HI/Prabhupada 0466 - काला सांप आदमी सांप से कम हानिकारक है: Difference between revisions

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सांप की गुणवत्ता वाला आदमी बहुत खतरनाक होता है । चाणक्य पंडित ने कहा है,
सांप की गुण वाला आदमी बहुत खतरनाक होता है । चाणक्य पंडित ने कहा है,  


:सर्प: क्रूर: खल: क्रूर:
:सर्प: क्रूर: खल: क्रूर:  
:सर्पात क्रूरतर: खल:
:सर्पात क्रूरतर: खल:  
:मंत्रौशधि-वश: सर्प:
:मंत्रौषधि-वश: सर्प:  
:खल: केन िनवारयते
:खल: केन निवार्यते ।


"दो ईर्षापूर्ण जीव हैं । एक सांप है, काला सांप, और एक काले सांप की गुणवत्ता के साथ इंसान है ।" वह कुछ भी अच्छी नहीं देख सकता है । सर्प: क्रूर: साँप ईर्षापूर्ण है । किसी भी गलती के बिना वह काटता है । एक सांप सड़क पर है, और अगर तुम उसके पस से गुज़रो तो वह इतना गुस्सा हो जाता है, तुरंत वह काटता है । तो यह सांप का स्वभाव है । इसी तरह, सांप की तरह व्यक्ति हैं । किसी भी गलती के बिना वे तुम पर आरोप लगाते हैं । वे भी सांप हैं । लेकिन चाणक्य पंडित का कहना है कि "यह काला सांप आदमी सांप से कम हानिकारक है ।" क्यों? "अब, इस काले सांप को, कुछ मंत्र जप द्वारा या कुछ जड़ी बूटी के द्वारा तुम अपने नियंत्रण में उसे ला सकते हो । लेकिन इस आदमी सांप को तुम एसा नहीं कर सकते । यह संभव नहीं है ।
"दो ईर्षालु जीव होते हैं । एक सांप है, काला सांप, और एक काले सांप के गुण वाला इंसान है ।" वह कुछ भी अच्छी नहीं देख सकता है । सर्प: क्रूर: | साँप ईर्षालु है । किसी भी गलती के बिना वह काटता है । एक सांप सड़क पर है, और अगर तुम उसके पस से गुज़रो तो वह इतना गुस्सा हो जाता है, तुरंत वह काटता है । तो यह सांप का स्वभाव है । इसी तरह, सांप की तरह व्यक्ति हैं । किसी भी गलती के बिना वे तुम पर आरोप लगाते हैं । वे भी सांप हैं । लेकिन चाणक्य पंडित का कहना है कि "यह काला सांप आदमी सांप से कम हानिकारक है ।" क्यों? "अब, इस काले सांप को, कुछ मंत्र जप द्वारा या कुछ जड़ी बूटी के द्वारा तुम अपने नियंत्रण में ला सकते हो । लेकिन इस आदमी सांप को तुम एसा नहीं कर सकते । यह संभव नहीं है ।"


