HI/Prabhupada 0467 - क्योंकि मैंने कृष्ण के कमल चरणों की शरण ली है, मैं सुरक्षित हूँ: Difference between revisions

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प्रभुपाद: तो प्रहलाद महाराज, इतने महान व्यक्तित्व, प्राधिकरण, वे इतने विनम्र हैं, वे कहते हैं, किम् तोश्तुम स मे हरिर उग्र-जाते: "मैं एक बहुत ही क्रूर परिवार में पैदा हुआ हूँ । निश्चित रूप से मैंने अपने पिता की गुणवत्ता को विरासत में पाया है, मेरा परिवार, राक्षसी परिवार । और भगवान ब्रह्मा और अन्य देवता, अगर वे प्रभु को संतुष्ट नहीं कर सके, तो मैं क्या कर पाउँगा ? " एक वैष्णव इस तरह से सोचता है । वैष्णव, प्रहलाद महाराज, हालांकि वे उत्कृष्ट हैं, नित्य-सिद्ध, वे सोच रहे हैं, अपने परिवार के साथ खुद को जोड कर । जैसे हरिदास ठाकुर की तरह । हरिदास ठाकुर जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश नहीं करते थे । पांच सौ साल पहले, वही बात, वे जगन्नाथ मंदिर में हिंदुओं को छोड़कर किसी को भी अनुमति नहीं देते थे । वही बात अभी भी चल रही है । लेकिन हरिदास ठाकुर नें बल द्वारा कभी भी प्रवेश नहीं किया । वे मन में सोचते थे कि, " हां, मैं निम्न श्रेणी का व्यक्ति हूँ, निम्न श्रेणी के परिवार में पैदा हुए हूँ । क्यों मैं पुजारीयों को और दूसरों को परेशान करूँ जो सीधे जगन्नाथ की सेवा में लगे हुए हैं ? नहीं, नहीं ।" सनातन गोस्वामी, वे मंदिर की गेट के पास नहीं जाते थे । वे सोचते थे कि " मुझे स्पर्श करके, पुजारी अशुद्ध हो जाऍगे । बेहतर है कि मैं नहीं जाऊँ । " लेकिन जगन्नाथ खुद दैनिक उनसे मिलने के लिए आ रहे थे । यह भक्त की स्थिति है । भक्त बहुत विनम्र है । लेकिन भक्तों की गुणवत्ता को साबित करने के लिए, भगवान उनका ख्याल रखते हैं । कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रनश्यति ([[Vanisource:BG 9.31|भ गी ९।३१]])
प्रभुपाद: तो प्रहलाद महाराज, इतने महान व्यक्ति, अधिकारी, वे इतने विनम्र हैं, वे कहते हैं, किम तोष्टुम स मे हरिर उग्र-जाते: "मैं एक बहुत ही क्रूर परिवार में पैदा हुआ हूँ । निश्चित रूप से मैंने अपने पिता की गुणवत्ता को विरासत में पाया है, मेरा परिवार, राक्षसी परिवार । और ब्रह्माजी और अन्य देवता, अगर वे प्रभु को संतुष्ट नहीं कर सके, तो मैं क्या कर पाउँगा ? " एक वैष्णव इस तरह से सोचता है । वैष्णव, प्रहलाद महाराज, हालांकि वे उत्कृष्ट हैं, नित्य-सिद्ध, वे सोच रहे हैं, अपने परिवार के साथ खुद को जोड कर । जैसे हरिदास ठाकुर की तरह । हरिदास ठाकुर जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश नहीं करते थे ।  


तो हमें हमेशा कृष्ण के आश्वासन पर निर्भर होना चाहिए । किसी भी परिस्थिति में, किसी भी खतरनाक स्थिति में, कृष्ण ... अवश्य रक्षिबे कृष्ण विश्वास पालन (शरणागति) यही आत्मसमर्पण है । समर्पण का अर्थ है ... एक आइटम उसमें से, कृष्ण पर पूरा भरोसा करना है । कि, "मेरी भक्ति सेवा के निष्पादन में, इतने सारे खतरे हो सकते हैं, लेकिन क्योंकि मैंने कृष्ण के कमल चरणों की शरण ली है, मैं सुरक्षित हूँ ।" यह, कृष्ण के लिए यह विश्वास
पांच सौ साल पहले, वही बात, वे जगन्नाथ मंदिर में हिंदुओं को छोड़कर किसी को भी अनुमति नहीं देते थे वही बात अभी भी चल रही है । लेकिन हरिदास ठाकुर नें बल द्वारा कभी भी प्रवेश नहीं किया वे मन में सोचते थे कि, "हां, मैं निम्न श्रेणी का व्यक्ति हूँ, निम्न श्रेणी के परिवार में पैदा हुआ हूँ । क्यों मैं पुजारीयों को और दूसरों को परेशान करूँ जो सीधे जगन्नाथ की सेवा में लगे हुए हैं ? नहीं, नहीं ।" सनातन गोस्वामी, वे मंदिर की द्वार के पास नहीं जाते थे । वे सोचते थे कि "मुझे स्पर्श करके, पुजारी अशुद्ध हो जाऍगे । बेहतर है कि मैं न जाऊँ । " लेकिन जगन्नाथ खुद दैनिक उनसे मिलने के लिए आते थे । यह भक्त का पद है । भक्त बहुत विनम्र है । लेकिन भक्तों के गुण को साबित करने के लिए, भगवान उनका ख्याल रखते हैं कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति ([[HI/BG 9.31|भ.गी. ९.३१]]) |


