HI/Prabhupada 0454 - तो बहुत ही जोखिम भरा जीवन है ये अगर हम हमारे दिव्य ज्ञान को जागृत नहीं करते हैं: Difference between revisions

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प्रभुपाद: तो श्लोक क्या है? दिव्य-ज्ञान ह्रदे प्रकाशितो । पढना । (भारतीयों दोहराते हैं ) इससे पहले ।
प्रभुपाद: तो श्लोक क्या है? दिव्य-ज्ञान हृदे प्रकाशितो । बस उसे बोले । (भारतीय दोहराते हैं) इससे पहले ।  


भारतीय अतिथि: प्रेम भक्ति याहा हौते, अविद्या विनाश याते, दिव्य- ज्ञान ह्रदे प्रकाशीतो ।
भारतीय अतिथि: प्रेम भक्ति याहा हइते, अविद्या विनाश याते, दिव्य- ज्ञान हृदे प्रकाशीतो ।  


प्रभुपाद: तो आवश्यकता है प्रेम भक्ति कि । प्रेम भक्ति याहा हौते, अविद्या विनाश याते, दिव्य-ज्ञान । तो यह दिव्य-ज्ञान क्या है? दिव्य का मतलब है अनुभवातीत, भौतिक नहीं । तोप दिव्यम ([[Vanisource:SB 5.5.1|श्री भ ५।५।१]]) दिव्यम का मतलब है, हम पदार्थ अौर अात्मा का संयोजन हैं । वह आत्मा दिव्य है, सर्वोपरि । अपरेयम इतस तु विद्धी मे प्रकतिम परा ([[Vanisource:BG 7.5| भ गी ७।५]]) । यह परा शक्ति है, उच्च । अगर बेहतर पहचान है, तो ... और उस बेहतर पहचान को समझने के लिए हमें बेहतर ज्ञान की आवश्यकता होती है, साधारण ज्ञान नहीं । दिव्य-ज्ञान ह्रदे प्रकाशितो । तो यह गुरु का कर्तव्य है, दिव्य-ज्ञान जागृत करना । दिव्य-ज्ञान । और क्योंकि गुरू दिव्य- ज्ञान प्रदान करते हैं, उनकी पूजा की जाती है । यह आवश्यक है । आधुनिक ... आधुनिक या हमेशा, यही माया है । वो दिव्य-ज्ञान कभी नहीं, मेरे कहने का मतलब है, प्रकट होगा । वे अंधेरे में रखे जाते हैं, अविद्या-ज्ञान । अविद्या-ज्ञाना का मतलब है "मैं यह शरीर हूँ ।" "मैं अमेरिकी हूँ ।" "मैं भारतीय हूँ ।" "मैं मुसलमान हूँ" "मैं हिन्दू हूँ ।" यह अविद्या-ज्ञान है । देहात्म-बुद्धि: यस्यात्म-बुद्धि: कुनपे त्रि ([[Vanisource:SB 10.84.13|श्री भ १०।८४।१३]]) मैं यह शरीर नहीं हूं । तो दिव्य-ज्ञान की शुरुआत होती है जब हम समझने की कोशिश करते हैं कि "मैं यह शरीर नहीं हूं । मैं बेहतर तत्व हूँ, मैं आत्मा हूं । यह तुच्छ है । तो क्यों मैं इस तुच्छ ज्ञान को अपनाऊँ ? " हमें इस तुच्छ में नहीं रहना चाहिए ... तुच्छ ज्ञान का मतलब है अंधेरा । तमसि मा । वैदिक निषेधाज्ञा है "तुच्छ ज्ञान में मत रहो ।" ज्योतिर गम: : "उच्च ज्ञान में आअो ।" तो गुरु की पूजा करने का का अर्थ है क्योंकि वे हमें उच्च ज्ञान देते हैं । यह ज्ञान नहीं - कैसे खाना है, कैसे सोना है, कैसे सेक्स जीवन करना है और रक्षा कैसे करनी है । आम तौर पर, राजनीतिक नेता, सामाजिक नेता, वे यह ज्ञान देते हैं - कैसे खाना है, कैसे सोना है, कैसे सेक्स जीवन करना है और रक्षा कैसे करनी है । एक गुरु का इन बातों के साथ कोई सरोकार नहीं है । वे दिव्य-ज्ञान हैं, उच्च ज्ञान । यह आवश्यक है । यह मनुष्य जीवन दिव्य-ज्ञान को जागृत करने का एक अवसर है, ह्रदे प्रकाशितो । और अगर उसे दिव्य-ज्ञान के बारे में अंधेरे में रखा जाता है, सिर्फ उसे प्रशिक्षित किया जाता है, कैसे खाना है, कैसे सोना है, कैसे सेक्स जीवन करना है और रक्षा कैसे करनी है, तो जीवन नष्ट हो जाएगा । यह एक बड़ा नुकसान है । मृत्यु-संसार-वर्तमनि । अराप्य माम निवर्तन्ते मृत्यु संसार वर्तमनि ([[Vanisource:BG 9.3|भ गी ९।३]]) तो बहुत ही जोखिम भरा जीवन है ये अगर हम हमारे दिव्य-ज्ञान को जागृत नहीं करते हैं । हमें हमेशा यह याद रखना चाहिए । बहुत ही जोखिम भरा जीवन - एक बार फिर से जन्म और मृत्यु की लहरों में फेंक दिए जाना, हमें पता नहीं है कि मैं कहाँ जा रहा हूँ । बहुत गंभीर है । यह कृष्ण भावनामृत दिव्य-ज्ञान है । यह साधारण ज्ञान नहीं है । हर किसी को इस दिव्य-ज्ञाना को समझने की कोशिश करनी चाहिए । दैविम प्रकृतिम अाश्रितम । इसलिए जो इस दिव्य-ज्ञान में रुचि रखता है, उसे दैविम प्रकृतिम अाश्रितम कहा जाता है । दैवि से, दिव्य आता है, संस्कृत शब्द । संस्कृत शब्द, दैवि से, दिव्य, विशेषण । तो महात्मानस तू माम पर्थ दैविम प्रकृतिम अाश्रित: ([[Vanisource:BG 9.13|भ गी ९।१३]]) जिसने इस दिव्य-ज्ञान की प्रक्रिया को स्वीकार किया है, वह महात्मा है । महात्मा एसे नहीं बनते हैं ज्ञान प्राप्त करने के लिए कि कैसे यौन संबंध करें, कैसे सोऍ, कैसे खाऍ । यह शास्त्र में परिभाषा नहीं है । स महात्मा सु-दुर्लभ:
प्रभुपाद: तो आवश्यकता है प्रेम भक्ति कि । प्रेम भक्ति याहा हइते, अविद्या विनाश याते, दिव्य-ज्ञान । तो यह दिव्य-ज्ञान क्या है? दिव्य का मतलब है अनुभवातीत, दिव्य, भौतिक नहीं । तपो दिव्यम ([[Vanisource:SB 5.5.1|श्रीमद भागवतम ५.५.१]]) | दिव्यम का मतलब है, हम पदार्थ अौर अात्मा का संयोजन हैं । वह आत्मा दिव्य है, सर्वोपरी । अपरेयम इतस तु विद्धी मे प्रकतिम परा ([[HI/BG 7.5| भ.गी. ७.५]]) । यह परा शक्ति है, उच्च । अगर बेहतर पहचान है, तो ... और उस बेहतर पहचान को समझने के लिए हमें बेहतर ज्ञान की आवश्यकता होती है, साधारण ज्ञान नहीं । दिव्य-ज्ञान हृदे प्रकाशितो ।  


