HI/Prabhupada 0499 - वैष्णव बहुत दयालु है, दयालु, क्योंकि वह दूसरों के लिए महसूस करता है: Difference between revisions

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ब्रह् भूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्शति ([[Vanisource:BG 18.54|भ गी १८।५४]]) उस समय, तुममहसूस कर सकते हो कि हर जीव वास्तव में तुम्हारी ही तरह है । कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह एक पंडित ब्राह्मण है यह वह एक कुत्ता है, वह एक हाथी है, या एक चंडाल है ।
ब्रह्म भूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति ([[HI/BG 18.54|भ.गी. १८.५४]]) | उस समय, तुम महसूस कर सकते हो कि हर जीव वास्तव में तुम्हारी ही तरह है । कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह एक शिक्षित ब्राह्मण है, या वह एक कुत्ता है, वह एक हाथी है, या एक चंडाल है ।  


:विद्या-विनय-सम्पन्ने
:विद्या-विनय-सम्पन्ने  
:ब्राह्मने गवि हस्तिनि
:ब्राह्मणे गवि हस्तिनि  
:शूनि चैव श्व-पाके च
:शूनि चैव श्व-पाके च  
:पंडिता: सम-दर्शीन:
:पंडिता: सम-दर्शीन:  
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:([[HI/BG 5.18|भ.गी. ५.१८]])  


