HI/Prabhupada 0452 - कृष्ण ब्रह्मा के एक दिन में एक बार इस धरती पर आते हैं: Difference between revisions

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प्रद्युम्न: अनुवाद - " जब भगवान न्रसिंह-देव नें छोटे लड़के प्रहलाद महाराज को देखा अपने चरण कमल पर दंडवत करते हुए, तो वे बहुत प्रसन्न हुए अपने भक्त की स्नेह में । प्रहलाद को उठाते हुए, भगवान नें लड़के के सिर अपने कमल हाथों को रखा क्योंकि उनके हाथ हमेशा अपने भक्तों को निर्भय बनाने के लिए तैयार रहते हैं । "  
प्रद्युम्न: अनुवाद - " जब भगवान नरसिंह-देव नें छोटे लड़के प्रहलाद महाराज को देखा अपने चरण कमल पर दंडवत करते हुए, तो वे बहुत प्रसन्न हुए अपने भक्त के स्नेह में । प्रहलाद को उठाते हुए, भगवान नें लड़के के सिर अपने करकमलो को रखा क्योंकि उनके हाथ हमेशा अपने भक्तों को निर्भय बनाने के लिए तैयार रहते हैं । "  


प्रभुपाद:
प्रभुपाद:  


:स्व-पाद-मूले पतितम् तम अ्भकम
:स्व-पाद-मूले पतितम् तम अर्भकम
:विलोक्य देव: कृपया परिप्लुत:
:विलोक्य देव: कृपया परिप्लुत:  
:उत्थाप्य तच-छीर्श्णि अदधात करामभुजम
:उत्थाप्य तच-छीर्श्णि अदधात करामम्बुजम
:कालाकि-वित्रस्त-धीयाम् कृतभयम
:कालाकि-वित्रस्त-धीयाम कृतभयम  
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तो देवत्व के परम व्यक्तित्व के भक्त या पसंदीदा बनना बहुत आसान है । यह बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है । यहाँ हम उदाहरण देखते हैं, प्रहलाद महाराज, एक पांच वर्षीय ... (विराम) ... एक भक्त होने के कारण, वह केवल परम भगवान को जानता है, और उसने दंडवत किया । यहउसकी योग्यता है । कोई भी ऐसा कर सकता है । कोई भी मंदिर में यहाँ आता सकता है और दंडवत कर सकता है । कहां कठिनाई है ? बस हममें भावना होनी चाहिए कि , "यहाँ देवत्व के परम व्यक्तित्व हैं, कृष्ण या न्रसिंह-देवा या उनके अवतारों मे से एक । " शास्त्र में यह कहा जाता है, अद्वैतम अच्युतम अनादिम अनंत-रूपं ( ब्र स ५।३३) । कृष्ण के अनंत-रूपं है । इसलिए हर रूप कृष्ण के मूल रूप का विस्तार है । मूल रूप कृष्ण है । कृष्णस तू भगवान स्वयम ([[Vanisource:SB 1.3.28|श्री भ १।३।२८]]) तो इतने सारे रूप हैं: राम, न्रसिंह, वराह, बलराम, परशुराम, मीन, कछुआ, न्रसिंह-देव । रामादि-मूतिशु कला नियमेन तिष्ठन ( ब्र स ५।३९) वे हमेशा अलग अलग रूपों में मौजूद हैं, एसा नहीं है कि वे केवल कृष्ण के रूप में विद्यमान हैं । हर रूप, रामादि-मूर्तिशु वही उदाहरण, जो हमने कई बार दिया है : जैसे सूरज, सूरज का समय, चौबीस घंटे, तो चौबीस घंटे में या चौबीस अवतारों में से, कोई भी समय मौजूद है । ऐसा नहीं है कि, मान लो अब हैं, ८ बजे, तो ७ बजे समाप्त हो गया है । नहीं । दुनिया के किसी अन्य हिस्से में ७ बजे है । या नौ बजे । नौ बजे भी मौजूद है । बारह बजे भी मौजूद है । हमारे पास गुरुकृपा महाराज द्वारा गया एक घड़ी है । (हंसी) वे जापान से लाए हैं । यह बहुत अच्छा ह । तत्काल तुम देख सकते हो कि अलग स्थानों में अब समय क्या है - तुरंत । तो वे सभी मौजूदा हैं । इसलिए कृष्ण लीला को नित्य-लीला कहा जाता है, एसा नहीं है कि एक लीला चल रही है, अन्य लीला समाप्त हो गई है । नहीं । सब कुछ एक साथ विद्यमान है । इसलिए यह शब्द प्रयोग किया गया है रामादि-मूर्तिशु । रामादि-मूर्तिशु कला नियमेन तिश.... नियमेन । बिल्कुल सही समय पर । बस सूरज की तरह, एकदम सही । पूर्व में कोई घड़ी नहीं थी, लेकिन छाया द्वारा हम अध्ययन कर सकते थे । तुम अब भी अध्ययन कर सकते हो, अब भी । हमारे बचपन में हम छाया देखकर अध्ययन करते थे, "अब यह समय है" - और ठीक वही समय । तो कला नियमेन तिश्ठन, संयोग से नहीं कि - अब यह छाया यहॉ एक बजे है, और अगले दिन, एक बजे वहॉ । नहीं । वही जगह, तुम पाअोगे ।