प्रभुपाद:
प्रभुपाद:  


:प्रहरादम् प्रेशयाम अास
:प्रहरादम् प्रेशयाम अास  
:ब्रह्मावस्थितम अंतिके
:ब्रह्मावस्थितम अंतिके  
:तात प्रशम्योपेहि
:तात प्रशमयोपेहि
:स्व-पित्रे कुपितम् प्रभुम
:स्व-पित्रे कुपितम प्रभुम  
:([[Vanisource:SB 7.9.3|श्री भ ७।९।३]])
:([[Vanisource:SB 7.9.3|श्रीमद भागवतम ७.९.३]])  


तो न्रसिंह-देव बहुत, बहुत गुस्से में थे । अब पुरुषों का ये नास्तिक वर्ग, जो जानते नहीं है कि देवत्व के परम व्यक्तित्व की प्रकृति क्या है, वे कहते हैं, "भगवान को नाराज क्यों होना चाहिए ?" तो भगवान, क्यों उनको नाराज नहीं होना चाहिए? भगवान के पास सब कुछ होना आवश्यक है, अन्यथा कैसे वे भगवान पूर्ण हैं ? पूर्णम । क्रोध भी गुण है लक्षण है जीवित होने का । पत्थर नाराज नहीं होता, क्योंकि वह पत्थर है । लेकिन कोई भी प्राणी, वह नाराज हो जाता है । यह एक गुणवत्ता है । और क्यों भगवान को नाराज नहीं होना चाहिए? वे भगवान की कल्पना करते हैं, एसा नहीं है कि भगवान की वे कोई तथ्यात्मक अवधारणा रखते हैं । वे कल्पना करते हैं कि "भगवान एसा होगा । भगवान को अहिंसक होना चाहिए । भगवान को बहुत शांतिपूर्ण होना चाहिए ।" क्यों? कहाँ से गुस्सा आता है? यह परमेश्वर से आता है । अन्यथा क्रोध का कोई अस्तित्व नहीं है । सब कुछ है । जन्मादि अस्य यत: ([[Vanisource:SB 1.1.1|श्री भ १।१।१]]) । यह ब्रह्मण काी परिभाषा है । जो कुछ भी हमें अनुभव में मिला है और जो कुछ भी हमें अनुभव में नहीं मिला है .... हमें अनुभव में सब कुछ नहीं मिला है । जैसे न्रसिंह-देव के बारे में यह कहा जाता है कि लक्षमी को भी कोई अनुभव नहीं था, कि प्रभु आधा शेर, आधा आदमी बन सकते हैं । यहां तक ​​कि लक्षमी भी, तो दूसरों की बात क्या करें । लक्षमी, वे प्रभु की निरंतर साथी हैं । तो यह कहा जाता है, अश्रुत । वह क्या है? अदृष्ट । अदृष्ट अश्रुत पूर्वत्वात । वे भी डर गईं क्योंकि उन्होंने भी कभी नहीं देखा है, इस तरह का विशाल रूप, और आधा शेर, आधा आदमी । भगवान के कई रूप हैं : अद्वैत अच्युत अनादि अनंत-रूपं (ब्र स ५।३३) अनंत-रूपं, फिर भी, अद्वैत । तो भागवत में यह कहा जाता है कि भगवान के अवतार वास्तव में नदी या समुद्र की लहरों की तरह हैं । कोई भी गिन नहीं सकता है । तुम थक जाअोगे अगर लहरों की संख्या की गणना करना चाहोगे । यह असंभव है । तो भगवान के अवतार इनते हैं जितनी लहरें । तो तुम लहरों को गिन नहीं सकते, इसलिए तुम समझ नहीं सकते, कि कितने अवतार हैं उनके । यहां तक ​​कि लक्षमी भी, यहां तक ​​कि अनंतदेव, उन्हे नहीं पता है । तो हमारा अनुभव - बहुत सीमित है । क्यों हम कहें कि "भगवान के पास यह नहीं हो सकता है, भगवान के पास यह नहीं हो सकता है ..." ऐसे ? यह नास्तिकता है । वे अनुभाग बनाते हैं । वे कहते हैं ... यहां तक ​​कि हमारे तथाकथित वैदिक आर्य समाज में, वे ज़ोर देते हैं कि भगवान अवतार नहीं ले सकते हैं । क्यों? अगर भगवान सर्वशक्तिमान हैं, तो क्यों वे अवतार स्वीकार करने में सक्षम नहीं होंगे? इसलिए हम इन दुष्टों से भगवान का सबक नहीं लेना चाहिए । हमें गुरु से और साधु से, शास्त्र से भगवान का सबक लेना चाहिए - जिन्होंने भगवान कोदेखा है, तत्व-दर्शिन । तद विद्धि प्रनिपातेन परिप्रश्नेन सेवया, उपदेक्श्यन्ति तद ज्ञानम ([[Vanisource:BG 4.34|भ गी ४।३४]]) तद ज्ञानम का मतलब है आध्यात्मिक ज्ञान । तद विज्ञानम
तो नरसिंह-देव बहुत, बहुत क्रोधित थे । अब पुरुषों का ये नास्तिक वर्ग, जो जानते नहीं है कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का स्वभाव क्या है, वे कहते हैं, "भगवान को नाराज क्यों होना चाहिए ?" तो भगवान, क्यों उनको नाराज नहीं होना चाहिए? भगवान के पास सब कुछ होना आवश्यक है, अन्यथा कैसे वे पूर्ण भगवान हैं ? पूर्णम । क्रोध भी गुण है या लक्षण है जीवित होने का । पत्थर नाराज नहीं होता, क्योंकि वह पत्थर है । लेकिन कोई भी प्राणी, वह नाराज हो जाता है । यह एक गुण है । और क्यों भगवान को नाराज नहीं होना चाहिए? वे भगवान की कल्पना करते हैं, एसा नहीं है कि भगवान की वे कोई तथ्यात्मक अवधारणा रखते हैं । वे कल्पना करते हैं कि "भगवान ऐसे होंगे । भगवान को अहिंसक होना चाहिए । भगवान को बहुत शांतिपूर्ण होना चाहिए ।" क्यों? कहाँ से गुस्सा आता है? यह परमेश्वर से आता है । अन्यथा क्रोध का कोई अस्तित्व नहीं है । सब कुछ है ।  