यह आवश्यक है । यही आध्यात्मिक दृष्टि है । पंडिता: सम-दर्शीन: । इसलिए एक भक्त प्रथम श्रेणी का पंडित है । एक भक्त । क्योंकि वह सम-दर्शीन: है । सम-दर्शीन: का मतलब है वह दूसरों के लिए महसूस करता है । एक वैष्णव ... पर-दुक्ख-दुक्खी, कृपाम्बुधिर य: वैष्णव बहुत दयालु है, दयालु, क्योंकि वह दूसरों के लिए महसूस करता है । वह दूसरों के लिए महसूस करता है का मतलब है कि वह जानता है कि वह क्या है । वह हर जीव को भगवान के एक अभिन्न अंग के रूप में देखता है: "अब, यहाँ भगवान का एक अभिन्न अंग है । वह वापस घर को चला गया होतो, वापस देवत्व को, और उनके साथ नृत्य कर सकता था, और अानंदमय, अनन्त, जीवन जी सकता था । अब वह एक सूअर के रूप में यहाँ सड़ रहा है, या एक इंसान के रूप में, या एक राजा के रूप में । एक ही बात । यह केवल कुछ वर्षों के लिए है ।" तो एक भक्त इसलिए उसे भ्रम से बाहर ले जाने की कोशिश करता है । इसलिए, उसे पर दुक्ख-दुक्खि कहा जाता है । वह वास्तव में दूसरों की व्यथित हालत को महसूस कर रहा है । ये राजनैतिक नेता या सामाजिक नहीं ... वे क्या कर सकते हैं? वे अपने ही भाग्य बनाते हैं । बस । या यह भाग्य क्या है? यह भी दुर्भाग्य ही है । अगर कोई सोचता है "मेरे पास कुछ पैसे हैं । मैं बहुत भाग्यशाली हूँ ।" यह है, वास्तव में यह भाग्य नहीं है । सच में भाग्यशाली होना कृष्ण भावनामृत में उन्नत होना है । वह भाग्यशाली है । अन्यथा, सभी बदकिस्मत हैं । सभी बदकिस्मत हैं । तो इस तरह से, हमें आध्यात्मिक समझ में आना चाहिए, और लक्षण यह है कि वह भौतिक हलचल से परेशान नहीं होता है । यम हि न व्यथयन्ति एते पुरुषम पुरुषर्षभ सम-दुख-सुखं । लक्षण है सम-दुख क्योंकि वह जानता है कि वह सपना देख रहा है । मान लो तुम सपना देख रहे हो । तो यस तुम एक बाघ की मौजूदगी में पीड़ित हो, या तुम सपने में एक राजा बनते हो, तो मूल्य क्या है? यह एक ही बात है । कोई अंतर नहीं है । आखिर, यह सपना देखना है । इसलिए सम-दुख-दुख । अगर मैं बहुत खुश हो जाता हूँ क्योंकि मैं एक राजा बन गए हूँ या कोई बड़ा आदमी, फिर भी वह सपना है । अौर अगर मुझे लगता है कि "मैं गरीब हूँ, ओह, मैं पीड़ित हूँ, मैं, रोगग्रस्त हूँ" यह भी एक ही बात है इसलिए कृष्ण नें पिछले श्लोक में कहा है: ताम्स ति्िक्श्स्व भारत "जैसे बर्दाश्त करने का थोड़ा अभ्यास । अपने काम से काम रखो, कृष्ण भावनामृत ।" युधयस्व माम अनुस्मर ([[Vanisource:BG 8.7|भ गी ८।७]]) । कृष्ण कहते हैं, हमारा वास्तविक काम है, मन-मना भव मद-भक्तो मद-याजी माम नमस्कुरु ([[Vanisource:BG 18.65|भ गी १८।६५]]) " हमेशा मेरे बारे में सोचो ।" इसलिए यह अभ्यास चलते रहना चाहिए । कभी बात नहीं अगर मैं तथाकथित व्यथित या खुश हूँ । यहाँ ... चैतन्य-चरितामृत में यह कहा जाता है, द्वैत भद्राभद्र-ज्ञान सब मनोधर्म एइ भाल एइ मंद एइ सब भ्रम द्वैत, इस दोहरी में, द्वंद्व की दुनिया, यहां, इस भौतिक संसार में, "यह बात बहुत अच्छी है है, यह बात बहुत बुरी है, " यह केवल मानसिक मनगढ़ंत कहानी है । यहां सब कुछ बुरा है । कुछ भी अच्छा नहीं है । तो यह केवल हमारी मानसिक रचना है । "यह बुरा है, यह अच्छा है ।" हम यह कर रहे हैं । जैसे राजनीतिक क्षेत्र में । "यह पार्टी अच्छी है । यह पार्टी बुरा है ।" लेकिन कोई भी पार्टी सत्ता में अाए, तुम्हारी हालत एक ही है । वस्तुओं की कीमत बढ़ रही है । यह कोई कम नहीं हो रहा है, या तुम इस पार्टी या उस पार्टी को बदलो । तो ये सब मानसिक मनगढ़ंत कहानियॉ हैं ।
यह आवश्यक है । यही आध्यात्मिक दृष्टि है । पंडिता: सम-दर्शीन: । इसलिए एक भक्त प्रथम श्रेणी का पंडित है । एक भक्त । क्योंकि वह सम-दर्शीन: है । सम-दर्शीन: का मतलब है वह दूसरों के लिए महसूस करता है । एक वैष्णव... पर-दुःख-दुःखी, कृपाम्बुधिर य: वैष्णव बहुत दयालु है, दयालु, क्योंकि वह दूसरों के लिए महसूस करता है । वह दूसरों के लिए महसूस करता है का मतलब है कि वह जानता है कि वह क्या है । वह हर जीव को भगवान के एक अभिन्न अंग के रूप में देखता है: "अब, यहाँ भगवान का एक अभिन्न अंग है । वो वापस घर, भगवद धाम, जा सकता था, और उनके साथ नृत्य कर सकता था, और अानंदमय, शाश्वत, जीवन जी सकता था । अब वह एक सूअर के रूप में यहाँ सड़ रहा है, या एक इंसान के रूप में, या एक राजा के रूप में । एक ही बात । यह केवल कुछ वर्षों के लिए है ।"  
 
तो एक भक्त इसलिए उसे भ्रम से बाहर ले जाने की कोशिश करता है । इसलिए, उसे पर दुःख-दुःखी कहा जाता है । वह वास्तव में दूसरों की व्यथित हालत को महसूस कर रहा है । ये राजनैतिक नेता या समाजवादी नहीं... वे क्या कर सकते हैं? वे ख़ुद ही अपना भाग्य बनाते हैं । बस । या यह भाग्य क्या है? वो भी दुर्भाग्य ही है । अगर कोई सोचता है "मेरे पास कुछ पैसे हैं । मैं बहुत भाग्यशाली हूँ ।" यह है, वास्तव में यह भाग्य नहीं है । सच में भाग्यशाली होना कृष्ण भावनामृत में उन्नत होना है । वह भाग्यशाली है । अन्यथा, सभी दुर्भाग्यशाली हैं । सभी दुर्भाग्यशाली हैं । तो इस तरह से, हमें आध्यात्मिक समझ में आना चाहिए, और लक्षण यह है कि वह भौतिक हलचल से परेशान नहीं होता है ।  
 
