HI/Prabhupada 0588 - जो हम चाहते हैं कृष्ण तुम्हें दे देंगे: Difference between revisions

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जब तक किसी को एक चुटकी भर भी इच्छा है "अगर मैं ब्रह्मा की तरह बन जाता, या जवाहर लाल नेहरू की तरह या राजा की तरह," तो मुझे एक शरीर को स्वीकार करना होगा । यह इच्छा । कृष्ण इतने दयालु हैं, इतने उदार । जो हम चाहते हैं - ये यथा माम प्रपद्यन्ते ([[Vanisource:BG 4.11|भ गी ४।११]]) - कृष्ण तुम्हें दे देंगे । कृष्ण से कुछ लेने के लिए ... जैसे ईसाइ प्रार्थना करते हैं "हे भगवान, हमें हमारी दैनिक रोटी दो ।" तो क्या कृष्ण के लिए बहुत ही मुश्किल काम है हमें देना.......? वह पहले से ही दे रहे हैं । वह हर किसी को दैनिक रोटी दे रहे हैं । तो यह प्रार्थना करने के ढंग नहीं है । उनके प्रार्थना करने का ढंग ... चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मम जन्मनि जन्मनिशवरे भवताद भक्तिर अहैतुकि त्वयि ([[Vanisource:CC Antya 20.29|चै च अन्तय २०।२९, शिक्षाश्तक ४]]) यह प्रार्थना है । हमें कुछ भी पूछने की ज़रूरह नहीं है । कृष्ण, भगवान, नें हमारे रखरखाव के लिए पर्याप्त व्यवस्था की है । पूर्णस्य पूर्णम अादाय पूर्णम ऋव अवशिष्यते ([[Vanisource:ISO Invocation|ईशो मंगलाचरन]]) लेकिन यह प्रकृति द्वारा प्रतिबंधित होती है जब हम पाप करते हैं । हम नास्तिक बन जाते हैं । हम राक्षस बन जाते हैं । तो आपूर्ति सीमित हो जाती है । तो फिर हम रोते हैं : "ओह, बारिश नहीं है । यह नहीं है, नहीं ..." यही प्रकृति का प्रतिबंध है । लेकिन भगवान की व्यवस्था में, हर किसी के लिए पर्याप्त भोजन है । एको बहूनाम विदधाति कामान । वे हर किसी के लिए आपूर्ति कर रहे हैं ।. जब तक हमें चुटकी भर भी सांसारिक इच्छा है हमारी योजना पर अमल करने के लिए, तो हमें एक भौतिक शरीर को स्वीकार करना होगा, और इसे जन्म कहा जाता है । अन्यथा, जीव को जन्म और मृत्यु नहीं है । अब, यह जन्म, और मृत्यु ... जीव, उनकी चिंगारी के साथ तुलना की जाती है, और परम भगवान की बड़ी आग के साथ । तो बड़ी आग, यही तुलना है । और छोटी चिंगारी, दोनों आग हैं । लेकिन कभी कभी चिंगारी बड़ी आग से नीचे गिर जाती है । यही हमारा पतन है । पतन का मतलब है हम भौतिक संसार में आते हैं । क्यों? बस आनंद लेने के लिए, कृष्ण की नकल करने के लिए । कृष्ण सर्वोच्च भोक्ता हैं । तो हम दास हैं । कभी कभी ... यह स्वाभाविक है । दास इच्छा करता है कि "अगर मैं मालिक की तरह मजा ले सकता ..." तो जब यह भावना या प्रस्ताव आता है, यही माया कहा जाता है । क्योंकि हम भोक्ता नहीं हो सकते हैं । यह गलत है । अगर मैं सोचता हूँ कि मैं भोक्ता हो सकता हूँ, इस भौतिक संसार में, तथाकथित ... फिर से, हर कोई भोक्ता बनने की कोशिश कर रहा है । और भोक्ता बनने का अंतिम जाल, कि कोई सोचता है कि "अब मैं भगवान बन जाऊँगा ।" यह एक आखिरी जाल है । सबसे पहले, मैं प्रबंधक, या मालिक बनना चाहता हूँ । फिर प्रधानमंत्री । फिर यह और वह । और जब सब कुछ चकित हो जाता है फिर हम सोचते हैं कि "अब मैं भगवान बन जाऊँगा ।" इसका मतलब है वही प्रवृत्ति, मालिक बनने की, कृष्ण की नकल करने की, चल रही है ।
जब तक किसी को एक चुटकी भर भी इच्छा है "अगर मैं ब्रह्मा की तरह बन जाता, या जवाहर लाल नेहरू की तरह या राजा की तरह," तो मुझे एक शरीर को स्वीकार करना होगा । यह इच्छा । कृष्ण इतने दयालु हैं, इतने उदार । जो हम चाहते हैं - ये यथा माम प्रपद्यन्ते ([[HI/BG 4.11|भ.गी. ४.११]]) - कृष्ण तुम्हें दे देंगे । कृष्ण से कुछ लेने के लिए... जैसे ईसाइ प्रार्थना करते हैं "हे भगवान, हमें हमारी दैनिक रोटी दो ।" तो क्या कृष्ण के लिए बहुत मुश्किल काम है हमें देना...? वह पहले से ही दे रहे हैं । वह हर किसी को दैनिक रोटी दे रहे हैं । तो यह प्रार्थना करने के ढंग नहीं है ।  
 
