HI/Prabhupada 0514 - इधर, खुशी का मतलब है दर्द का थोड़ा अभाव

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Lecture on BG 2.25 -- London, August 28, 1973

तो हमारी वास्तविक काम है ब्रह्मा-भूत: बनना । तो कौन बन सकता है? यह पहले से ही समझाया गया है । कृष्ण नें पहले से ही समझाया दिया है कि, वह श्लोक क्या है? यम हि न व्यथयन्ति एते । व्यथयन्ति , दर्द नहीं देता है । भौतिक, भौतिक बोझ, हमेशा परेशानी देता है । यहां तक ​​कि यह शरीर। यह भी एक और बोझ है । हम ढोना पडता है । तो जब हम इस शारीरिक दर्द और खुशी से परेशान नहीं होते हैं.... कोई खुशी नहीं है, बस दर्द है । इधर, खुशी का मतलब है दर्द का थोड़ा अभाव । वैसे ही जैसे तुम्हे यहाँ एक फोड़ा हो गया है । क्या कहा जाता है? फोडा? तो यह हमेशा दर्द देता है । और कुछ चिकित्सा आवेदन से जब दर्द से थोड़ी राहत मिलती है, तुम सोचते हो "अब यह खुशी है ।" लेकिन फोड़ा है । तुम खुश कैसे हो सकता हो? तो यहाँ, वास्तव में कोई खुशी नहीं है, लेकिन हम सोचते हैं हमने इतने सारे प्रतिरोध को खोज लिया है । वैसे ही जैसे रोग है । हमने दवा की खोज की है । हम चिकित्सा महाविद्यालय की खोज की है । विनिर्माण, बड़े, बड़े चिकित्सक, एमडी, एफ अार सी एस । लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि तुम जीअोगे । नहीं, तुम्हे मरना होगा, सर । तो फोड़ा है । अस्थायी दवा का एक छोटी आवेदन, यह हो सकता है ... इसलिए इस भौतिक संसार में कोई खुशी नहीं है । इसलिए कृष्ण ने कहा कि "तुम क्यों खुशी महसूस नहीं कर रहे हो? तुम्हे मरना तो है, जो तुम्हारा व्यवसाय नहीं है । तुम अनन्त हो, लेकिन फिर भी तुम्हे मौत को स्वीकार करना होगा । "जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि-दुक्ख-दोशानुदर्शनम (भ गी १३।९) यह तुम्हारी वास्तविक समस्या है ।

लेकिन ये दुष्ट वे नहीं जानते । वे सोचते हैं कि मौत प्राकृतिक है - मृत्यु के बाद सब कुछ समाप्त हो जाता है । अब जब तक मैं मर नहीं जाता, मुझे मज़ा लेने दो । ऋनम् कृत्वा घ्रतम पिबेत । आनंद का मतलब है ... हमारे भारतीय व्यवस्था के अनुसार, उनका आनंद मांस खाना नहीं है पश्चिमी देशों की तरह । उनका आनंद है घी अधिक खाना, फैटी, मोटा होना । यह उनका आनंद है । तो चारवाक मुनि नें सिफारिश की "अब घी खाअो और जीवन का आनंद लो ।" कचौरि, समोसा, सभी घी की तैयारी है । फिर "मेरे पैसे नहीं है, सर । मैं कहां से घी लाऊँ?" ऋनम कृत्वा " भीख माँगो, उधार लो, चोरी करो, घी लाअो ।" किसी तरह से, काला बाजार, सफेद बाजार, किसी भी तरह । पैसे लाअो और घी लाओ, बस । ऋनम् कृत्वा घ्रतम पिबेत । "जितना संभव हो घी खाओ." ऋनम् कृत्वा घ्रतम पिबेत यावाद जीवेत सुखम । जीवेत । सुखम जीवेत । "जब तक तुम जीवोत हो, बहुत अच्छी तरह से, ख़ुशी से रहो ।" यही सभी यूरोपीय दार्शनिकों का सिद्धांत है । ख़ुशी से जिअो । लेकिन अंत में वे दार्शनिक को लकवा मार जाता हैं । उसकी खुशी समाप्त हो जाती है । कौन है वो दार्शनिक जिसको लकवा मार गया? इसलिए वे सभी सिद्धांतों बनाते हैं । यूरोपीय दार्शनिकों ही नहीं, भारत में एक और दार्शनिक, डॉ. राधाकृष्णन, उनका अब मस्तिष्क पंगु है । तो वे समझ नहीं पाते हैं कि एक नियंत्रक है । हम सिद्धांत कर सकते हैं और हमारे सुखहाल जीवन के कई तरीके हो सकते हैं । लेकिन तुम खुश नहीं रह सकते हो, सर, जब तक यह भौतिक शरीर है, यह एक तथ्य है । "जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि-दुक्ख-दोशानुदर्शनम (भ गी १३।९) इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति, वे ... कृष्ण हर किसी को बुद्धिमान बना रहे हैं: "दुष्ट, तुम जीवन के शारीरिक अवधारणा के तहत रह रहे हो । तुम्हारी सभ्यता का कोई मूल्य नहीं है । यह बदमाश सभ्यता है ।"