:तद विज्ञानार्थम स गुरुम एवाभिगच्छेत
जन्मादि अस्य यत: ([[Vanisource:SB 1.1.1|श्रीमद भागवतम १.१.१]]) । यह ब्रह्म की परिभाषा है । जो कुछ भी हमें अनुभव में मिला है और जो कुछ भी हमें अनुभव में नहीं मिला है  .... हमें अनुभव में सब कुछ नहीं मिला है । जैसे नरसिंह-देव के बारे में यह कहा जाता है कि लक्ष्मी को भी कोई अनुभव नहीं था, कि प्रभु आधे शेर, आधे आदमी बन सकते हैं । यहां तक ​​कि लक्ष्मी भी, तो दूसरों की बात क्या करें । लक्ष्मी, वे प्रभु की शाश्वत साथी हैं । तो यह कहा जाता है, अश्रुत । वह क्या है? अदृष्ट । अदृष्ट अश्रुत पूर्वत्वात । वे भी डर गईं क्योंकि उन्होंने भी कभी नहीं देखा है, इस तरह का विशाल रूप, और आधा शेर, आधा आदमी । भगवान के कई रूप हैं: अद्वैत अच्युत अनादि अनंत-रूपम (ब्रह्मसंहिता ५.३३) | अनंत-रूपम, फिर भी, अद्वैत ।
:समित-पानि: श्रोत्रियम ब्रह्म निष्ठम
:( मु उ १।२।१२)


तो तद विज्ञानम, तुम कल्पना नहीं कर सकते हो, अटकलें । यह संभव नहीं है । तुम्हे उस व्यक्ति से सीखना है जो तत्व दर्शिन: है, जिसने भगवान को देखा है । यहां तक ​​कि देखकर, तुम नहीं कर सकते ... जैसे लक्षमीदेवि, वे हर पल देख रही हैं, लगातार । यहां तक ​​कि वे भी नहीं जानती हैं । अश्रुत-पूर्व । अदृष्टाश्रुत-पूर्व । तो जो कुछ भी हम देखते हैं या हम देखते नहीं है, सब कुछ है । अहम् सर्वस्य प्रभवो ([[Vanisource:BG 10.8|भ ग १०।८]]) । कृष्ण कहते हैं, "जो कुछ भी तुम देखते हो, जो कुछ भी तुम अनुभव करते हो, मैं उनका मूल हूँ ।" तो क्रोध होना चाहिए । तुम कैसे कह सकते हो कि " भगवान को नाराज नहीं होना चाहिए । भगवान को इस तरह से नहीं होना चाहिए. भगवान को नहीं होना चाहिए ...? "नहीं, यह सच नहीं है । यह हमारी अनुभवहीनता है ।
तो भागवत में यह कहा जाता है कि भगवान के अवतार वास्तव में नदी या समुद्र की लहरों की तरह हैं । कोई भी गिन नहीं सकता है । तुम थक जाअोगे अगर लहरों की संख्या की गणना करना चाहोगे । यह असंभव है । तो भगवान के अवतार इतने हैं जितनी लहरें । तो तुम लहरों को गिन नहीं सकते, इसलिए तुम समझ नहीं सकते, कि कितने अवतार हैं उनके । यहां तक ​​कि लक्षमी भी,  यहां तक ​​कि अनंतदेव, उन्हे नहीं पता है । तो हमारा अनुभव - बहुत सीमित है । क्यों हम कहें कि  "भगवान के पास यह नहीं हो सकता है, भगवान के पास यह नहीं हो सकता है ..." ऐसे ? यह नास्तिकता है । वे अलग अलग भाग बनाते हैं । वे कहते हैं ...
 
