HI/Prabhupada 0505 - तुम इस शरीर को नहीं बचा सकते । यह संभव नहीं है: Difference between revisions

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प्रद्युम्न: " केवल भौतिक शरीर अविनाशी अथाह और अनन्त जीव का विनाश के अधीन है, इसलिए हे भरत वंशज, लड़ो ।"
प्रद्युम्न: "अविनाशी, अमाप्य और शाश्वत जीव का केवल भौतिक शरीर विनाश के अधीन है, इसलिए हे भरत वंशज, लड़ो ।"  


प्रभुपाद: अंतवंत इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिन: शरीरिन: । यह बहुवचन संख्या है । शरीरिन: तो शरीरिन या शरीरी का मतलब है शरीर का मालिक, या शरीर । शरीर का मतलब है यह शरीर, और शरीरिन, जिसका यह शरीर है । तो बहुवचन संख्याशरीरिन: है । कई तरीकों से कृष्ण, अर्जुन को मना रहे हैं, कि यह शरीर आत्मा से अलग है । तो यह शरीर, अंतवंत, यह खत्म हो जाएगा । कितना भी तुम कोशिश कर सकते हो, वैज्ञानिक तरीके से, कॉस्मेटिक और अन्य चीजों को लगा कर, तुम इस शरीर को नहीं बचा सकते । यह संभव नहीं है । अंतवंत । अंतवंत का मतलब है, अंत का मतलब है खतम, और वंत का मतलब है जिसके पास है । तो " तुम्हारा कर्तव्य है लड़ना, और तुम इस विलाप कर रहे हो अपने दादा या शिक्षक या भाइयों के शरीर के लिए, वे नष्ट हो जाएँगे और तुम दुखी हो जाअोगे । यह सही है कि, तुम दुखी हो जाअोगे, लेकिन अगर तुम लड़ोगे नहीं तो भी, उनका शरीर आज या कल समाप्त हो जाएगा या कुछ वर्षों के बाद । तो क्यों तुम अपने कर्तव्य का निर्वहन करने से मुकर रहे हो? यही सवाल है । "और जहॉ तक आत्मा का संबंध है, तुम्हारे दादा, शिक्षक और दूसरों का, वे नित्य हैं, , अनन्त ।" पहले से ही समझाया गया है, नित्यस्य उक्ता: । अब यहाँ भी कृष्ण कहते हैं उक्त । उक्त का मतलब है, "यह कहा जाता है " एसा नही है कि मैं स्पष्ट रूप से बात कर रहा हूँ, मैं कुछ सिद्धांत बता रहा हूँ । नहीं, यह कहा जाता है । यह पहले से ही तय हैं, यह पहले से ही पता लगाया गया है । और वैदिक साहित्य में, अधिकारियों ने यह कहा है । यह सबूत पेश करने का तरीका है । यहां तक ​​कि कृष्ण, देवत्व के परम व्यक्तित्व, वे सिद्धांत नहीं बताते हैं । वे कहते हैं, "यह कहा जाता है, " अधिकृत । अनाशिनो अप्रमेयस्य । अनाशिन: । नाशिन: का मतलब है नश्वर, और अनाशिन: का मतलब है अनश्वर । शरीरिन: , आत्मा, अनाशिन:, यह कभी नष्ट नहीं होगा । और अप्रमेयस्य । अप्रमेयस्य, अथाह । यह मापा भी नहीं जा सकता है । वैदिक साहित्य में माप का वर्णन किया गया है, लेकिन तुम नहीं नाप सकते । कुछ भी है, तो कई बातें वैदिक साहित्य में वर्णित हैं । तो तुम तो वैज्ञानिक ज्ञान में उन्नत हो, लेकिन न तो तुम यह कह सकते हो कि यह तथ्य नहीं है । न तो तुम अनुमान लगा सकते हो । जैसे पद्म पुराण में, जीवों की किस्मों को व्यक्त किया गया है: जलजा नव-लक्षाणि । जलीय जानवर या जीव नौ लाख हैं । तो यह नहीं कह सकते हो, "नहीं, यह नौ लाख नहीं है । यह कम या अधिक है ।" तुम्हारे लिए यह संभव नहीं है कि तुम पानी के भीतर देख सको कि कितने किस्में हैं । तुमने, वजीवविज्ञानीयों नें प्रयोग किया होगा, लेकिन इन नौ लाख रूपों को देख पाना संभव नहीं है । यह संभव नहीं है । जलजा नव-लक्षाणि स्थावरा लक्ष-विम्शति
प्रभुपाद: अंतवंत इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण: शरीरिण: । यह बहुवचन संख्या है । शरीरिण: तो शरीरिण या शरीरी का मतलब है शरीर का मालिक, या शरीर । शरीर का मतलब है यह शरीर, और शरीरिण, जिसका यह शरीर है । तो बहुवचन संख्या शरीरिण: है । कई तरीकों से कृष्ण, अर्जुन को मना रहे हैं, कि यह शरीर आत्मा से अलग है । तो यह शरीर, अंतवंत, यह खत्म हो जाएगा । कितना भी तुम कोशिश कर सकते हो, वैज्ञानिक तरीके से, कॉस्मेटिक और अन्य चीजों को लगा कर, तुम इस शरीर को नहीं बचा सकते । यह संभव नहीं है । अंतवंत । अंतवंत का मतलब है, अंत का मतलब है खतम, और वंत का मतलब है जिसके पास है ।  
 
