HI/Prabhupada 0527 - कृष्ण को अर्पण करने से हमारी हार नहीं होती है । हम केवल फायदे में रहते हैं

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Lecture on BG 7.1 -- Los Angeles, December 2, 1968

प्रभुपाद: अब, हाँ, कोई सवाल ?

जय-गोपाल: क्या प्रसादम् लेना प्यार का अादान-प्रदान है, जैसे हम एक प्रेमी से भौजन स्वीकार करते हैं ?

प्रभुपाद: हाँ । तुम प्रदान करो अौर खाअो । ददाति प्रतिगृणाति, भुंक्ते भोजयते, गुह्यम अाख्याति पृच्छति च । तुम कृष्ण को अपने मन का खुलासा करो और कृष्ण तुम्हें दिशा देंगे । तुम देखते हो । तुम कृष्ण को अर्पण करो की, "कृष्ण आप हमें इतनी सारी अच्छी चीज़ें प्रदान करते हैं । तो पहले अाप स्वाद चखें । फिर हम लेंगे । "श्री कृष्ण प्रसन्न होंगे । हाँ । बस । कृष्ण खाते हैं, और कृष्ण वैसे ही उसे छोड़ देते हैं । पूर्णस्य पूर्णम अादाय पूर्णम एवावशिष्यते (इशोपनिषद मंगलाचरण) ।

हम कृष्ण को अर्पण कर रहे हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि कृष्ण... कृष्ण खा रहे हैं, लेकिन कृष्ण इतने पूर्ण हैं, कि वे उसे पूरा छोड़ रहे हैं । तो लोगों को यह बातें समझ में नहीं आती हैं, कि कृष्ण को अर्पण करने से हमारी हार नहीं होती है । हम केवल फायदे में रहते हैं । केवल फायदे में । तुम अच्छी तरह से कृष्ण को सजाते हो, तुम देखते हो । तो फिर खूबसूरत चीज़ देखने की तुम्हारी इच्छा संतुष्ट हो जाती है । तुम्हें दुनिया की तथाकथित सुंदरियाँ आकर्षित नहीं करेंगी । तुम कृष्ण को आराम में रखते हो, तुम भी अाराम में रहोगे । तुम कृष्ण को अच्छे खाद्य-पदार्थ पेश करते हो, वो तुम खाअोगे ।

तो जैसे अगर मैं अपने चेहरे को सजाऊँ, मैं नहीं देख सकता हूँ कि यह कितना सुंदर है, लेकिन अगर मैं मेरे सामने एक दर्पण लाता हूँ, मेरे चेहरे का प्रतिबिंब सुंदर है । इसी तरह, तुम कृष्ण के प्रतिबिंब हो । मनुष्य भगवान की तरह ही बना है । तो अगर तुम कृष्ण को खुश करते हो, तो तुम देखोगे अपना प्रतिबिंब, तुम खुश हो । कृष्ण को तुम्हारे सेवा की आवश्यकता नहीं है खुश होने के लिए । वे अपने आप में पूर्ण हैं । लेकिन अगर तुम अर्पण करने की कोशिश करते हो, कृष्ण को खुश करने के लिए, तो तुम खुश रहोगे । यही कृष्णभावनामृत आंदोलन है । तो कृष्ण को अच्छी तरह से सजाने का प्रयास करो, कृष्ण को सभी खाद्य-पदार्थ देने की कोशिश करो, आरामदायक स्थिति में कृष्ण को रखने का प्रयास करो । इस तरह से तुम्हें सभी चीजों में अादान-प्रदान मिलेगा जो तुम अर्पण करते हो । यही कृष्णभावनामृ है ।

(तोड़) ...भौतिक रोग सिर्फ कुत्ते की पूँछ की तरह है । तुम देखते हो । कुत्ते की पूँछ इस तरह है । और कितना भी तेल डालो और इसे सीधे बनाने की कोशिश करो, यह इस तरह से आता है । (हँसी) तुम देखते हो । तो ये लोग, वे भौतिक आनंद चाहते हैं । "अगर स्वामीजी हमें भौतिक भोग पेश कर सकते हैं, कुछ सस्ता मंत्र देकर, वे आएँगे । तुम देखते हो । "जब स्वामीजी कहते हैं 'यह सब धूर्तता है, कृष्ण के पास अाअो,' यह अच्छा नहीं है । यह अच्छा नहीं है ।" क्योंकि वह इस तरह से पूँछ रखना चाहता है । कितना भी मरहम लागअो, यह इस तरह से आता है । (हँसी) यह रोग है । वे भौतिक चीज़ें चाहते हैं । बस । "यदि मंत्र से, या कुछ चाल से, हम अपने भौतिक आनंद में वृद्धि कर सकते हैं, ओह, यह बहुत अच्छा है । हमें कुछ नशा लेने दो और मूर्खों के स्वर्ग में रहने दो और सोचने दो, 'ओह, मैं आध्यात्मिक दुनिया में हूँ' ।" वे यही चाहते हैं । वे मूर्खों के स्वर्ग में रहना चाहते हैं । लेकिन जब हम असली स्वर्ग पेश करते हैं वे अस्वीकार करते हैं ।

ठीक है । कीर्तन करो ।