:बहुनाम जन्मनाम अंते
तो यह गुरु का कर्तव्य है, दिव्य-ज्ञान जागृत करना । दिव्य-ज्ञान । और क्योंकि गुरू दिव्य- ज्ञान प्रदान करते हैं, उनकी पूजा की जाती है । यह आवश्यक है । आधुनिक... आधुनिक या हमेशा, यही माया है । वो दिव्य-ज्ञान कभी नहीं, मेरे कहने का मतलब है, प्रकट होगा । वे अंधेरे में रखे जाते हैं, अविद्या-ज्ञान । अविद्या-ज्ञान का मतलब है "मैं यह शरीर हूँ ।" "मैं अमेरिकी हूँ ।" "मैं भारतीय हूँ ।" "मैं मुसलमान हूँ" "मैं हिन्दू हूँ ।" यह अविद्या-ज्ञान है । देहात्म-बुद्धि: | यस्यात्म-बुद्धि: कुणपे त्रि ([[Vanisource:SB 10.84.13|श्रीमद भागवतम १०.८४.१३]]) | मैं यह शरीर नहीं हूं । तो दिव्य-ज्ञान की शुरुआत होती है जब हम समझने की कोशिश करते हैं, कि "मैं यह शरीर नहीं हूं । मैं बेहतर तत्व हूँ, मैं आत्मा हूं । यह तुच्छ है । तो क्यों मैं इस तुच्छ ज्ञान को अपनाऊँ ? " हमें इस तुच्छ में नहीं रहना चाहिए... तुच्छ ज्ञान का मतलब है अंधेरा । तमसि मा ।
:ज्ञानवान माम प्रपद्यन्ते
:वासुदेव: सर्वम इति
:स महात्मा....
:([[Vanisource:BG 7.19|भ गी ७।१९]])