कला नियमेन तिश्ठन । इसी प्रकार श्री कृष्ण की लीला, नियमेन तिश्ठन,- बिल्कुल सही समय । असंख्य ब्रह्मांड हैं । यहां श्री कृष्ण का जन्म होता है । अब कृष्ण वासुदेव द्वारा वृन्दावन लिए जा रहे हैं । एक ही बात - तुरंत यहाँ पैदा हुए, कृष्ण वृन्दावन गए हैं - एक और ब्रह्मांड में श्री कृष्ण का जन्म होता है, कृष्ण फिर से पैदा होते हैं । इस तरह से उनकी लीला चल रही है । कोई समाप्ति नहीं है, न तो समय की कोई विसंगति है । बिल्कुल सही । जैसे कृष्ण ब्रह्मा के एक दिन में एक बार इस धरती पर आते हैं । तो, इतने लाखों साल के बाद कृष्ण फिर से अाऍगे, व्यक्तिगत रूप से नहीं, तो उनके विस्तार से, अंशेन । चैतन्य महाप्रभु अाऍगे अपने निश्वित समय से । प्रभु रामचंदद्र अाऍगे । तो रामादि मूर्तिशु कला नियमेन तिश्ठन ( ब्र स ५।२९) तो यह लीला, न्रसिंह-देव, यह भी वास्तव में समय पर है । तो स्व-पाद-मूले पतितम तम अ्भकम । बहुत मासूम बच्चा । अगर प्रहलाद महाराजा की तरह एक मासूम बच्चा, वह न्रसिंह-देव की इतनी दया प्राप्त कर सकता है इतने भयानाक अवतार भगवान का कि लक्षमी भी निकट नहीं जा पाई ... अश्रुत । अदृष्ट अश्रुत पुर्व । प्रभु का ऐस कोई रूप नहीं था । यहां तक ​​कि लक्षमी कोi पता नहीं था । लेकिन प्रहलाद महाराज, उसे डर नहीं है । वह जानता है, "यहाँ मेरा भगवान हैं । जैसे एक शेर का बच्चा, वह शेर से नहीं डरता है । वह तुरंत शेर के सिर पर कूदता है, क्योंकि वह जानता है "यह मेरे पिता हैं । यह मेरी माँ है ।" इसी तरह प्रहलाद महाराजा नहीं डरते, हालांकि ब्रह्मा और दूसरे, सब देवता, डर रहे थे भगवान के निकट जाने के लिए । वह बस एक मासूम बच्चे के रूप में आए और अपना दंडवत किया । तम अर्भकम विलोक्य । तो, भगवान अवैयक्तिक नहीं हैं । वे तुरन्त समझ सके, "ओह, यहाँ एक मासूम बच्चा है । वह इतना अपना पिता द्वारा परेशान किया गया है, और अब वह मुझे अपना दंडवत प्रदान कर रहा है ।" वोलोक्य देव: कृपया परिप्लुत: वे हो गए, मेरे कहने का मतलब है, बहुत ज्यादा दया में पिघल गए । तो बात है, सब, सब कुछ है ।
तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के भक्त या पसंदीदा बनना बहुत आसान है । यह बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है । यहाँ हम उदाहरण देखते हैं, प्रहलाद महाराज, एक पांच वर्षीय... (तोड़) ... एक भक्त होने के कारण, वह केवल परम भगवान को जानते है, और उन्होने प्रणाम किया । यहउनकी योग्यता है । कोई भी ऐसा कर सकता है । कोई भी मंदिर में यहाँ सकता है और दंडवत प्रणाम कर सकता है । कहां कठिनाई है ? बस हममें भावना होनी चाहिए कि, "यहाँ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, कृष्ण या नरसिंह-देव या उनके अवतारों मे से एक । " शास्त्र में यह कहा जाता है, अद्वैतम अच्युतम अनादिम अनंत-रूपम (ब्रह्मसंहिता ५.३३) । कृष्ण के अनंत-रूपम है । इसलिए हर रूप कृष्ण के मूल रूप का विस्तार है । मूल रूप कृष्ण है । कृष्णस तु भगवान स्वयम ([[Vanisource:SB 1.3.28|श्रीमद भागवतम १.३.२८]]) |
 