तो "तुम्हारा कर्तव्य है लड़ना, और तुम ये विलाप कर रहे हो अपने दादा या शिक्षक या भाइयों के शरीर के लिए, वे नष्ट हो जाएँगे और तुम दुखी हो जाअोगे । यह सही है कि, तुम दुखी हो जाअोगे, लेकिन अगर तुम लड़ोगे नहीं तो भी, उनका शरीर आज या कल समाप्त हो जाएगा या कुछ वर्षों के बाद । तो क्यों तुम अपने कर्तव्य का निर्वाहन करने से मुकर रहे हो ? यही सवाल है । "और जहॉ तक आत्मा का संबंध है, तुम्हारे दादा, शिक्षक और दूसरों का, वे नित्य हैं, अनन्त ।" पहले से ही समझाया गया है, नित्यस्य उक्ता: । अब यहाँ भी कृष्ण कहते हैं उक्त । उक्त का मतलब है, "यह कहा जाता है |" एसा नही है कि मैं अस्पष्ट रूप से बात कर रहा हूँ, मैं कुछ सिद्धांत बता रहा हूँ । नहीं, यह कहा जाता है । यह पहले से ही तय हैं, यह पहले से ही पता लगाया गया है । और वैदिक साहित्य में, अधिकारियों ने यह कहा है । यह सबूत पेश करने का तरीका है । यहां तक ​​कि कृष्ण, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, वे सिद्धांत नहीं बताते हैं ।  
 
वे कहते हैं, "यह कहा जाता है," अधिकृत । अनाशिनो अप्रमेयस्य । अनाशिन: । नाशिन: का मतलब है नश्वर, और अनाशिन: का मतलब है अनश्वर । शरीरिण:, आत्मा, अनाशिन:, यह कभी नष्ट नहीं होगा । और अप्रमेयस्य । अप्रमेयस्य, अमाप्य । यह मापा भी नहीं जा सकता है । वैदिक साहित्य में माप का वर्णन किया गया है, लेकिन तुम नहीं नाप सकते । कुछ भी, तो कई बातें वैदिक साहित्य में वर्णित हैं । तो तुम वैज्ञानिक ज्ञान में इतने उन्नत हो, लेकिन न तो तुम यह कह सकते हो कि यह तथ्य नहीं है । न तो तुम अनुमान लगा सकते हो । जैसे पद्म पुराण में, जीवों की किस्मों को व्यक्त किया गया है: जलजा नव-लक्षाणि । जलीय जानवर या जीव नौ लाख हैं । तो यह नहीं कह सकते हो, "नहीं, यह नौ लाख नहीं है । यह कम या अधिक है ।" तुम्हारे लिए यह संभव नहीं है कि तुम पानी के भीतर देख सको कि कितनी किस्में हैं । तुमने, जीवविज्ञानीयों नें प्रयोग किया होगा, लेकिन इन नौ लाख रूपों को देख पाना संभव नहीं है । यह संभव नहीं है । जलजा नव-लक्षाणि स्थावरा लक्ष-विंशति ।  
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020