जिस किसी को यह दिव्य-ज्ञान मिला है, वासुदेव: सर्वम इति स महात्मा, वह महात्मा है । लेकिन यह बहुत, बहुत दुर्लभ है । अन्यथा, मेरे जैसा महात्मा, वे गली में घूम रहे हैं । यह उनका काम है । तो अापको हमेशा इस शब्द को याद रखना चाहिए, दिव्य- ज्ञान ह्रदे प्रकाशितो । और क्योंकि आध्यात्मिक गुरु दिव्य-ज्ञान प्रदान करते हैं, हम बाध्य महसूस करते हैं । यस्य प्रसादाद भगवत प्रसादो यस्य प्रसादान न गति: कुतो अपि । तो यह गुरू पूजा आवश्यक है । जैसे अर्व विग्रह की पूजा आवश्यक है... यह सस्ती आराधना नहीं है । यह दिव्य-ज्ञान जागरूक करने की प्रक्रिया है । बहुत बहुत धन्यवाद । भक्त: जय प्रभुपाद ।
वैदिक आज्ञा है "तुच्छ ज्ञान में मत रहो ।" ज्योतिर गम: "उच्च ज्ञान में आअो ।" तो गुरु की पूजा करने का का अर्थ है क्योंकि वे हमें उच्च ज्ञान देते हैं । ये ज्ञान नहीं - कैसे खाना है, कैसे सोना है, कैसे यौन जीवन जीना है और रक्षा कैसे करनी है । आम तौर पर, राजनीतिक नेता, सामाजिक नेता, वे यह ज्ञान देते हैं - कैसे खाना है, कैसे सोना है, कैसे संभोग करना है और रक्षा कैसे करनी है । एक गुरु का इन बातों के साथ कोई लेना देना नहीं है । वे दिव्य-ज्ञान हैं, उच्च ज्ञान । यह आवश्यक है । यह मनुष्य जीवन दिव्य-ज्ञान को जागृत करने का एक अवसर है, हृदे प्रकाशितो । और अगर उसे दिव्य-ज्ञान के बारे में अंधेरे में रखा जाता है, सिर्फ उसे प्रशिक्षित किया जाता है, कैसे खाना है, कैसे सोना है, कैसे संभोग करना है और रक्षा कैसे करनी है, तो जीवन नष्ट हो जाएगा । यह एक बड़ा नुकसान है ।
 
मृत्यु-संसार-वर्त्मनि । अराप्य माम निवर्तन्ते मृत्यु संसार वर्त्मनि ([[HI/BG 9.3|भ.गी. ९.३]]) | तो बहुत ही जोखिम भरा जीवन है ये अगर हम हमारे दिव्य-ज्ञान को जागृत नहीं करते हैं । हमें हमेशा यह याद रखना चाहिए । बहुत ही जोखिम भरा जीवन - एक बार फिर से जन्म और मृत्यु की लहरों में फेंक दिए जाना, हमें पता नहीं है कि मैं कहाँ जा रहा हूँ । बहुत गंभीर है । यह कृष्ण भावनामृत दिव्य-ज्ञान है । यह साधारण ज्ञान नहीं है । हर किसी को इस दिव्य-ज्ञाना को समझने की कोशिश करनी चाहिए । दैविम प्रकृतिम अाश्रितम । इसलिए जो इस दिव्य-ज्ञान में रुचि रखता है, उसे दैविम प्रकृतिम अाश्रितम कहा जाता है । दैवि से, दिव्य आता है, संस्कृत शब्द । संस्कृत शब्द, दैवि से, दिव्य, विशेषण । तो महात्मानस तु माम पार्थ दैविम प्रकृतिम अाश्रित:([[HI/BG 9.13|भ.गी. ९.१३]]) | जिसने इस दिव्य-ज्ञान की प्रक्रिया को स्वीकार किया है, वह महात्मा है । महात्मा कैसे यौन संबंध करें, कैसे सोऍ, कैसे खाऍ - ये बातो का ज्ञान प्राप्त करने के लिए नहीं बनते है । यह शास्त्र में परिभाषा नहीं है । स महात्मा सु-दुर्लभ:
 