यहां तक ​​कि हमारे तथाकथित वैदिक आर्य समाज में, वे ज़ोर देते हैं कि भगवान अवतार नहीं ले सकते हैं । क्यों? अगर भगवान सर्वशक्तिमान हैं, तो क्यों वे अवतार स्वीकार करने में सक्षम नहीं होंगे? इसलिए हमें इन दुष्टों से भगवान की शिक्षा नहीं लेनी चाहिए । हमें गुरु से, साधु से, शास्त्र से भगवान का सबक लेना चाहिए - जिन्होंने भगवान कोदेखा है, तत्व-दर्शिन । तद विद्धि प्रणीपातेन परिप्रश्नेन सेवया, उपदेक्ष्यन्ति तद ज्ञानम ([[HI/BG 4.34|भ.गी. ४.३४]]) | तद ज्ञानम का मतलब है आध्यात्मिक ज्ञान । तद विज्ञानम ।
 
:तद विज्ञानार्थम स गुरुम एवाभिगच्छेत
:समित-पाणी: श्रोत्रियम ब्रह्म निष्ठम
:(मुंडक उपनिषद १.२.१२)
 
तो तद विज्ञानम, तुम कल्पना नहीं कर सकते हो, अटकलें । यह संभव नहीं है । तुम्हे उस व्यक्ति से सीखना है जो तत्व दर्शिन: है, जिसने भगवान को देखा है । यहां तक ​​कि देखकर, तुम नहीं कर सकते ... जैसे लक्ष्मीदेवी, वे हर पल देख रही हैं, लगातार । यहां तक ​​कि वे भी नहीं जानती हैं । अश्रुत-पूर्व । अदृष्टाश्रुत-पूर्व । तो जो कुछ भी हम देखते हैं या हम देखते नहीं है, सब कुछ है । अहम् सर्वस्य प्रभवो ([[HI/BG 10.8|भ.गी. १०.८]]) । कृष्ण कहते हैं, "जो कुछ भी तुम देखते हो, जो कुछ भी तुम अनुभव करते हो, मैं उनका मूल हूँ ।" तो क्रोध होना चाहिए । तुम कैसे कह सकते हो कि "भगवान को क्रोधित नहीं होना चाहिए । भगवान को इस तरह से नहीं होना चाहिए | भगवान को नहीं होना चाहिए ...?" नहीं, यह सच नहीं है । यह हमारी अनुभवहीनता है ।  
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Latest revision as of 17:39, 1 October 2020



Lecture on SB 7.9.3 -- Mayapur, February 17, 1977

प्रद्युम्न: अनुवाद - "इसके बाद ब्रह्माजी नें प्रहलाद महाराज से अनुरोध किया जो उनके बहुत पास खड़े थे: मेरे प्रिय पुत्र, भगवान नरसिंह-देव तुम्हारे आसुरी पिता पर बेहद नाराज हैं । कृपया आगे जाअो और प्रभु को संतुष्ट करो ।"

प्रभुपाद:

प्रहरादम् प्रेशयाम अास
ब्रह्मावस्थितम अंतिके
तात प्रशमयोपेहि
स्व-पित्रे कुपितम प्रभुम
(श्रीमद भागवतम ७.९.३)

तो नरसिंह-देव बहुत, बहुत क्रोधित थे । अब पुरुषों का ये नास्तिक वर्ग, जो जानते नहीं है कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का स्वभाव क्या है, वे कहते हैं, "भगवान को नाराज क्यों होना चाहिए ?" तो भगवान, क्यों उनको नाराज नहीं होना चाहिए? भगवान के पास सब कुछ होना आवश्यक है, अन्यथा कैसे वे पूर्ण भगवान हैं ? पूर्णम । क्रोध भी गुण है या लक्षण है जीवित होने का । पत्थर नाराज नहीं होता, क्योंकि वह पत्थर है । लेकिन कोई भी प्राणी, वह नाराज हो जाता है । यह एक गुण है । और क्यों भगवान को नाराज नहीं होना चाहिए? वे भगवान की कल्पना करते हैं, एसा नहीं है कि भगवान की वे कोई तथ्यात्मक अवधारणा रखते हैं । वे कल्पना करते हैं कि "भगवान ऐसे होंगे । भगवान को अहिंसक होना चाहिए । भगवान को बहुत शांतिपूर्ण होना चाहिए ।" क्यों? कहाँ से गुस्सा आता है? यह परमेश्वर से आता है । अन्यथा क्रोध का कोई अस्तित्व नहीं है । सब कुछ है ।