"तो यह होगा ... इस हिरण्यकश्यप को भी एक सांप के रूप में प्रहलाद महाराजा द्वारा वर्णित किया गया है । न्रसिंस-देव इतते नाराज होते हैं, तो वे बाद में कहेंगे, कि मोदेत साधुर अपि वृश्िचक-सर्प-हत्या ([[Vanisource:SB 7.9.14|श्री भ ७।९।१४]]): "मेरे भगवान, अाप मेरे पिता पर बहुत ज्यादा नाराज थे । अब वे खत्म हो गए हैं, तो आपके गुस्सा होने का कोई कारण नहीं रहा । शांत हो जाइए । कोई भी मेरे पिता की हत्या से दुखी नहीं है, सुनिश्चित रहिए । तो पीड़ा का कोई कारण नहीं है । ये सब, ये देवता, भगवान ब्रह्मा और दूसरे, वे सभी आपके सेवक हैं । मैं भी अापके नौकर का नौकर हूँ । तो अब यह ईर्षापूर्ण सांप मर गया है, हर कोई खुश है ।" तो उन्होंने यह उदाहरण दिया कि मोदेत साधुर अपि वृश्िचक-सर्प-हत्या : एक साधु, एक संत व्यक्ति, किसी भी जीव की हत्या कभी नहीं पसंद करता है । वे खुश नहीं होते हैं ... यहां तक ​​कि एक छोटी सी चींटी मारी जाती है, वे खुश नहीं होते हैं: "क्यों चींटी को मार डाला जाना चाहिए ?" यहां तक ​​कि दूसरों की क्या बात करें, एक छोटे चींटी भी । पर दुक्ख दुक्खी । एक चींटी हो सकती है, तुच्छ, लेकिन मौत के समय उसको पीड़ा हुई है, एक वैशनव दुखी है: "क्यों एक चींटी को मार डाला जाना चाहिए?" यह है, पर दुक्ख दुक्खी । लेकिन इस तरह का वैशनव एक साँप और एक बिच्छू को मार डालने पर खुश होता है । मोदेत साधुर अपि वृश्िचक-सर्प-हत्या । तो हर कोई खुश होता है जब एक सांप या बिच्छू मरता है, क्योंकि वे बहुत, बहुत खतरनाक होते हैं । किसी भी गलती के बिना वे काटते हैं और कहर मचाते हैं । तो ये सांप जैसे व्यक्ति हैं, वे हमारे आंदोलन से जलते हैं, वे विरोध कर रहे हैं । यह स्वाभाव है । प्रहलाद महाराज भी अपने पिता के विरोध में थे, दूसरों की क्या बात करें । ये बातें होती हैं, लेकिन हमें निराश नहीं होना चाहिए, जैसे प्रहलाद महाराजा निराश कभी नहीं हुए, हालांकि उन्हे कई मायनों में छेड़ा गया था । उन्हे जहर दिया गया था, उन्हे नागों के बीच में फेंक दिया गया था और उन्हे पहाड़ी से फेंका गया था, उन्हे हाथी के पैरों के नीचे फेंका गया था । तो कई मायनों में डाला गाया ... इसलिए चैतन्य महाप्रभु नें हमें निर्देश दिया है "निराश मत हो । कृपया सहन करो ।" तृनाद अपि सुनिचेन तरोर अपि सहिश्नुना ([[Vanisource:CC Adi 17.31|चै च अादि१७।३१]]) पेड़ से अधिक सहन करो । रहो ,मेरे कहने का मतलब है, हमें नम्र और विनम्र होना होगा घास से भी अधिक । ये बातें होंगी । एक जीवन में हम अगर हमारे कृष्ण भावनामृत रवैया को निष्पादित करते हैं, अगर थोड़ी तकलीफ भी हो रही हो, तो कोई आपत्ति नहीं है । कृष्ण भावनामृत के साथ चलते चले जाअो । निराश या हताश मत होना, कुछ परेशानी होती है तो । यह भगवद गीता में कृष्ण द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है, अागमापायिनो अनित्यास ताम्स तितिक्शव भारत ([[Vanisource:BG 2.14|भ गी २।१४]]) "मेरे प्रिय अर्जुन, भले ही तुम्हे कुछ पीड़ा महसूस होती है, यह शारीरिक पीड़ा, यह आती है और चली जाती है । कुछ भी स्थायी नहीं है, इसलिए इन बातों की परवाह मत करो । अपने कर्तव्य को करते रहो ।" यह कृष्ण का निर्देश है । प्रहलाद महाराज, व्यावहारिक उदाहरण हैं, और हमारा कर्तव्य है कि हम प्रहलाद महाराज की तरह व्यक्तियों के पद चिन्हों पर चलें ।
तो यह होगा ... इस हिरण्यकश्यपु को भी एक सांप के रूप में प्रहलाद महाराज ने वर्णित किया है । जब नरसिंह-देव इतने क्रोधित होते हैं, तो वे बाद में कहेंगे, कि मोदेत साधुर अपि वृश्चिक-सर्प-हत्या ([[Vanisource:SB 7.9.14|श्रीमद भागवतम ७.९.१४]]): "मेरे भगवान, अाप मेरे पिता पर बहुत ज्यादा क्रोधित थे । अब वे समाप्त हो गए हैं, तो आपके गुस्सा होने का कोई कारण नहीं रहा । शांत हो जाइए । कोई भी मेरे पिता की हत्या से दुखी नहीं है, सुनिश्चित रहिए । तो पीड़ा का कोई कारण नहीं है । ये सब, ये देवता, भगवान ब्रह्मा और दूसरे, वे सभी आपके सेवक हैं । मैं भी अापके नौकर का नौकर हूँ । तो अब यह ईर्षापूर्ण सांप मर गया है, हर कोई खुश है ।"  
 