यम हि न व्यथयन्ति एते पुरुषम पुरुषर्षभ, सम-दुःख-सुखम । लक्षण है सम-दुःख... क्योंकि वह जानता है कि वह सपना देख रहा है । मान लो तुम सपना देख रहे हो । तो या तुम एक शेर की मौजूदगी में पीड़ित हो, या तुम सपने में एक राजा बनते हो, तो मूल्य क्या है? यह एक ही बात है । कोई अंतर नहीं है । आखिर, यह सपना देखना है । इसलिए सम-सुख-दुःख । अगर मैं बहुत खुश हो जाता हूँ क्योंकि मैं एक राजा बन गए हूँ या कोई बड़ा आदमी, फिर भी वह सपना है । अौर अगर मुझे लगता है कि "मैं गरीब हूँ, ओह, मैं पीड़ित हूँ, मैं, रोगग्रस्त हूँ" यह भी एक ही बात है | इसलिए कृष्ण नें पिछले श्लोक में कहा है: तांस तितिक्षस्व भारत ([[HI/BG 2.14|भ.गी. २.१४]]) | "जैसे बर्दाश्त करने का थोड़ा अभ्यास । अपने काम से काम रखो, कृष्ण भावनामृत ।"  
 
युद्धस्य माम अनुस्मर ([[HI/BG 8.7|भ.गी. ८.७]]) । कृष्ण कहते हैं, हमारा वास्तविक काम है, मन-मना भव मद-भक्तो मद्याजी माम नमस्कुरु ([[HI/BG 18.65|भ.गी. १८.६५]]) "हमेशा मेरे बारे में सोचो ।" इसलिए यह अभ्यास चलते रहना चाहिए । कोई बात नहीं अगर मैं तथाकथित व्यथित या खुश हूँ । यहाँ... चैतन्य-चरितामृत में यह कहा जाता है, द्वैत भद्राभद्र-ज्ञान सब 'मनोधर्म', एइ भाल एइ मंद एइ सब भ्रम | द्वैत, इस द्वंद्व की दुनिया में, यहां, इस भौतिक संसार में, "यह बात बहुत अच्छी है है, यह बात बहुत बुरी है, " यह केवल मानसिक मनगढ़ंत कहानी है । यहां सब कुछ बुरा है । कुछ भी अच्छा नहीं है । तो यह केवल हमारी मानसिक रचना है । "यह बुरा है, यह अच्छा है ।" हम यह कर रहे हैं । जैसे राजनीतिक क्षेत्र में । "यह दल अच्छा है । यह दल बुरा है ।" लेकिन कोई भी दल सत्ता में अाए, तुम्हारी हालत एक ही है । वस्तुओं की कीमत बढ़ रही है । यह कम नहीं हो रहा है, या तुम इस दल को या उस दल को बदलो । तो ये सब मानसिक मनगढ़ंत कहानियॉ हैं ।  
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Latest revision as of 17:45, 1 October 2020



Lecture on BG 2.15 -- Hyderabad, November 21, 1972

ब्रह्म भूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति (भ.गी. १८.५४) | उस समय, तुम महसूस कर सकते हो कि हर जीव वास्तव में तुम्हारी ही तरह है । कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह एक शिक्षित ब्राह्मण है, या वह एक कुत्ता है, वह एक हाथी है, या एक चंडाल है ।

विद्या-विनय-सम्पन्ने
ब्राह्मणे गवि हस्तिनि
शूनि चैव श्व-पाके च
पंडिता: सम-दर्शीन:
(भ.गी. ५.१८)

यह आवश्यक है । यही आध्यात्मिक दृष्टि है । पंडिता: सम-दर्शीन: । इसलिए एक भक्त प्रथम श्रेणी का पंडित है । एक भक्त । क्योंकि वह सम-दर्शीन: है । सम-दर्शीन: का मतलब है वह दूसरों के लिए महसूस करता है । एक वैष्णव... पर-दुःख-दुःखी, कृपाम्बुधिर य: वैष्णव बहुत दयालु है, दयालु, क्योंकि वह दूसरों के लिए महसूस करता है । वह दूसरों के लिए महसूस करता है का मतलब है कि वह जानता है कि वह क्या है । वह हर जीव को भगवान के एक अभिन्न अंग के रूप में देखता है: "अब, यहाँ भगवान का एक अभिन्न अंग है । वो वापस घर, भगवद धाम, जा सकता था, और उनके साथ नृत्य कर सकता था, और अानंदमय, शाश्वत, जीवन जी सकता था । अब वह एक सूअर के रूप में यहाँ सड़ रहा है, या एक इंसान के रूप में, या एक राजा के रूप में । एक ही बात । यह केवल कुछ वर्षों के लिए है ।"