जन्मादि अस्य यत: (श्रीमद भागवतम १.१.१) । यह ब्रह्म की परिभाषा है । जो कुछ भी हमें अनुभव में मिला है और जो कुछ भी हमें अनुभव में नहीं मिला है .... हमें अनुभव में सब कुछ नहीं मिला है । जैसे नरसिंह-देव के बारे में यह कहा जाता है कि लक्ष्मी को भी कोई अनुभव नहीं था, कि प्रभु आधे शेर, आधे आदमी बन सकते हैं । यहां तक ​​कि लक्ष्मी भी, तो दूसरों की बात क्या करें । लक्ष्मी, वे प्रभु की शाश्वत साथी हैं । तो यह कहा जाता है, अश्रुत । वह क्या है? अदृष्ट । अदृष्ट अश्रुत पूर्वत्वात । वे भी डर गईं क्योंकि उन्होंने भी कभी नहीं देखा है, इस तरह का विशाल रूप, और आधा शेर, आधा आदमी । भगवान के कई रूप हैं: अद्वैत अच्युत अनादि अनंत-रूपम (ब्रह्मसंहिता ५.३३) | अनंत-रूपम, फिर भी, अद्वैत ।

तो भागवत में यह कहा जाता है कि भगवान के अवतार वास्तव में नदी या समुद्र की लहरों की तरह हैं । कोई भी गिन नहीं सकता है । तुम थक जाअोगे अगर लहरों की संख्या की गणना करना चाहोगे । यह असंभव है । तो भगवान के अवतार इतने हैं जितनी लहरें । तो तुम लहरों को गिन नहीं सकते, इसलिए तुम समझ नहीं सकते, कि कितने अवतार हैं उनके । यहां तक ​​कि लक्षमी भी, यहां तक ​​कि अनंतदेव, उन्हे नहीं पता है । तो हमारा अनुभव - बहुत सीमित है । क्यों हम कहें कि "भगवान के पास यह नहीं हो सकता है, भगवान के पास यह नहीं हो सकता है ..." ऐसे ? यह नास्तिकता है । वे अलग अलग भाग बनाते हैं । वे कहते हैं ...

यहां तक ​​कि हमारे तथाकथित वैदिक आर्य समाज में, वे ज़ोर देते हैं कि भगवान अवतार नहीं ले सकते हैं । क्यों? अगर भगवान सर्वशक्तिमान हैं, तो क्यों वे अवतार स्वीकार करने में सक्षम नहीं होंगे? इसलिए हमें इन दुष्टों से भगवान की शिक्षा नहीं लेनी चाहिए । हमें गुरु से, साधु से, शास्त्र से भगवान का सबक लेना चाहिए - जिन्होंने भगवान कोदेखा है, तत्व-दर्शिन । तद विद्धि प्रणीपातेन परिप्रश्नेन सेवया, उपदेक्ष्यन्ति तद ज्ञानम (भ.गी. ४.३४) | तद ज्ञानम का मतलब है आध्यात्मिक ज्ञान । तद विज्ञानम ।

तद विज्ञानार्थम स गुरुम एवाभिगच्छेत
समित-पाणी: श्रोत्रियम ब्रह्म निष्ठम
(मुंडक उपनिषद १.२.१२)

तो तद विज्ञानम, तुम कल्पना नहीं कर सकते हो, अटकलें । यह संभव नहीं है । तुम्हे उस व्यक्ति से सीखना है जो तत्व दर्शिन: है, जिसने भगवान को देखा है । यहां तक ​​कि देखकर, तुम नहीं कर सकते ... जैसे लक्ष्मीदेवी, वे हर पल देख रही हैं, लगातार । यहां तक ​​कि वे भी नहीं जानती हैं । अश्रुत-पूर्व । अदृष्टाश्रुत-पूर्व । तो जो कुछ भी हम देखते हैं या हम देखते नहीं है, सब कुछ है । अहम् सर्वस्य प्रभवो (भ.गी. १०.८) । कृष्ण कहते हैं, "जो कुछ भी तुम देखते हो, जो कुछ भी तुम अनुभव करते हो, मैं उनका मूल हूँ ।" तो क्रोध होना चाहिए । तुम कैसे कह सकते हो कि "भगवान को क्रोधित नहीं होना चाहिए । भगवान को इस तरह से नहीं होना चाहिए | भगवान को नहीं होना चाहिए ...?" नहीं, यह सच नहीं है । यह हमारी अनुभवहीनता है ।