HI/Prabhupada 0520 - हम जप कर रहे हैं, हम सुन रहे हैं, हम नाच रहे हैं, हम आनंद ले रहे हैं । क्यों

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Lecture on BG 7.1 -- Los Angeles, December 2, 1968

यह भी कृष्ण का धाम हैं, क्योंकि सब कुछ भगवान, कृष्ण के अंतर्गत आता है । कोई भी मालिक नहीं है । यह दावा कि, "यह देश, अमेरिका, हमारा है, यूनाइटेड स्टेट्‍स," यह झूठा दावा है । यह तुम्हारा नहीं है, किसी अौर का भी नहीं है । जैसे कुछ साल पहले, चार सौ साल पहले, यह भारतीयों का था, रेड इंडियन, और किसी न किसी प्रकार से, तुमने अब कब्जा कर लिया है । कौन कह सकता है कि दूसरे यहाँ अाकर कब्जा नहीं करेंगे ? तो यह सब झूठे दावे हैं । असल में, सब कुछ कृष्ण के अंतर्गत आता है । कृष्ण कहते हैं कि सर्व-लोक-महेश्वरम (भ.गी. ५.२९) "मैं सर्वोच्च मालिक, नियंत्रक हूँ, सभी ग्रहों का ।"

इसलिए सब कुछ उनके अंतर्गत आता है । लेकिन कृष्ण कहते हैं सब कुछ उनके अंतर्गत आता है । तो सब कुछ उनका धाम है, उनकी जगह, उनका निवास स्थान है । तो हमें यहाँ क्यों बदलना चाहिए ? लेकिन वे कहते हैं यद गत्वा न निवर्तन्ते तद धाम परमम मम (भ.गी. १५.६) । परमम का मतलब है सर्वोच्च । इस धाम में भी, वे कृष्ण के धाम हैं, कृष्ण के ग्रह, लेकिन यहाँ वो परम, सर्वोच्च, नहीं हैं । यहाँ मुसीबतें हैं । जैसे यह जन्म, मृत्यु, बीमारी, और बुढ़ापा । लेकिन अगर तुम कृष्ण के निजी निवास लौटते हो, गोलोक वृन्दावन, चिन्तामणि धाम (ब्रह्मसंहिता ५.२९), तो तुम्हें ज्ञान से भरा शाश्वत जीवन, आनंदमय जीवन, मिलता है ।

और वह कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? यहाँ, यह शुरुआत है... कृष्ण कहते हैं कि मयी अासक्त-मन: बस तुम कृष्ण के लिए अपने लगाव को बढ़ाअो । बस यह विधि । ये सभी, हम जप कर रहे हैं, हम सुन रहे हैं, हम नाच रहे हैं, हम आनंद ले रहे हैं । क्यों ? बस सब बकवास चीज़ो से हमारे जीवन को अलग करके अौर कृष्ण के साथ लगाव लाने के लिए । यह प्रक्रिया है । यह कृष्णभावनामृत है । तुम्हें अपने मन को कुछ करने के लिए संलग्न करना होगा । लेकिन अगर तुम अपने मन को कुछ बकवास करने के लिए संलग्न करते हो, फिर वही बात, जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि (भ.गी. १३.९)। जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, रोग । तुम्हें कष्ट होगा ।

तुम्हें कष्ट होगा । तुम्हारा विज्ञान, तुम्हारा भौतिक विज्ञान, या कुछ भी नहीं... नहीं । कोई भी इन कष्टों का कोई भी समाधान नहीं कर सकता है । लेकिन अगर तुम वास्तविक समाधान, स्थायी समाधान, स्थायी जीवन, चाहते हो, तो तुम कृष्ण में संलग्न हो जाअो । सरल विधि । मयी अासक्त मन: पार्थ योगम युञ्जन । यही योग का सही रूप है । अन्य सभी योग, वे कृष्णभावनामृत के इस मंच पर आने के लिए तुम्हारी मदद कर सकते हैं, लेकिन अगर तुम कृष्ण चेतना के इस मंच पर आने के लिए असफल हो जाअो, तो यह सभी मुसीबतें बेकार परिश्रम हैं । यह संभव नहीं है । अगर तुम योग की यह धीमी प्रक्रिया लेते हो, यह इस युग में संभव नहीं है ।

इस युग में ही नहीं, पाँच हजार साल पहले भी । यह संभव नहीं है । तुम अपने व्यायाम कारनामें कर सकते हो, लेकिन यह सफल नहीं होगा । यह योग प्रक्रिया, कृष्ण ने इसकी पुष्टि की है आखिरी अध्याय में... यह सातवाँ अध्याय है । छठे अध्याय में भी, यही बात कही है, कि योगिनाम अपि सर्वेषाम (भ.गी. ६.४७) "प्रथम श्रेणी का योगी वही है जिसका मन हमेशा मेरे से, कृष्ण से, जुड़ा है ।" तो यह कृष्णभावनामृत है ।