HI/Prabhupada 0574 - तुम मंजूरी के बिना किसी को नहीं मार सकते हो: Difference between revisions

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अात्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु । वह न कभी जन्मा है, न जन्म लेता है अौर न जन्म लेगा । वह अजन्मा, नि्तय, शश्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता ।
अात्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु । वह न तो कभी जन्मा है, न जन्म लेता है अौर न जन्म लेगा । वह अजन्मा, नित्य, शाश्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता ([[HI/BG 2.20|भ.गी. २.२०]]) "


तो, अलग अलग तरीकों से, कृष्ण हमें यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कैसे आत्मा अमर है । अलग अलग तरीकों से । या एनम वेत्ति हंतारम ([[Vanisource:BG 2.19|भ गी २।१९]]) जब लड़ाई होती है, तो अगर कोई मर जाता है या..... तो कृष्ण कहते हैं कि अगर कोई यह सोचता है कि "इस आदमी नें इस आदमी को मार डाला ," तो, या "यह आदमी इस आदमी को मार सकता है," इस तरह का ज्ञान सही नहीं है । कोई भी किसी को भी नहीं मारता है । फिर कसाई, हो सकता है कि वे कहें कि "तो फिर तुम क्यों शिकायत करते हो कि हम मार रहे हैं ?" वे शरीर को मार रहे हैं, लेकिन तुम नहीं मार सकते हो जब निषेधाज्ञा है कि "अाप नहीं मारोगे ।" इसका मतलब है कि तुम मंजूरी के बिना किसी को नहीं मार सकते हो । तुम मार नहीं सकते हो । हालांकि आत्मा नहीं मरती है, शरीर मरता है, फिर भी तुम मंजूरी के बिना किसी को नहीं मार सकते हो । वह पाप है । उदाहरण के लिए, एक आदमी एक घर में रह रहा है । तो किसी न किसी तरह से तुम उसे वहॉ से भगा देते हो, अवैध रूप से, तुम उसे भगा देते हो । तो वह आदमी बाहर जाएगा और कहीं अौर आश्रय लेगा । यह एक तथ्य है । आप क्योंकि तुमने उसे उसकी उचित स्थिति से भगा दिया, तुम अपराधी हो । तुम नहीं कह सकते "हालांकि मैंने भगा दिया है, उसे कोई दूसरी जगह मिल जाएगी ।" नहीं । यह ठीक है, लेकिन तुम्हे उसे भगाने का कोई हक नहीं बनता है । वह अपने घर में वैध तरीके से रह रहा था, आप क्योंकि तुमने जबरन उसे भगा दिया है तुम अपराधी हो, तुम्हे सज़ा मिलनी चाहिए
तो, अलग अलग तरीकों से, कृष्ण हमें यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कैसे आत्मा अमर है । अलग अलग तरीकों से । एनम वेत्ति हंतारम ([[HI/BG 2.19|भ.गी. २.१९]]) | जब लड़ाई होती है, तो अगर कोई मर जाता है या... तो कृष्ण कहते हैं कि अगर कोई यह सोचता है कि "इस आदमी नें इस आदमी को मार डाला ," तो, या "यह आदमी इस आदमी को मार सकता है," इस तरह का ज्ञान सही नहीं है । कोई भी किसी को भी नहीं मारता है । फिर कसाई, हो सकता है कि वे कहें कि "तो फिर तुम क्यों शिकायत करते हो कि हम मार रहे हैं ?" वे शरीर को मार रहे हैं, लेकिन तुम नहीं मार सकते हो जब आज्ञा है कि "अाप नहीं मारोगे ।" इसका मतलब है कि तुम मंजूरी के बिना किसी को नहीं मार सकते हो । तुम मार नहीं सकते हो ।  