तो उन्होंने यह उदाहरण दिया कि मोदेत साधुर अपि वृष्चित-सर्प-हत्या: एक साधु, एक संत व्यक्ति, किसी भी जीव की हत्या कभी नहीं पसंद करता है । वे खुश नहीं होते हैं ... यहां तक ​​कि एक छोटी सी चींटी मारी जाती है, वे खुश नहीं होते हैं: "क्यों चींटी को मार डाला जाना चाहिए ?" दूसरों की क्या बात करें, एक छोटे चींटी भी । पर दुःख दुःखी । एक चींटी हो सकती है, तुच्छ, लेकिन मौत के समय उसको पीड़ा हुई है, एक वैष्णव दुखी है: "क्यों एक चींटी को मार डाला जाना चाहिए?" यह है, पर दुःख दुःखी । लेकिन इस तरह का वैष्णव एक साँप और एक बिच्छू को मार डालने पर खुश होता है ।  
 
मोदेत साधुर अपि वृश्चिक-सर्प-हत्या । तो हर कोई खुश होता है जब एक सांप या बिच्छू मरता है, क्योंकि वे बहुत, बहुत खतरनाक होते हैं । किसी भी गलती के बिना वे काटते हैं और कहर मचाते हैं । तो ये सांप जैसे व्यक्ति हैं, वे हमारे आंदोलन से जलते हैं, वे विरोध कर रहे हैं । यह स्वाभाव है । प्रहलाद महाराज भी अपने पिता के विरोध में थे, दूसरों की क्या बात करें । ये बातें होती हैं, लेकिन हमें निराश नहीं होना चाहिए, जैसे प्रहलाद महाराज निराश कभी नहीं हुए, हालांकि उन्हे कई मायनों में छेड़ा गया था । उन्हे जहर दिया गया था, उन्हे नागों के बीच में फेंक दिया गया था और उन्हे पहाड़ी से फेंका गया था, उन्हे हाथी के पैरों के नीचे फेंका गया था ।  
 
तो कई मायनों में डाला गाया ... इसलिए चैतन्य महाप्रभु नें हमें निर्देश दिया है "निराश मत हो । कृपया सहन करो ।" तृणाद अपि सुनिचेन तरोर अपि सहिश्नुना ([[Vanisource:CC Adi 17.31|चैतन्य चरितामृत अादि १७.३१]]): पेड़ से अधिक सहन करो । हमें घास से भी अधिक नम्र और विनम्र होना होगा । ये बातें होंगी । एक जीवन में हम अगर हमारे कृष्ण भावनामृत रवैये को निष्पादित करते हैं, अगर थोड़ी तकलीफ भी हो रही हो, तो कोई आपत्ति नहीं है । कृष्ण भावनामृत के साथ चलते चले जाअो । निराश या हताश मत होना, कुछ परेशानी होती है तो भी ।  
 
यह भगवद गीता में कृष्ण द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है, अागमापायिनो अनित्यास तांस तितिक्षस्व भारत ([[HI/BG 2.14|भ.गी. २.१४]]): "मेरे प्रिय अर्जुन, भले ही तुम्हे कुछ पीड़ा महसूस होती है, यह शारीरिक पीड़ा, यह आती है और चली जाती है । कुछ भी स्थायी नहीं है, इसलिए इन बातों की परवाह मत करो । अपने कर्तव्य को करते रहो ।" यह कृष्ण का निर्देश है । प्रहलाद महाराज, व्यावहारिक उदाहरण हैं, और हमारा कर्तव्य है कि हम प्रहलाद महाराज के जैसे व्यक्तियों के पद चिन्हों पर चलें ।  
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Latest revision as of 18:42, 17 September 2020



Lecture on SB 7.9.8 -- Mayapur, February 28, 1977

सांप की गुण वाला आदमी बहुत खतरनाक होता है । चाणक्य पंडित ने कहा है,

सर्प: क्रूर: खल: क्रूर:
सर्पात क्रूरतर: खल:
मंत्रौषधि-वश: सर्प:
खल: केन निवार्यते ।

"दो ईर्षालु जीव होते हैं । एक सांप है, काला सांप, और एक काले सांप के गुण वाला इंसान है ।" वह कुछ भी अच्छी नहीं देख सकता है । सर्प: क्रूर: | साँप ईर्षालु है । किसी भी गलती के बिना वह काटता है । एक सांप सड़क पर है, और अगर तुम उसके पस से गुज़रो तो वह इतना गुस्सा हो जाता है, तुरंत वह काटता है । तो यह सांप का स्वभाव है । इसी तरह, सांप की तरह व्यक्ति हैं । किसी भी गलती के बिना वे तुम पर आरोप लगाते हैं । वे भी सांप हैं । लेकिन चाणक्य पंडित का कहना है कि "यह काला सांप आदमी सांप से कम हानिकारक है ।" क्यों? "अब, इस काले सांप को, कुछ मंत्र जप द्वारा या कुछ जड़ी बूटी के द्वारा तुम अपने नियंत्रण में ला सकते हो । लेकिन इस आदमी सांप को तुम एसा नहीं कर सकते । यह संभव नहीं है ।"