:बहुनाम जन्मनाम अंते
:ज्ञानवान माम प्रपद्यन्ते
:वासुदेव: सर्वम इति
:स महात्मा....
:([[HI/BG 7.19|भ.गी. ७.१९]])
 
जिस किसी को यह दिव्य-ज्ञान मिला है, वासुदेव: सर्वम इति स महात्मा, वह महात्मा है । लेकिन यह बहुत, बहुत दुर्लभ है । अन्यथा, ऐसा महात्मा, वे गली में घूम रहा हैं । यह उनका काम है । तो अापको हमेशा इस शब्द को याद रखना चाहिए, दिव्य- ज्ञान हृदे प्रकाशितो । और क्योंकि आध्यात्मिक गुरु दिव्य-ज्ञान प्रदान करते हैं, हम उपकार महसूस करते हैं । यस्य प्रसादाद भगवत प्रसादो यस्य प्रसादान न गति: कुतो अपि । तो यह गुरू पूजा आवश्यक है । जैसे अर्व विग्रह की पूजा आवश्यक है... यह सस्ती आराधना नहीं है । यह दिव्य-ज्ञान जागरूक करने की प्रक्रिया है ।  
 
बहुत बहुत धन्यवाद ।  
 
भक्त: जय प्रभुपाद ।  
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Latest revision as of 18:41, 17 September 2020



Lecture -- Bombay, April 1, 1977

प्रभुपाद: तो श्लोक क्या है? दिव्य-ज्ञान हृदे प्रकाशितो । बस उसे बोले । (भारतीय दोहराते हैं) इससे पहले ।

भारतीय अतिथि: प्रेम भक्ति याहा हइते, अविद्या विनाश याते, दिव्य- ज्ञान हृदे प्रकाशीतो ।

प्रभुपाद: तो आवश्यकता है प्रेम भक्ति कि । प्रेम भक्ति याहा हइते, अविद्या विनाश याते, दिव्य-ज्ञान । तो यह दिव्य-ज्ञान क्या है? दिव्य का मतलब है अनुभवातीत, दिव्य, भौतिक नहीं । तपो दिव्यम (श्रीमद भागवतम ५.५.१) | दिव्यम का मतलब है, हम पदार्थ अौर अात्मा का संयोजन हैं । वह आत्मा दिव्य है, सर्वोपरी । अपरेयम इतस तु विद्धी मे प्रकतिम परा ( भ.गी. ७.५) । यह परा शक्ति है, उच्च । अगर बेहतर पहचान है, तो ... और उस बेहतर पहचान को समझने के लिए हमें बेहतर ज्ञान की आवश्यकता होती है, साधारण ज्ञान नहीं । दिव्य-ज्ञान हृदे प्रकाशितो ।

तो यह गुरु का कर्तव्य है, दिव्य-ज्ञान जागृत करना । दिव्य-ज्ञान । और क्योंकि गुरू दिव्य- ज्ञान प्रदान करते हैं, उनकी पूजा की जाती है । यह आवश्यक है । आधुनिक... आधुनिक या हमेशा, यही माया है । वो दिव्य-ज्ञान कभी नहीं, मेरे कहने का मतलब है, प्रकट होगा । वे अंधेरे में रखे जाते हैं, अविद्या-ज्ञान । अविद्या-ज्ञान का मतलब है "मैं यह शरीर हूँ ।" "मैं अमेरिकी हूँ ।" "मैं भारतीय हूँ ।" "मैं मुसलमान हूँ" "मैं हिन्दू हूँ ।" यह अविद्या-ज्ञान है । देहात्म-बुद्धि: | यस्यात्म-बुद्धि: कुणपे त्रि (श्रीमद भागवतम १०.८४.१३) | मैं यह शरीर नहीं हूं । तो दिव्य-ज्ञान की शुरुआत होती है जब हम समझने की कोशिश करते हैं, कि "मैं यह शरीर नहीं हूं । मैं बेहतर तत्व हूँ, मैं आत्मा हूं । यह तुच्छ है । तो क्यों मैं इस तुच्छ ज्ञान को अपनाऊँ ? " हमें इस तुच्छ में नहीं रहना चाहिए... तुच्छ ज्ञान का मतलब है अंधेरा । तमसि मा ।