तो यह तर्क जो कसाई या पशु हत्यारे या किसी भी तरह के हत्यारे , वे एसा तर्क नहीं दे सकते हैं । कि "यहाँ, भगवद गीता, कहती है कि आत्मा कभी नहीं मरती है, न हन्यते हन्यमाने शरीरे ([[Vanisource:BG 2.20|भ गी २।२०]]) शरीर को नष्ट हो जाने के बाद भी । तो तुम क्यों शिकायत कर रहे हो कि हम मार रहे हैं ? " तो यह तर्क है कि तुम किसी को भी मार नहीं सकते हो । इसकी अनुमति नहीं है । यह पाप है । उभौ तौ न विजानीतो नायम् हंति न हन्यते तो कोई भी किसी को नहीं मारता है, न हि कोई दूसरों के द्वारा मारा जाता हैं । यह एक बात है । फिर, एक अलग तरीके से, श्री कृष्ण कहते हैं, न जायते: जीव कभी जन्म नहीं लेता है । जन्म शरीर का है या मौत शरीर का है । जीव, आध्यात्मिक चिंगारी, तो वह कृष्ण का अभिन्न अंग होने के नाते, जैसे कृष्ण जन्म नहीं लेते हैं, मरते नहीं हैं ... अजो अपि सन्न अव्ययात्मा । तुम चौथे अध्याय में पाअोगे । अजो अपि । कृष्ण अज हैं । अज का मतलब है जो कभी जन्म नहीं लेता है इसी तरह, हम कृष्ण का अभिन्न अंग होने के नाते, हम भी कभी जन्म नहीं लेते हैं । जन्म और मृत्यु इस शरीर का है, और हम तो जीवन की शारीरिक अवधारणा में इतना अवशोषित हैं कि जब शरीर का जन्म या मृत्यु होती है हम दर्द और सुख महसूस करते हैं । निश्चित रूप से कोई खुशी नहीं है । जन्म और मृत्यु, यह बहुत दर्दनाक है । क्योंकि.....वह पहले से ही स्पष्ट किया गया है ... आत्मा की चेतना सारे शरीर में फैली है । इसलिए, दर्द और सुख इस शरीर के कारण महसूस होते हैं । तो कृष्ण नें पहले ही सलाह दी है कि इस प्रकार के दर्द और खुशी मात्रा स्पर्शास तु कौन्तेय ([[Vanisource:BG 2.14|भ गी २।१४]]), केवल त्वचा को छूने से हैं, हमें बहुत ज्यादा परेशान नहीं होना चाहिए । ताम्स तितिक्शस्व भारत । इस तरह अगर हम हमारी स्थिति के बारे में सोचें, अात्मसाक्षात्कार, कैसे हम शरीर से अलग हैं ...... दरअसल, यह ध्यान है । अगर हम बहुत गंभीरता से अपने बारे में और शरीर के बारे में सोचते हैं, यही अात्मसाक्षात्कार है । आत्मसाक्षात्कार का मतलब है मैं यह शरीर नहीं हूँ । मैं अहम् ब्रह्मास्मि हूँ, मैं आत्मा हूं । यही आत्मसाक्षात्कार है ।
हालांकि आत्मा नहीं मरती है, शरीर मरता है, फिर भी तुम मंजूरी के बिना किसी को नहीं मार सकते हो । वह पाप है । उदाहरण के लिए, एक आदमी एक घर में रह रहा है । तो किसी न किसी तरह से तुम उसे वहॉ से भगा देते हो, अवैध रूप से, तुम उसे भगा देते हो । तो वह आदमी बाहर जाएगा और कहीं अौर आश्रय लेगा । यह एक तथ्य है । आप क्योंकि तुमने उसे उसकी उचित स्थिति से भगा दिया, तुम  अपराधी हो । तुम नहीं कह सकते "हालांकि मैंने भगा दिया है, उसे कोई दूसरी जगह मिल जाएगी ।" नहीं । यह ठीक है, लेकिन तुम्हे उसे भगाने का कोई हक नहीं बनता है । वह अपने घर में कानूनन तरीके से रह रहा था, और क्योंकि तुमने जबरन उसे भगा दिया है तुम अपराधी हो, तुम्हे सज़ा मिलनी चाहिए ।
 