तो एक भक्त इसलिए उसे भ्रम से बाहर ले जाने की कोशिश करता है । इसलिए, उसे पर दुःख-दुःखी कहा जाता है । वह वास्तव में दूसरों की व्यथित हालत को महसूस कर रहा है । ये राजनैतिक नेता या समाजवादी नहीं... वे क्या कर सकते हैं? वे ख़ुद ही अपना भाग्य बनाते हैं । बस । या यह भाग्य क्या है? वो भी दुर्भाग्य ही है । अगर कोई सोचता है "मेरे पास कुछ पैसे हैं । मैं बहुत भाग्यशाली हूँ ।" यह है, वास्तव में यह भाग्य नहीं है । सच में भाग्यशाली होना कृष्ण भावनामृत में उन्नत होना है । वह भाग्यशाली है । अन्यथा, सभी दुर्भाग्यशाली हैं । सभी दुर्भाग्यशाली हैं । तो इस तरह से, हमें आध्यात्मिक समझ में आना चाहिए, और लक्षण यह है कि वह भौतिक हलचल से परेशान नहीं होता है ।

यम हि न व्यथयन्ति एते पुरुषम पुरुषर्षभ, सम-दुःख-सुखम । लक्षण है सम-दुःख... क्योंकि वह जानता है कि वह सपना देख रहा है । मान लो तुम सपना देख रहे हो । तो या तुम एक शेर की मौजूदगी में पीड़ित हो, या तुम सपने में एक राजा बनते हो, तो मूल्य क्या है? यह एक ही बात है । कोई अंतर नहीं है । आखिर, यह सपना देखना है । इसलिए सम-सुख-दुःख । अगर मैं बहुत खुश हो जाता हूँ क्योंकि मैं एक राजा बन गए हूँ या कोई बड़ा आदमी, फिर भी वह सपना है । अौर अगर मुझे लगता है कि "मैं गरीब हूँ, ओह, मैं पीड़ित हूँ, मैं, रोगग्रस्त हूँ" यह भी एक ही बात है | इसलिए कृष्ण नें पिछले श्लोक में कहा है: तांस तितिक्षस्व भारत (भ.गी. २.१४) | "जैसे बर्दाश्त करने का थोड़ा अभ्यास । अपने काम से काम रखो, कृष्ण भावनामृत ।"

युद्धस्य माम अनुस्मर (भ.गी. ८.७) । कृष्ण कहते हैं, हमारा वास्तविक काम है, मन-मना भव मद-भक्तो मद्याजी माम नमस्कुरु (भ.गी. १८.६५) "हमेशा मेरे बारे में सोचो ।" इसलिए यह अभ्यास चलते रहना चाहिए । कोई बात नहीं अगर मैं तथाकथित व्यथित या खुश हूँ । यहाँ... चैतन्य-चरितामृत में यह कहा जाता है, द्वैत भद्राभद्र-ज्ञान सब 'मनोधर्म', एइ भाल एइ मंद एइ सब भ्रम | द्वैत, इस द्वंद्व की दुनिया में, यहां, इस भौतिक संसार में, "यह बात बहुत अच्छी है है, यह बात बहुत बुरी है, " यह केवल मानसिक मनगढ़ंत कहानी है । यहां सब कुछ बुरा है । कुछ भी अच्छा नहीं है । तो यह केवल हमारी मानसिक रचना है । "यह बुरा है, यह अच्छा है ।" हम यह कर रहे हैं । जैसे राजनीतिक क्षेत्र में । "यह दल अच्छा है । यह दल बुरा है ।" लेकिन कोई भी दल सत्ता में अाए, तुम्हारी हालत एक ही है । वस्तुओं की कीमत बढ़ रही है । यह कम नहीं हो रहा है, या तुम इस दल को या उस दल को बदलो । तो ये सब मानसिक मनगढ़ंत कहानियॉ हैं ।