उनके प्रार्थना करने का ढंग... चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मम जन्मनि जन्मनिश्वरे भवताद भक्तिर अहैतुकि त्वयि ([[Vanisource:CC Antya 20.29|चैतन्य चरितामृत अन्त्य २०.२९, शिक्षाष्टक ४]]) | यह प्रार्थना है । हमें कुछ भी माँगने की ज़रूरत नहीं है । कृष्ण, भगवान, नें हमारे रखरखाव के लिए पर्याप्त व्यवस्था की है । पूर्णस्य पूर्णम अादाय पूर्णम एव अवशिष्यते ([[Vanisource:ISO Invocation|ईशोपनिषद मंगलाचरण]]) | लेकिन यह प्रकृति द्वारा प्रतिबंधित होती है जब हम पाप करते हैं । हम नास्तिक बन जाते हैं । हम राक्षस बन जाते हैं । तो आपूर्ति सीमित हो जाती है । तो फिर हम रोते हैं: "ओह, बारिश नहीं है । यह नहीं है, वो नहीं है..." वो प्रकृति का प्रतिबंध है । लेकिन भगवान की व्यवस्था में, हर किसी के लिए पर्याप्त भोजन है ।  
 
एको बहूनाम विदधाति कामान । वे हर किसी के लिए आपूर्ति कर रहे हैं । जब तक हमें चुटकी भर भी सांसारिक इच्छा है हमारी योजना पर अमल करने के लिए, तो हमें एक भौतिक शरीर को स्वीकार करना होगा, और इसे जन्म कहा जाता है । अन्यथा, जीव को जन्म और मृत्यु नहीं है । अब, यह जन्म, और मृत्यु... जीव, उनकी चिंगारी के साथ तुलना की जाती है, और परम भगवान की बड़ी आग के साथ । तो बड़ी आग, यही तुलना है । और छोटी चिंगारी, दोनों आग हैं । लेकिन कभी कभी चिंगारी बड़ी आग से नीचे गिर जाती है । यही हमारा पतन है । पतन का मतलब है हम भौतिक संसार में आते हैं । क्यों? बस आनंद लेने के लिए, कृष्ण की नकल करने के लिए । कृष्ण सर्वोच्च भोक्ता हैं । तो हम दास हैं । कभी कभी... यह स्वाभाविक है । दास इच्छा करता है कि "अगर मैं मालिक की तरह मजा ले सकता..."  
 