तो यह तर्क जो कसाई या पशु हत्यारे या किसी भी तरह के हत्यारे, वे एसा तर्क नहीं दे सकते हैं । की "यहाँ, भगवद गीता, कहती है कि आत्मा कभी नहीं मरती है, न हन्यते हन्यमाने शरीरे ([[HI/BG 2.20|भ.गी. २.२०]]), शरीर के नष्ट हो जाने के बाद भी । तो तुम क्यों शिकायत कर रहे हो कि हम मार रहे हैं ?" तो यह तर्क है कि तुम किसी को भी मार नहीं सकते हो । इसकी अनुमति नहीं है । यह पाप है । उभौ तौ न विजानीतो नायम हंति न हन्यते | तो कोई भी किसी को नहीं मारता है, न हि कोई दूसरों के द्वारा मारा जाता हैं । यह एक बात है ।  
 
फिर, एक अलग तरीके से, श्री कृष्ण कहते हैं, न जायते: जीव कभी जन्म नहीं लेता है । जन्म शरीर का है या मौत शरीर की है । जीव, आध्यात्मिक चिंगारी, तो वह कृष्ण का अभिन्न अंग होने के नाते, जैसे कृष्ण जन्म नहीं लेते हैं, मरते नहीं हैं... अजो अपि सन्न अव्ययात्मा ([[HI/BG 4.6|भ.गी. ४.६]]) । तुम चौथे अध्याय में पाअोगे । अजो अपि । कृष्ण अज हैं । अज का मतलब है जो कभी जन्म नहीं लेता है | इसी तरह, हम कृष्ण का अभिन्न अंग होने के नाते, हम भी कभी जन्म नहीं लेते हैं । जन्म और मृत्यु इस शरीर का है, और हम तो जीवन की शारीरिक अवधारणा में इतने अवशोषित हैं कि जब शरीर का जन्म या मृत्यु होता है हम दुःख और सुख महसूस करते हैं । निश्चित रूप से कोई खुशी नहीं है । जन्म और मृत्यु, यह बहुत दर्दनाक है । क्योंकि... वह पहले से ही स्पष्ट किया गया है |
 
आत्मा की चेतना सारे शरीर में फैली है । इसलिए, दुःख और सुख इस शरीर के कारण महसूस होते हैं । तो कृष्ण नें पहले ही सलाह दी है कि इस प्रकार के दर्द और खुशी, मात्रा स्पर्शास तु कौन्तेय ([[HI/BG 2.14|भ.गी. २.१४]]), केवल त्वचा को छूने जैसा हैं, हमें बहुत ज्यादा परेशान नहीं होना चाहिए । तांस तितिक्षस्व भारत । इस तरह अगर हम हमारी स्थिति के बारे में सोचें, अात्मसाक्षात्कार, कैसे हम शरीर से अलग हैं... वास्तव में, यह ध्यान है । अगर हम बहुत गंभीरता से अपने बारे में और शरीर के बारे में सोचते हैं, यही अात्मसाक्षात्कार है । आत्मसाक्षात्कार का मतलब है मैं यह शरीर नहीं हूँ । मैं अहम ब्रह्मास्मि हूँ, मैं आत्मा हूं । यही आत्मसाक्षात्कार है ।  
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020



Lecture on BG 2.19 -- London, August 25, 1973

अात्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु । वह न तो कभी जन्मा है, न जन्म लेता है अौर न जन्म लेगा । वह अजन्मा, नित्य, शाश्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता (भ.गी. २.२०) ।"

तो, अलग अलग तरीकों से, कृष्ण हमें यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कैसे आत्मा अमर है । अलग अलग तरीकों से । य एनम वेत्ति हंतारम (भ.गी. २.१९) | जब लड़ाई होती है, तो अगर कोई मर जाता है या... तो कृष्ण कहते हैं कि अगर कोई यह सोचता है कि "इस आदमी नें इस आदमी को मार डाला ," तो, या "यह आदमी इस आदमी को मार सकता है," इस तरह का ज्ञान सही नहीं है । कोई भी किसी को भी नहीं मारता है । फिर कसाई, हो सकता है कि वे कहें कि "तो फिर तुम क्यों शिकायत करते हो कि हम मार रहे हैं ?" वे शरीर को मार रहे हैं, लेकिन तुम नहीं मार सकते हो जब आज्ञा है कि "अाप नहीं मारोगे ।" इसका मतलब है कि तुम मंजूरी के बिना किसी को नहीं मार सकते हो । तुम मार नहीं सकते हो । 