तो इतने सारे रूप हैं: राम, नरसिंह, वराह, बलराम, परशुराम, मीन, कछुआ, नरसिंह-देव । रामादि-मूर्तिषु कला नियमेन तिष्ठन (ब्रह्मसंहिता ५.३९) | वे हमेशा अलग अलग रूपों में मौजूद हैं, एसा नहीं है कि वे केवल कृष्ण के रूप में विद्यमान हैं । हर रूप, रामादि-मूर्तिषु | वही उदाहरण, जो हमने कई बार दिया है: जैसे सूरज, सूरज का समय, चौबीस घंटे, तो चौबीस घंटे में या चौबीस अवतारों में से, कोई भी समय मौजूद है । ऐसा नहीं है कि, मान लो अब हैं, ८ बजे, तो ७ बजे समाप्त हो गया है । नहीं । दुनिया के किसी अन्य हिस्से में ७ बजे है । या नौ बजे । नौ बजे भी मौजूद है । बारह बजे भी मौजूद है । हमारे पास गुरुकृपा महाराज द्वारा दी गई एक घड़ी है । (हंसी) वे जापान से लाए हैं । यह बहुत अच्छी है । तत्काल तुम देख सकते हो कि अलग स्थानों में अभी समय क्या है - तुरंत । तो वे सभी मौजूद हैं । इसलिए कृष्ण लीला को नित्य-लीला कहा जाता है, एसा नहीं है कि एक लीला चल रही है, अन्य लीला समाप्त हो गई है । नहीं । सब कुछ एक साथ विद्यमान है । इसलिए यह शब्द प्रयोग किया गया है रामादि-मूर्तिषु ।  
 
रामादि-मूर्तिषु कला नियमेन तिश.... नियमेन । बिल्कुल सही समय पर । बस सूरज की तरह, एकदम सही । पहले कोई घड़ी नहीं थी, लेकिन छाया द्वारा हम अध्ययन कर सकते थे । तुम अब भी अध्ययन कर सकते हो, अब भी । हमारे बचपन में हम छाया देखकर अध्ययन करते थे, "अब यह समय है" - और ठीक वही समय । तो कला नियमेन तिश्ठन, संयोग से नहीं कि - अब यह छाया यहॉ एक बजे है, और अगले दिन, एक बजे वहॉ । नहीं । वही जगह, तुम पाअोगे । कला नियमेन तिश्ठन । इसी प्रकार श्री कृष्ण की लीला, नियमेन तिश्ठन - बिल्कुल सही समय । असंख्य ब्रह्मांड हैं । यहां श्री कृष्ण का जन्म हुआ है । अब कृष्ण वसुदेव द्वारा वृन्दावन लिए जा रहे हैं । एक ही बात - तुरंत यहाँ पैदा हुए, कृष्ण वृन्दावन गए - एक और ब्रह्मांड में श्री कृष्ण का जन्म होता है, कृष्ण फिर से पैदा होते हैं ।  
 
इस तरह से उनकी लीला चल रही है । कोई समाप्ति नहीं है, न तो समय की कोई विसंगति है । बिल्कुल सही । जैसे कृष्ण ब्रह्मा के एक दिन में एक बार इस धरती पर आते हैं । तो, इतने लाखों साल के बाद कृष्ण फिर से अाऍगे, व्यक्तिगत रूप से नहीं, तो उनके विस्तार से, अंशेन । चैतन्य महाप्रभु अाऍगे अपने निश्वित समय से । प्रभु रामचंद्र अाऍगे । तो रामादि मूर्तिषु कला नियमेन तिश्ठन (ब्रह्मसंहिता ५.३९) | तो यह लीला, नरसिंह-देव, यह भी वास्तव में समय पर है । तो स्व-पाद-मूले पतितम तम अर्भकम । बहुत मासूम बच्चा ।  
 