Lecture on BG 2.18 -- London, August 24, 1973

प्रद्युम्न: "अविनाशी, अमाप्य और शाश्वत जीव का केवल भौतिक शरीर विनाश के अधीन है, इसलिए हे भरत वंशज, लड़ो ।"

प्रभुपाद: अंतवंत इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण: शरीरिण: । यह बहुवचन संख्या है । शरीरिण: तो शरीरिण या शरीरी का मतलब है शरीर का मालिक, या शरीर । शरीर का मतलब है यह शरीर, और शरीरिण, जिसका यह शरीर है । तो बहुवचन संख्या शरीरिण: है । कई तरीकों से कृष्ण, अर्जुन को मना रहे हैं, कि यह शरीर आत्मा से अलग है । तो यह शरीर, अंतवंत, यह खत्म हो जाएगा । कितना भी तुम कोशिश कर सकते हो, वैज्ञानिक तरीके से, कॉस्मेटिक और अन्य चीजों को लगा कर, तुम इस शरीर को नहीं बचा सकते । यह संभव नहीं है । अंतवंत । अंतवंत का मतलब है, अंत का मतलब है खतम, और वंत का मतलब है जिसके पास है ।

तो "तुम्हारा कर्तव्य है लड़ना, और तुम ये विलाप कर रहे हो अपने दादा या शिक्षक या भाइयों के शरीर के लिए, वे नष्ट हो जाएँगे और तुम दुखी हो जाअोगे । यह सही है कि, तुम दुखी हो जाअोगे, लेकिन अगर तुम लड़ोगे नहीं तो भी, उनका शरीर आज या कल समाप्त हो जाएगा या कुछ वर्षों के बाद । तो क्यों तुम अपने कर्तव्य का निर्वाहन करने से मुकर रहे हो ? यही सवाल है । "और जहॉ तक आत्मा का संबंध है, तुम्हारे दादा, शिक्षक और दूसरों का, वे नित्य हैं, अनन्त ।" पहले से ही समझाया गया है, नित्यस्य उक्ता: । अब यहाँ भी कृष्ण कहते हैं उक्त । उक्त का मतलब है, "यह कहा जाता है |" एसा नही है कि मैं अस्पष्ट रूप से बात कर रहा हूँ, मैं कुछ सिद्धांत बता रहा हूँ । नहीं, यह कहा जाता है । यह पहले से ही तय हैं, यह पहले से ही पता लगाया गया है । और वैदिक साहित्य में, अधिकारियों ने यह कहा है । यह सबूत पेश करने का तरीका है । यहां तक ​​कि कृष्ण, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, वे सिद्धांत नहीं बताते हैं ।

वे कहते हैं, "यह कहा जाता है," अधिकृत । अनाशिनो अप्रमेयस्य । अनाशिन: । नाशिन: का मतलब है नश्वर, और अनाशिन: का मतलब है अनश्वर । शरीरिण:, आत्मा, अनाशिन:, यह कभी नष्ट नहीं होगा । और अप्रमेयस्य । अप्रमेयस्य, अमाप्य । यह मापा भी नहीं जा सकता है । वैदिक साहित्य में माप का वर्णन किया गया है, लेकिन तुम नहीं नाप सकते । कुछ भी, तो कई बातें वैदिक साहित्य में वर्णित हैं । तो तुम वैज्ञानिक ज्ञान में इतने उन्नत हो, लेकिन न तो तुम यह कह सकते हो कि यह तथ्य नहीं है । न तो तुम अनुमान लगा सकते हो । जैसे पद्म पुराण में, जीवों की किस्मों को व्यक्त किया गया है: जलजा नव-लक्षाणि । जलीय जानवर या जीव नौ लाख हैं । तो यह नहीं कह सकते हो, "नहीं, यह नौ लाख नहीं है । यह कम या अधिक है ।" तुम्हारे लिए यह संभव नहीं है कि तुम पानी के भीतर देख सको कि कितनी किस्में हैं । तुमने, जीवविज्ञानीयों नें प्रयोग किया होगा, लेकिन इन नौ लाख रूपों को देख पाना संभव नहीं है । यह संभव नहीं है । जलजा नव-लक्षाणि स्थावरा लक्ष-विंशति ।