हालांकि आत्मा नहीं मरती है, शरीर मरता है, फिर भी तुम मंजूरी के बिना किसी को नहीं मार सकते हो । वह पाप है । उदाहरण के लिए, एक आदमी एक घर में रह रहा है । तो किसी न किसी तरह से तुम उसे वहॉ से भगा देते हो, अवैध रूप से, तुम उसे भगा देते हो । तो वह आदमी बाहर जाएगा और कहीं अौर आश्रय लेगा । यह एक तथ्य है । आप क्योंकि तुमने उसे उसकी उचित स्थिति से भगा दिया, तुम अपराधी हो । तुम नहीं कह सकते "हालांकि मैंने भगा दिया है, उसे कोई दूसरी जगह मिल जाएगी ।" नहीं । यह ठीक है, लेकिन तुम्हे उसे भगाने का कोई हक नहीं बनता है । वह अपने घर में कानूनन तरीके से रह रहा था, और क्योंकि तुमने जबरन उसे भगा दिया है तुम अपराधी हो, तुम्हे सज़ा मिलनी चाहिए ।

तो यह तर्क जो कसाई या पशु हत्यारे या किसी भी तरह के हत्यारे, वे एसा तर्क नहीं दे सकते हैं । की "यहाँ, भगवद गीता, कहती है कि आत्मा कभी नहीं मरती है, न हन्यते हन्यमाने शरीरे (भ.गी. २.२०), शरीर के नष्ट हो जाने के बाद भी । तो तुम क्यों शिकायत कर रहे हो कि हम मार रहे हैं ?" तो यह तर्क है कि तुम किसी को भी मार नहीं सकते हो । इसकी अनुमति नहीं है । यह पाप है । उभौ तौ न विजानीतो नायम हंति न हन्यते | तो कोई भी किसी को नहीं मारता है, न हि कोई दूसरों के द्वारा मारा जाता हैं । यह एक बात है ।

फिर, एक अलग तरीके से, श्री कृष्ण कहते हैं, न जायते: जीव कभी जन्म नहीं लेता है । जन्म शरीर का है या मौत शरीर की है । जीव, आध्यात्मिक चिंगारी, तो वह कृष्ण का अभिन्न अंग होने के नाते, जैसे कृष्ण जन्म नहीं लेते हैं, मरते नहीं हैं... अजो अपि सन्न अव्ययात्मा (भ.गी. ४.६) । तुम चौथे अध्याय में पाअोगे । अजो अपि । कृष्ण अज हैं । अज का मतलब है जो कभी जन्म नहीं लेता है | इसी तरह, हम कृष्ण का अभिन्न अंग होने के नाते, हम भी कभी जन्म नहीं लेते हैं । जन्म और मृत्यु इस शरीर का है, और हम तो जीवन की शारीरिक अवधारणा में इतने अवशोषित हैं कि जब शरीर का जन्म या मृत्यु होता है हम दुःख और सुख महसूस करते हैं । निश्चित रूप से कोई खुशी नहीं है । जन्म और मृत्यु, यह बहुत दर्दनाक है । क्योंकि... वह पहले से ही स्पष्ट किया गया है |

आत्मा की चेतना सारे शरीर में फैली है । इसलिए, दुःख और सुख इस शरीर के कारण महसूस होते हैं । तो कृष्ण नें पहले ही सलाह दी है कि इस प्रकार के दर्द और खुशी, मात्रा स्पर्शास तु कौन्तेय (भ.गी. २.१४), केवल त्वचा को छूने जैसा हैं, हमें बहुत ज्यादा परेशान नहीं होना चाहिए । तांस तितिक्षस्व भारत । इस तरह अगर हम हमारी स्थिति के बारे में सोचें, अात्मसाक्षात्कार, कैसे हम शरीर से अलग हैं... वास्तव में, यह ध्यान है । अगर हम बहुत गंभीरता से अपने बारे में और शरीर के बारे में सोचते हैं, यही अात्मसाक्षात्कार है । आत्मसाक्षात्कार का मतलब है मैं यह शरीर नहीं हूँ । मैं अहम ब्रह्मास्मि हूँ, मैं आत्मा हूं । यही आत्मसाक्षात्कार है ।