HI/Prabhupada 0585 - एक वैष्णव दूसरों को दुखी देखकर दुखी होता है
Lecture on BG 2.20 -- Hyderabad, November 25, 1972
इसलिए यह सोचने का कोई सवाल नहीं है कि सूर्य ग्रह में जीव नहीं हैं । उस ग्रह के लिए उपयुक्त जीव हैं । हम ब्रह्मा संहिता से सीखते हैं कि कोटिशु वसुधादि-विभूति-भिन्नम । वसुधा । वसुधा का मतलब है ग्रह । प्रत्येक ब्रह्मांड में असंख्य ग्रह हैं । यस्य प्रभा प्रभवतो जगत-अंडो-कोटि-कोटिशु अशेश-वसुधादि-विभुति-भिन्नम (ब्र स ५।४०) यह केवल एक ब्रह्मांड है । लाखों ब्रह्मांड हैं । जब चैतन्य महाप्रभु को उनके एक भक्त द्वारा अनुरोध किया गया था, कि "मेरे प्रिय भगवान, अाप अाऍ हैं । कृपा करके अाप इन सभी सशर्त आत्माओं को ले जाअों । अोर अगर आप यह सोचते हैं कि वे बडे पापी हैं, उनका उद्धार नहीं हो सकता है, फिर अाप सारे पाप मुझ पर डाल दीजिए । मैं झेल लूँगा । अाप उन्हें ले जाइए ।" यह वैष्णव तत्वज्ञान है । वैष्णव तत्वज्ञान का अर्थ है पर दुख दुखि । दरअसल, एक वैष्णव दूसरों को दुखी देखकर दुखी होता है । निजी तौर पर, उसे कोई दुख नहीं है । क्योंकि वह कृष्ण के संपर्क में है, वह कैसे दुखी हो सकता है? निजी तौर पर, उसे कोई दुख नहीं है । लेकिन वह सशर्त आत्माओं को दुखी देखकर दुखी हो जाता है । पर दुख दुखी । इसलिए, वासुदेव घोश, उन्होंने प्रभु चैतन्य महाप्रभु के अनुरोध किया कि "आप इन सब दुखी सशर्त आत्माओं का उद्धार करें ।" अौर अगर अाप सोचते हैं कि वे पापी हैं और उनका उद्धार नहीं हो सकता हैं, तो मेरे पर इन लोगों के सभी पापों को डाल दीजिए । मैं झेलूँगा, और आप उन्हें ले जाऍ ।" तो चैतन्य महाप्रभु बहुत ज्यादा प्रसन्न हुए उनके इस प्रस्ताव से और वे मुस्कुराए । उन्होंने कहा कि "यह ब्रह्माण्ड, यह ब्रह्मांड, सरसों के बीज की थैली में केवल एक सरसों के अनाज की तरह है । " हमारा कहना है कि कई ब्रह्मांड हैं । बस तुलना करें । आप सरसों के बीज का एक बैग लें और एक अनाज उठाऍ । सरसों के बीज के थैले की तुलना में इस एक अनाज का मूल्य क्या है? इसी प्रकार, यह ब्रह्मांड ऐसा ही है । इतने सारे ब्रह्मांड हैं । आधुनिक वैज्ञानिक, वे अन्य ग्रहों पर जाने के लिए कोशिश कर रहे हैं । अगर वे चले भी गए, तो श्रेय क्या है? कोटिषु वसुधादि विभूति भिन्नम । हम इतने सारे ग्रहों को नहीं जा सकते हैं । यहां तक कि उनकी गणना के अनुसार, अगर वे सर्वोच्च ग्रह को भी जाना चाहते हैं, जिसे हम ब्रह्मलोक कहते हैं उन्हे चालीस हजार साल लगेंगे आच्छा वर्ष की गणना के अनुसार । तो भगवान के सृजन में सब कुछ असीमित है । यहसीमित नहीं है हमारे ज्ञान के अनुसार । तो इतने सारे, असंख्य ब्रह्मांडों, असंख्य ग्रह हैं, और असंख्य रहने वाले जीव हैं । और वे सभी अपने कर्म के अनुसार भ्रमण कर रहे हैं । और जन्म और मृत्यु का मतलब है, एक शरीर से दूसरे में बदलना । मैं इस जीवन में एक योजना बनाता हूँ और ... क्योंकि हर किसी शारीरिक अवधारणा में है । तो जब तक हम जीवन की शारीरिक अवधारणा में हैं ... " मैं शूद्र हूँ", "मैं वैश्य हूँ", "मैं क्षत्रिय हूँ" "मैं ब्राह्मण हूं" "मैं अमुक हूँ." "मैं अमेरिकी हूँ" "मैं भारतीय हूँ" ये सभी जीवन पदों की शारीरिक अवधारणाऍ हैं । जब तक मैं जीवन की शारीरिक अवधारणा में हूँ, मुझे लगता है, "मेरा यह कर्तव्य है । ब्राह्मण के रूप में, मुझे फलां बातें करनी है ।" "अमेरिकी के रूप में, मुझे कई बातें करनी है ।" जब तक यह अवधारणा रहेगी, हमें एक और शरीर को स्वीकार करना होगा । यह प्रकृति की प्रक्रिया है । जब तक ...