तो यह होगा ... इस हिरण्यकश्यपु को भी एक सांप के रूप में प्रहलाद महाराज ने वर्णित किया है । जब नरसिंह-देव इतने क्रोधित होते हैं, तो वे बाद में कहेंगे, कि मोदेत साधुर अपि वृश्चिक-सर्प-हत्या (श्रीमद भागवतम ७.९.१४): "मेरे भगवान, अाप मेरे पिता पर बहुत ज्यादा क्रोधित थे । अब वे समाप्त हो गए हैं, तो आपके गुस्सा होने का कोई कारण नहीं रहा । शांत हो जाइए । कोई भी मेरे पिता की हत्या से दुखी नहीं है, सुनिश्चित रहिए । तो पीड़ा का कोई कारण नहीं है । ये सब, ये देवता, भगवान ब्रह्मा और दूसरे, वे सभी आपके सेवक हैं । मैं भी अापके नौकर का नौकर हूँ । तो अब यह ईर्षापूर्ण सांप मर गया है, हर कोई खुश है ।"

तो उन्होंने यह उदाहरण दिया कि मोदेत साधुर अपि वृष्चित-सर्प-हत्या: एक साधु, एक संत व्यक्ति, किसी भी जीव की हत्या कभी नहीं पसंद करता है । वे खुश नहीं होते हैं ... यहां तक ​​कि एक छोटी सी चींटी मारी जाती है, वे खुश नहीं होते हैं: "क्यों चींटी को मार डाला जाना चाहिए ?" दूसरों की क्या बात करें, एक छोटे चींटी भी । पर दुःख दुःखी । एक चींटी हो सकती है, तुच्छ, लेकिन मौत के समय उसको पीड़ा हुई है, एक वैष्णव दुखी है: "क्यों एक चींटी को मार डाला जाना चाहिए?" यह है, पर दुःख दुःखी । लेकिन इस तरह का वैष्णव एक साँप और एक बिच्छू को मार डालने पर खुश होता है ।

मोदेत साधुर अपि वृश्चिक-सर्प-हत्या । तो हर कोई खुश होता है जब एक सांप या बिच्छू मरता है, क्योंकि वे बहुत, बहुत खतरनाक होते हैं । किसी भी गलती के बिना वे काटते हैं और कहर मचाते हैं । तो ये सांप जैसे व्यक्ति हैं, वे हमारे आंदोलन से जलते हैं, वे विरोध कर रहे हैं । यह स्वाभाव है । प्रहलाद महाराज भी अपने पिता के विरोध में थे, दूसरों की क्या बात करें । ये बातें होती हैं, लेकिन हमें निराश नहीं होना चाहिए, जैसे प्रहलाद महाराज निराश कभी नहीं हुए, हालांकि उन्हे कई मायनों में छेड़ा गया था । उन्हे जहर दिया गया था, उन्हे नागों के बीच में फेंक दिया गया था और उन्हे पहाड़ी से फेंका गया था, उन्हे हाथी के पैरों के नीचे फेंका गया था ।

तो कई मायनों में डाला गाया ... इसलिए चैतन्य महाप्रभु नें हमें निर्देश दिया है "निराश मत हो । कृपया सहन करो ।" तृणाद अपि सुनिचेन तरोर अपि सहिश्नुना (चैतन्य चरितामृत अादि १७.३१): पेड़ से अधिक सहन करो । हमें घास से भी अधिक नम्र और विनम्र होना होगा । ये बातें होंगी । एक जीवन में हम अगर हमारे कृष्ण भावनामृत रवैये को निष्पादित करते हैं, अगर थोड़ी तकलीफ भी हो रही हो, तो कोई आपत्ति नहीं है । कृष्ण भावनामृत के साथ चलते चले जाअो । निराश या हताश मत होना, कुछ परेशानी होती है तो भी ।

यह भगवद गीता में कृष्ण द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है, अागमापायिनो अनित्यास तांस तितिक्षस्व भारत (भ.गी. २.१४): "मेरे प्रिय अर्जुन, भले ही तुम्हे कुछ पीड़ा महसूस होती है, यह शारीरिक पीड़ा, यह आती है और चली जाती है । कुछ भी स्थायी नहीं है, इसलिए इन बातों की परवाह मत करो । अपने कर्तव्य को करते रहो ।" यह कृष्ण का निर्देश है । प्रहलाद महाराज, व्यावहारिक उदाहरण हैं, और हमारा कर्तव्य है कि हम प्रहलाद महाराज के जैसे व्यक्तियों के पद चिन्हों पर चलें ।