:समाश्रिता ये पाद-पल्लव-प्रलवम
तो हमें हमेशा कृष्ण के आश्वासन पर निर्भर होना चाहिए । किसी भी परिस्थिति में, किसी भी खतरनाक स्थिति में, कृष्ण ... अवश्य रक्षिबे कृष्ण विश्वास पालन (शरणागति) । यही आत्मसमर्पण है । समर्पण का अर्थ है ... उसमें से एक वस्तु है, कृष्ण पर पूरा भरोसा करना । कि, "मेरी भक्ति सेवा के निष्पादन में, इतने सारे खतरे हो सकते हैं, लेकिन क्योंकि मैंने कृष्ण के चरण कमल की शरण ली है, मैं सुरक्षित हूँ ।" यह, कृष्ण के लिए यह विश्वास ।
:महत-पदम पुण्य-यशो मुरारे:
 
:भवामबुधिर वत्स-पदम परम पदम
:समाश्रिता ये पाद-पल्लव-प्लवम
:महत-पदम पुण्य-यशो मुरारे:  
:भवाम्बुधिर वत्स-पदम परम पदम  
:पदम पदम यद विपदाम न तेशाम
:पदम पदम यद विपदाम न तेशाम
:([[Vanisource:SB 10.14.58|श्री भ १०।१४।५८]])
:([[Vanisource:SB 10.14.58|श्रीमद भागवतम १०.१४.५८]])  
 
पदम पदम यद विपदाम न तेशाम । विपदाम का मतलब है "खतरनाक स्थिति ।" पदम पदम, इस भौतिक संसार में हर कदम - न तेशाम, भक्त के लिए नहीं है । पदम पदम यद विपदाम न तेशाम । यह श्रीमद-भागवतम है । साहित्य की दृष्टि से भी इतना ऊन्नत है । तो प्रहलाद महाराज... जैसे कविराज गोस्वामी की तरह । वे चैतन्य-चिरतामृत लिख रहे हैं, और खुद को पेश करते हुए, वे कहते हैं,


पदम पदम यद विपदाम न तेशाम । विपदाम का मतलब है "खतरनाक स्थिति" । पदम पदम, इस भौतिक संसार में हर कदम - न तेशाम, भक्त के लिए नहीं है । पदम पदम यद विपदाम न तेशाम । यह श्रीमद-भागवतम है । साहित्य की दृष्टि से भी इतना ऊन्नत है । तो प्रहलाद महाराज... जैसे कविराज गोस्वामी की तरह । वे चैतन्य-चिरतामृत लिख रहे हैं, और खुद को पेश करते हुए, वे कहते हैं,
:पुरीशेर कीट हैते मुनी से लघिष्ठ
:जगाइ माधाइ हइते मुनि से पापिष्ठ
:मोर नाम येइ लय तार पुण्य क्षय
:([[Vanisource:CC Adi 5.205|चैतन्य चरितामृत अादि ५.२०५]])


:पुरीशेर कीट हैते मुनी से लघिश्थ
इस तरह । चैतन्य-चरितामृत के लेखक, वह खुद को प्रस्तुत करते हैं: "मल में कीडे की तुलना से भी हल्का ।" पुरीशेर कीट हइते मुनी से लघिष्ठ | और चैतन्य-लीला में, जगाइ माधाइ, दो भाइ जिनसे सबसे पापी होने की अपेक्षा की जाती है । लेकिन वे भी, वे भी मुक्त हो जाते हैं । कविराज गोस्वामी कहते हैं "मैं जगाइ माधाइ से अधिक पापी हूँ ।" जगाइ माधाइ हइते मुनि से पापिष्ठ मोर नाम येइ लय तार पुण्य क्षय "मैं इतने निम्न श्रेणी का हूं कि कोई मेरा नाम लेता है, तो जो थोड़े बहुत पुण्य कार्य है उसमें, वह उसे भी खो देता है ।" इस तरह से वे अपने अाप को पेश करते हैं । और सनातन गोस्वामी खुद को पेश करते हैं, नीच जाति नीच कर्म नीच संग...... ये कृत्रिम नहीं हैं । '
:जगाइ माधाइ हौइते मुनि से पापिश्ठ
:मोर नाम येइ लय तार पण्य क्षय
:([[Vanisource:CC Adi 5.205|चै च अादि ५।२०५]])