अगर प्रहलाद महाराज की तरह एक मासूम बच्चा, वह नरसिंह-देव की इतनी दया प्राप्त कर सकता है, इतने भयानाक अवतार भगवान का कि ;लक्ष्मी भी निकट नहीं जा पाई... अश्रुत । अदृष्ट अश्रुत पूर्व । प्रभु का ऐस कोई रूप नहीं था । यहां तक ​​कि लक्ष्मी को पता नहीं था । लेकिन प्रहलाद महाराज, उन्हें डर नहीं है । वह जानते है, "यहाँ मेरा भगवान हैं । जैसे एक शेर का बच्चा, वह शेर से नहीं डरता है । वह तुरंत शेर के सिर पर कूदता है, क्योंकि वह जानता है, "यह मेरे पिता हैं । यह मेरी माँ है ।" इसी तरह प्रहलाद महाराज नहीं डरते, हालांकि ब्रह्मा और दूसरे, सब देवता, डर रहे थे भगवान के निकट जाने के लिए । वह बस एक मासूम बच्चे के रूप में आए और दंडवत प्रणाम किया । तम अर्भकम विलोक्य । तो, भगवान अवैयक्तिक नहीं हैं । वे तुरन्त समझ सके, "ओह, यहाँ एक मासूम बच्चा है । वह इतना अपना पिता द्वारा परेशान किया गया है, और अब वह मुझे अपना दंडवत प्रदान कर रहा है ।" विलोक्य देव: कृपया परिप्लुत: | वे हो गए, मेरे कहने का मतलब है, बहुत ज्यादा दया में पिघल गए । तो बात है, सब, सब कुछ है ।  
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Latest revision as of 17:44, 1 October 2020



Lecture on SB 7.9.5 -- Mayapur, February 25, 1977

प्रद्युम्न: अनुवाद - " जब भगवान नरसिंह-देव नें छोटे लड़के प्रहलाद महाराज को देखा अपने चरण कमल पर दंडवत करते हुए, तो वे बहुत प्रसन्न हुए अपने भक्त के स्नेह में । प्रहलाद को उठाते हुए, भगवान नें लड़के के सिर अपने करकमलो को रखा क्योंकि उनके हाथ हमेशा अपने भक्तों को निर्भय बनाने के लिए तैयार रहते हैं । "

प्रभुपाद:

स्व-पाद-मूले पतितम् तम अर्भकम
विलोक्य देव: कृपया परिप्लुत:
उत्थाप्य तच-छीर्श्णि अदधात करामम्बुजम
कालाकि-वित्रस्त-धीयाम कृतभयम
(श्रीमद भागवतम ७.९.५)
तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के भक्त या पसंदीदा बनना बहुत आसान है । यह बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है । यहाँ हम उदाहरण देखते हैं, प्रहलाद महाराज, एक पांच वर्षीय... (तोड़) ... एक भक्त होने के कारण, वह केवल परम भगवान को जानते है, और उन्होने प्रणाम किया । यहउनकी योग्यता है । कोई भी ऐसा कर सकता है । कोई भी मंदिर में यहाँ आ सकता है और दंडवत प्रणाम कर सकता है । कहां कठिनाई है ? बस हममें भावना होनी चाहिए कि, "यहाँ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं, कृष्ण या नरसिंह-देव या उनके अवतारों मे से एक । " शास्त्र में यह कहा जाता है, अद्वैतम अच्युतम अनादिम अनंत-रूपम (ब्रह्मसंहिता ५.३३) । कृष्ण के अनंत-रूपम है । इसलिए हर रूप कृष्ण के मूल रूप का विस्तार है । मूल रूप कृष्ण है । कृष्णस तु भगवान स्वयम (श्रीमद भागवतम १.३.२८) | 

तो इतने सारे रूप हैं: राम, नरसिंह, वराह, बलराम, परशुराम, मीन, कछुआ, नरसिंह-देव । रामादि-मूर्तिषु कला नियमेन तिष्ठन (ब्रह्मसंहिता ५.३९) | वे हमेशा अलग अलग रूपों में मौजूद हैं, एसा नहीं है कि वे केवल कृष्ण के रूप में विद्यमान हैं । हर रूप, रामादि-मूर्तिषु | वही उदाहरण, जो हमने कई बार दिया है: जैसे सूरज, सूरज का समय, चौबीस घंटे, तो चौबीस घंटे में या चौबीस अवतारों में से, कोई भी समय मौजूद है । ऐसा नहीं है कि, मान लो अब हैं, ८ बजे, तो ७ बजे समाप्त हो गया है । नहीं । दुनिया के किसी अन्य हिस्से में ७ बजे है । या नौ बजे । नौ बजे भी मौजूद है । बारह बजे भी मौजूद है । हमारे पास गुरुकृपा महाराज द्वारा दी गई एक घड़ी है । (हंसी) वे जापान से लाए हैं । यह बहुत अच्छी है । तत्काल तुम देख सकते हो कि अलग स्थानों में अभी समय क्या है - तुरंत । तो वे सभी मौजूद हैं । इसलिए कृष्ण लीला को नित्य-लीला कहा जाता है, एसा नहीं है कि एक लीला चल रही है, अन्य लीला समाप्त हो गई है । नहीं । सब कुछ एक साथ विद्यमान है । इसलिए यह शब्द प्रयोग किया गया है रामादि-मूर्तिषु ।

