HI/Prabhupada 0576 - प्रक्रिया यह होनी चाहिए कि कैसे इन सभी प्रवृत्तियों को शून्य करें
Lecture on BG 2.19 -- London, August 25, 1973
तो लोके व्यवाय अामिष मद-सेवा नित्यस तु जंतु: यह प्रवृत्ति है । भौतिक जीवन का मतलब है हर जीव की ये प्रवृत्तियॉ हैं । लेकिन उन्हे प्रतिबंधित किया जाना चाहिए । प्रवृत्ति: एषम भूतानाम । यह स्वाभाविक वृत्ति है । लेकिन अगर तुम उन्हें रोक सकते हो, तो वह तुम्हारी उत्कृष्टता है । उस को तपस्या कहा जाता है । तपस्या का मतलब है कि मेरी स्वाभाविक रूप से कुछ प्रवृत्तियॉ हैं, लेकिन यह अच्छी बात नहीं है । इस मायने में अच्छा नहीं हैं, अगर हम उस प्रवृत्ति को जारी रखते हैं, फिर हमें इस भौतिक शरीर को स्वीकार करना होगा । यह प्रकृति का नियम है । एक श्लोक है, प्रमत्त: । क्या कहते हैं, कि ...? अब मैं भूल रहा हूँ । कि हर कोई पागल है, इन्द्रिय संतुष्टि के पीछे पागल है । न साधु मन्ये यत अात्मनो अयम असन्न अपि क्लेशदा अास देह: (श्री भ ५।५।४) जब तक हम इन्द्रिय संतुष्टि की प्रवृत्ति को जारी रखेंगे, तुम्हे शरीर को स्वीकार करना होगा । यही जन्म और मृत्यु है । जब तक । इसलिए, प्रक्रिया यह होनी चाहिए कि कैसे शून्य करें इन सभी प्रवृत्तियों को । यही पूर्णता है । इसे बढ़ाने के लिए नहीं । नूनम प्रमत्त: कुरुते विकर्म यद इन्द्रिय प्रीतय अापृनोति (श्री भ ५।५।४) नूनम, काश, वास्तव में, प्रमत्त: , ये पागल लोग । वे पागल हैं, जो इन प्रवृत्तियों के पीछे भागते हैं, व्यवाय अामिष मद-सेवा सेक्स, नशा और मांस खाना । वे सभी पागल हैं । प्रमत्त: । नूनम प्रमत्त: कुरुते विकर्म (श्री भ ५।५।४) । विकर्म का मतलब है कर्म हो निषेध है । हम देखते हैं, ये तीन बातें, अामिष मद सेवया, सेक्स जीवन के लिए, मांस खाने के लिए, पीने के लिए, लोग काम कर रहे हैं । न केवल काम कर रहे हैं, बेईमानी से काम कर रहे हैं । कैसे पैसा कमाऍ, कैसे पैसे कमाऍ, काला बाजार, सफेद बाजार, यह, वह, केवल इन तीन बातों के लिए । अामिष-मद-सेवा. [...]
इसलिए, नूनम प्रमत्त: कुरुते विकर्म यद इन्द्रिय प्रीतय अापृनोति (श्री भ ५।५।४) यह ऋषभदेव का निर्देश है अपने बेटे को लिए । "मेरे प्रिय बेटे, गुमराह मत होना । ये बदमाश मूर्ख, वे इन बातों के पीछे पागल हो गए हैं, मांस खाना, नशा और यौन जीवन के ।" न साधु मन्ये, "यह बिल्कुल अच्छा नहीं है ।" न साधु मन्ये । "मैं अनुमति नहीं देता, मैं नहीं कहता कि यह बहुत अच्छा है । यह बिल्कुल अच्छा नहीं है ।" न साधु मन्ये "क्यों यह अच्छा नहीं है? हम जीवन का आनंद ले रहे हैं ।" हाँ, अब तुम आनंद ले रहे हो, लेकिन यत अात्मनो अयम असन्न अपि क्लेशदा अास देह: (श्री भ ५।५।४) तो जब तक तुम इन चीजों को जारी रखते हो, तुम्हे शरीर को स्वीकार करना होगा, अौर जब तुम शरीर को स्वीकार करते हो, जन्म होना ही चाहिए, मौत होनी ही चाहिए, रोग होना ही चाहिए, और होना ही चाहिए, क्या कहा जाता है, बुढ़ापा । तुम्हे भुगतना होगा । तुम्हे भुगतना होगा । लेकिन तुम्हारी वास्तविक स्थिति न जायते है । तुम जन्म नहीं लेते हो, लेकिन तुमने अपने अाप को सशर्त बनाया है जन्म लेने के लिए । दरअसल, तुम्हारी स्थिति है कोई जन्म नहीं, अनन्त जीवन । जैसे श्री कृष्ण सनातन हैं, इसी तरह, हम में से हर एक अनन्त है क्योंकि हम कृष्ण का अभिन्न अंग हैं -एक ही गुणवत्ता ।