इस तरह । चैतन्य-चरितामृत के लेखक, वह खुद को प्रस्तुत करते हैं: "मल में कीडे की तुलना से भी हल्का ।" पुरीशेर कीट हैते मुनी से लघिश्थ और चैतन्य-लीला में, जगाइ माधाइ, दो भाइ जिनसे सबसे पापी होने की अपेक्षा की जाती है । लेकिन वे भी, वे भी मुक्त हो जाते हैं । कविराज गोस्वामी कहते हैं "मैं जगाइ माधाइ से अधिक पापी हूँ ।" जगाइ माधाइ हौइते मुनि से पापिश्ठ मोर नाम येइ लय तार पण्य क्षय "मैं इतने निम्न श्रेणी का हूं कि कोई मेरा नाम लेता है, तो जो थोड़ी बहुत पवित्र क्रिया है उसमें, वह उसे भी खो देता है ।" इस तरह से वे अपने अाप को पेश करते हैं । और सनातन गोस्वामी खुद को पेश करते हैं, नीच जाति नीच कर्म नीच संग...... ये कृत्रिम नहीं हैं । एक वैष्णव वास्तव में उस तरह से सोचता है । यही वैष्णव है । वह कभी गर्व नहीं करता है ... और बस विपरीत में: "ओह, मेरे पास ये है , मेरे पास ये है । मेरे बराबर है कौन? मैं इतना अमीर हूँ । मैं यह हूँ और वह हूँ ।" यह भेद है दोनो में । तो हमें यह सीखना होगा, तृनाद अपि सुनिचेन तरोर अपि सहिश्नुना और प्रहलाद महाराज के पदचिह्न पर चलते हैं । तो निश्चित रूप से हमें स्वीकृति मिलेगी न्रसिंह देव, कृष्ण की, किसी भी असफलता के बिना ।
एक वैष्णव वास्तव में उस तरह से सोचता है । यही वैष्णव है । वह कभी गर्व नहीं करता है... और बस विपरीत में: "ओह, मेरे पास ये है, मेरे पास ये है । मेरे बराबर है कौन? मैं इतना अमीर हूँ । मैं यह हूँ और वह हूँ ।" यह भेद है दोनो में । तो हमें यह सीखना होगा, तृणाद अपि सुनिचेन तरोर अपि सहिश्नुना और प्रहलाद महाराज के पदचिह्न पर चलते हैं । तो निश्चित रूप से हमें स्वीकृति मिलेगी नरसिंह देव, कृष्ण की, किसी भी असफलता के बिना ।  


बहुत बहुत धन्यवाद ।
बहुत बहुत धन्यवाद ।  


भक्त: जय प्रभुपाद!
भक्त: जय प्रभुपाद!  
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Latest revision as of 18:42, 17 September 2020



Lecture on SB 7.9.8 -- Mayapur, February 28, 1977

प्रभुपाद: तो प्रहलाद महाराज, इतने महान व्यक्ति, अधिकारी, वे इतने विनम्र हैं, वे कहते हैं, किम तोष्टुम स मे हरिर उग्र-जाते: "मैं एक बहुत ही क्रूर परिवार में पैदा हुआ हूँ । निश्चित रूप से मैंने अपने पिता की गुणवत्ता को विरासत में पाया है, मेरा परिवार, राक्षसी परिवार । और ब्रह्माजी और अन्य देवता, अगर वे प्रभु को संतुष्ट नहीं कर सके, तो मैं क्या कर पाउँगा ? " एक वैष्णव इस तरह से सोचता है । वैष्णव, प्रहलाद महाराज, हालांकि वे उत्कृष्ट हैं, नित्य-सिद्ध, वे सोच रहे हैं, अपने परिवार के साथ खुद को जोड कर । जैसे हरिदास ठाकुर की तरह । हरिदास ठाकुर जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश नहीं करते थे ।