रामादि-मूर्तिषु कला नियमेन तिश.... नियमेन । बिल्कुल सही समय पर । बस सूरज की तरह, एकदम सही । पहले कोई घड़ी नहीं थी, लेकिन छाया द्वारा हम अध्ययन कर सकते थे । तुम अब भी अध्ययन कर सकते हो, अब भी । हमारे बचपन में हम छाया देखकर अध्ययन करते थे, "अब यह समय है" - और ठीक वही समय । तो कला नियमेन तिश्ठन, संयोग से नहीं कि - अब यह छाया यहॉ एक बजे है, और अगले दिन, एक बजे वहॉ । नहीं । वही जगह, तुम पाअोगे । कला नियमेन तिश्ठन । इसी प्रकार श्री कृष्ण की लीला, नियमेन तिश्ठन - बिल्कुल सही समय । असंख्य ब्रह्मांड हैं । यहां श्री कृष्ण का जन्म हुआ है । अब कृष्ण वसुदेव द्वारा वृन्दावन लिए जा रहे हैं । एक ही बात - तुरंत यहाँ पैदा हुए, कृष्ण वृन्दावन गए - एक और ब्रह्मांड में श्री कृष्ण का जन्म होता है, कृष्ण फिर से पैदा होते हैं ।

इस तरह से उनकी लीला चल रही है । कोई समाप्ति नहीं है, न तो समय की कोई विसंगति है । बिल्कुल सही । जैसे कृष्ण ब्रह्मा के एक दिन में एक बार इस धरती पर आते हैं । तो, इतने लाखों साल के बाद कृष्ण फिर से अाऍगे, व्यक्तिगत रूप से नहीं, तो उनके विस्तार से, अंशेन । चैतन्य महाप्रभु अाऍगे अपने निश्वित समय से । प्रभु रामचंद्र अाऍगे । तो रामादि मूर्तिषु कला नियमेन तिश्ठन (ब्रह्मसंहिता ५.३९) | तो यह लीला, नरसिंह-देव, यह भी वास्तव में समय पर है । तो स्व-पाद-मूले पतितम तम अर्भकम । बहुत मासूम बच्चा ।

अगर प्रहलाद महाराज की तरह एक मासूम बच्चा, वह नरसिंह-देव की इतनी दया प्राप्त कर सकता है, इतने भयानाक अवतार भगवान का कि ;लक्ष्मी भी निकट नहीं जा पाई... अश्रुत । अदृष्ट अश्रुत पूर्व । प्रभु का ऐस कोई रूप नहीं था । यहां तक ​​कि लक्ष्मी को पता नहीं था । लेकिन प्रहलाद महाराज, उन्हें डर नहीं है । वह जानते है, "यहाँ मेरा भगवान हैं । जैसे एक शेर का बच्चा, वह शेर से नहीं डरता है । वह तुरंत शेर के सिर पर कूदता है, क्योंकि वह जानता है, "यह मेरे पिता हैं । यह मेरी माँ है ।" इसी तरह प्रहलाद महाराज नहीं डरते, हालांकि ब्रह्मा और दूसरे, सब देवता, डर रहे थे भगवान के निकट जाने के लिए । वह बस एक मासूम बच्चे के रूप में आए और दंडवत प्रणाम किया । तम अर्भकम विलोक्य । तो, भगवान अवैयक्तिक नहीं हैं । वे तुरन्त समझ सके, "ओह, यहाँ एक मासूम बच्चा है । वह इतना अपना पिता द्वारा परेशान किया गया है, और अब वह मुझे अपना दंडवत प्रदान कर रहा है ।" विलोक्य देव: कृपया परिप्लुत: | वे हो गए, मेरे कहने का मतलब है, बहुत ज्यादा दया में पिघल गए । तो बात है, सब, सब कुछ है ।