वैदिक आज्ञा है "तुच्छ ज्ञान में मत रहो ।" ज्योतिर गम: "उच्च ज्ञान में आअो ।" तो गुरु की पूजा करने का का अर्थ है क्योंकि वे हमें उच्च ज्ञान देते हैं । ये ज्ञान नहीं - कैसे खाना है, कैसे सोना है, कैसे यौन जीवन जीना है और रक्षा कैसे करनी है । आम तौर पर, राजनीतिक नेता, सामाजिक नेता, वे यह ज्ञान देते हैं - कैसे खाना है, कैसे सोना है, कैसे संभोग करना है और रक्षा कैसे करनी है । एक गुरु का इन बातों के साथ कोई लेना देना नहीं है । वे दिव्य-ज्ञान हैं, उच्च ज्ञान । यह आवश्यक है । यह मनुष्य जीवन दिव्य-ज्ञान को जागृत करने का एक अवसर है, हृदे प्रकाशितो । और अगर उसे दिव्य-ज्ञान के बारे में अंधेरे में रखा जाता है, सिर्फ उसे प्रशिक्षित किया जाता है, कैसे खाना है, कैसे सोना है, कैसे संभोग करना है और रक्षा कैसे करनी है, तो जीवन नष्ट हो जाएगा । यह एक बड़ा नुकसान है ।

मृत्यु-संसार-वर्त्मनि । अराप्य माम निवर्तन्ते मृत्यु संसार वर्त्मनि (भ.गी. ९.३) | तो बहुत ही जोखिम भरा जीवन है ये अगर हम हमारे दिव्य-ज्ञान को जागृत नहीं करते हैं । हमें हमेशा यह याद रखना चाहिए । बहुत ही जोखिम भरा जीवन - एक बार फिर से जन्म और मृत्यु की लहरों में फेंक दिए जाना, हमें पता नहीं है कि मैं कहाँ जा रहा हूँ । बहुत गंभीर है । यह कृष्ण भावनामृत दिव्य-ज्ञान है । यह साधारण ज्ञान नहीं है । हर किसी को इस दिव्य-ज्ञाना को समझने की कोशिश करनी चाहिए । दैविम प्रकृतिम अाश्रितम । इसलिए जो इस दिव्य-ज्ञान में रुचि रखता है, उसे दैविम प्रकृतिम अाश्रितम कहा जाता है । दैवि से, दिव्य आता है, संस्कृत शब्द । संस्कृत शब्द, दैवि से, दिव्य, विशेषण । तो महात्मानस तु माम पार्थ दैविम प्रकृतिम अाश्रित:(भ.गी. ९.१३) | जिसने इस दिव्य-ज्ञान की प्रक्रिया को स्वीकार किया है, वह महात्मा है । महात्मा कैसे यौन संबंध करें, कैसे सोऍ, कैसे खाऍ - ये बातो का ज्ञान प्राप्त करने के लिए नहीं बनते है । यह शास्त्र में परिभाषा नहीं है । स महात्मा सु-दुर्लभ:

बहुनाम जन्मनाम अंते
ज्ञानवान माम प्रपद्यन्ते
वासुदेव: सर्वम इति
स महात्मा....
(भ.गी. ७.१९)

जिस किसी को यह दिव्य-ज्ञान मिला है, वासुदेव: सर्वम इति स महात्मा, वह महात्मा है । लेकिन यह बहुत, बहुत दुर्लभ है । अन्यथा, ऐसा महात्मा, वे गली में घूम रहा हैं । यह उनका काम है । तो अापको हमेशा इस शब्द को याद रखना चाहिए, दिव्य- ज्ञान हृदे प्रकाशितो । और क्योंकि आध्यात्मिक गुरु दिव्य-ज्ञान प्रदान करते हैं, हम उपकार महसूस करते हैं । यस्य प्रसादाद भगवत प्रसादो यस्य प्रसादान न गति: कुतो अपि । तो यह गुरू पूजा आवश्यक है । जैसे अर्व विग्रह की पूजा आवश्यक है... यह सस्ती आराधना नहीं है । यह दिव्य-ज्ञान जागरूक करने की प्रक्रिया है ।

बहुत बहुत धन्यवाद ।

भक्त: जय प्रभुपाद ।