पांच सौ साल पहले, वही बात, वे जगन्नाथ मंदिर में हिंदुओं को छोड़कर किसी को भी अनुमति नहीं देते थे । वही बात अभी भी चल रही है । लेकिन हरिदास ठाकुर नें बल द्वारा कभी भी प्रवेश नहीं किया । वे मन में सोचते थे कि, "हां, मैं निम्न श्रेणी का व्यक्ति हूँ, निम्न श्रेणी के परिवार में पैदा हुआ हूँ । क्यों मैं पुजारीयों को और दूसरों को परेशान करूँ जो सीधे जगन्नाथ की सेवा में लगे हुए हैं ? नहीं, नहीं ।" सनातन गोस्वामी, वे मंदिर की द्वार के पास नहीं जाते थे । वे सोचते थे कि "मुझे स्पर्श करके, पुजारी अशुद्ध हो जाऍगे । बेहतर है कि मैं न जाऊँ । " लेकिन जगन्नाथ खुद दैनिक उनसे मिलने के लिए आते थे । यह भक्त का पद है । भक्त बहुत विनम्र है । लेकिन भक्तों के गुण को साबित करने के लिए, भगवान उनका ख्याल रखते हैं । कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति (भ.गी. ९.३१) |

तो हमें हमेशा कृष्ण के आश्वासन पर निर्भर होना चाहिए । किसी भी परिस्थिति में, किसी भी खतरनाक स्थिति में, कृष्ण ... अवश्य रक्षिबे कृष्ण विश्वास पालन (शरणागति) । यही आत्मसमर्पण है । समर्पण का अर्थ है ... उसमें से एक वस्तु है, कृष्ण पर पूरा भरोसा करना । कि, "मेरी भक्ति सेवा के निष्पादन में, इतने सारे खतरे हो सकते हैं, लेकिन क्योंकि मैंने कृष्ण के चरण कमल की शरण ली है, मैं सुरक्षित हूँ ।" यह, कृष्ण के लिए यह विश्वास ।

समाश्रिता ये पाद-पल्लव-प्लवम
महत-पदम पुण्य-यशो मुरारे:
भवाम्बुधिर वत्स-पदम परम पदम
पदम पदम यद विपदाम न तेशाम
(श्रीमद भागवतम १०.१४.५८)

पदम पदम यद विपदाम न तेशाम । विपदाम का मतलब है "खतरनाक स्थिति ।" पदम पदम, इस भौतिक संसार में हर कदम - न तेशाम, भक्त के लिए नहीं है । पदम पदम यद विपदाम न तेशाम । यह श्रीमद-भागवतम है । साहित्य की दृष्टि से भी इतना ऊन्नत है । तो प्रहलाद महाराज... जैसे कविराज गोस्वामी की तरह । वे चैतन्य-चिरतामृत लिख रहे हैं, और खुद को पेश करते हुए, वे कहते हैं,

पुरीशेर कीट हैते मुनी से लघिष्ठ
जगाइ माधाइ हइते मुनि से पापिष्ठ
मोर नाम येइ लय तार पुण्य क्षय
(चैतन्य चरितामृत अादि ५.२०५)
इस तरह । चैतन्य-चरितामृत के लेखक, वह खुद को प्रस्तुत करते हैं: "मल में कीडे की तुलना से भी हल्का ।" पुरीशेर कीट हइते मुनी से लघिष्ठ | और चैतन्य-लीला में, जगाइ माधाइ, दो भाइ जिनसे सबसे पापी होने की अपेक्षा की जाती है । लेकिन वे भी, वे भी मुक्त हो जाते हैं । कविराज गोस्वामी कहते हैं "मैं जगाइ माधाइ से अधिक पापी हूँ ।" जगाइ माधाइ हइते मुनि से पापिष्ठ मोर नाम येइ लय तार पुण्य क्षय "मैं इतने निम्न श्रेणी का हूं कि कोई मेरा नाम लेता है, तो जो थोड़े बहुत पुण्य कार्य है उसमें, वह उसे भी खो देता है ।" इस तरह से वे अपने अाप को पेश करते हैं । और सनातन गोस्वामी खुद को पेश करते हैं, नीच जाति नीच कर्म नीच संग...... ये कृत्रिम नहीं हैं । '

एक वैष्णव वास्तव में उस तरह से सोचता है । यही वैष्णव है । वह कभी गर्व नहीं करता है... और बस विपरीत में: "ओह, मेरे पास ये है, मेरे पास ये है । मेरे बराबर है कौन? मैं इतना अमीर हूँ । मैं यह हूँ और वह हूँ ।" यह भेद है दोनो में । तो हमें यह सीखना होगा, तृणाद अपि सुनिचेन तरोर अपि सहिश्नुना और प्रहलाद महाराज के पदचिह्न पर चलते हैं । तो निश्चित रूप से हमें स्वीकृति मिलेगी नरसिंह देव, कृष्ण की, किसी भी असफलता के बिना ।

बहुत बहुत धन्यवाद ।

भक्त: जय प्रभुपाद!