तो जब यह भावना या प्रस्ताव आता है, यही माया कहा जाता है । क्योंकि हम भोक्ता नहीं हो सकते हैं । यह गलत है । अगर मैं सोचता हूँ कि मैं भोक्ता हो सकता हूँ, इस भौतिक संसार में, तथाकथित... फिर से, हर कोई भोक्ता बनने की कोशिश कर रहा है । और भोक्ता बनने का अंतिम जाल, की कोई सोचता है कि "अब मैं भगवान बन जाऊँगा ।" यह एक आखिरी जाल है । सबसे पहले, मैं प्रबंधक, या मालिक बनना चाहता हूँ । फिर प्रधानमंत्री । फिर यह और वह । और जब सब कुछ अस्त व्यस्त हो जाता है, फिर हम सोचते हैं कि "अब मैं भगवान बन जाऊँगा ।" इसका मतलब है वही वृत्ति, मालिक बनने की, कृष्ण की नकल करने की, चल रही है ।  
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020



Lecture on BG 2.20 -- Hyderabad, November 25, 1972

जब तक किसी को एक चुटकी भर भी इच्छा है "अगर मैं ब्रह्मा की तरह बन जाता, या जवाहर लाल नेहरू की तरह या राजा की तरह," तो मुझे एक शरीर को स्वीकार करना होगा । यह इच्छा । कृष्ण इतने दयालु हैं, इतने उदार । जो हम चाहते हैं - ये यथा माम प्रपद्यन्ते (भ.गी. ४.११) - कृष्ण तुम्हें दे देंगे । कृष्ण से कुछ लेने के लिए... जैसे ईसाइ प्रार्थना करते हैं "हे भगवान, हमें हमारी दैनिक रोटी दो ।" तो क्या कृष्ण के लिए बहुत मुश्किल काम है हमें देना...? वह पहले से ही दे रहे हैं । वह हर किसी को दैनिक रोटी दे रहे हैं । तो यह प्रार्थना करने के ढंग नहीं है ।

उनके प्रार्थना करने का ढंग... चैतन्य महाप्रभु ने कहा, मम जन्मनि जन्मनिश्वरे भवताद भक्तिर अहैतुकि त्वयि (चैतन्य चरितामृत अन्त्य २०.२९, शिक्षाष्टक ४) | यह प्रार्थना है । हमें कुछ भी माँगने की ज़रूरत नहीं है । कृष्ण, भगवान, नें हमारे रखरखाव के लिए पर्याप्त व्यवस्था की है । पूर्णस्य पूर्णम अादाय पूर्णम एव अवशिष्यते (ईशोपनिषद मंगलाचरण) | लेकिन यह प्रकृति द्वारा प्रतिबंधित होती है जब हम पाप करते हैं । हम नास्तिक बन जाते हैं । हम राक्षस बन जाते हैं । तो आपूर्ति सीमित हो जाती है । तो फिर हम रोते हैं: "ओह, बारिश नहीं है । यह नहीं है, वो नहीं है..." वो प्रकृति का प्रतिबंध है । लेकिन भगवान की व्यवस्था में, हर किसी के लिए पर्याप्त भोजन है ।

एको बहूनाम विदधाति कामान । वे हर किसी के लिए आपूर्ति कर रहे हैं । जब तक हमें चुटकी भर भी सांसारिक इच्छा है हमारी योजना पर अमल करने के लिए, तो हमें एक भौतिक शरीर को स्वीकार करना होगा, और इसे जन्म कहा जाता है । अन्यथा, जीव को जन्म और मृत्यु नहीं है । अब, यह जन्म, और मृत्यु... जीव, उनकी चिंगारी के साथ तुलना की जाती है, और परम भगवान की बड़ी आग के साथ । तो बड़ी आग, यही तुलना है । और छोटी चिंगारी, दोनों आग हैं । लेकिन कभी कभी चिंगारी बड़ी आग से नीचे गिर जाती है । यही हमारा पतन है । पतन का मतलब है हम भौतिक संसार में आते हैं । क्यों? बस आनंद लेने के लिए, कृष्ण की नकल करने के लिए । कृष्ण सर्वोच्च भोक्ता हैं । तो हम दास हैं । कभी कभी... यह स्वाभाविक है । दास इच्छा करता है कि "अगर मैं मालिक की तरह मजा ले सकता..."

तो जब यह भावना या प्रस्ताव आता है, यही माया कहा जाता है । क्योंकि हम भोक्ता नहीं हो सकते हैं । यह गलत है । अगर मैं सोचता हूँ कि मैं भोक्ता हो सकता हूँ, इस भौतिक संसार में, तथाकथित... फिर से, हर कोई भोक्ता बनने की कोशिश कर रहा है । और भोक्ता बनने का अंतिम जाल, की कोई सोचता है कि "अब मैं भगवान बन जाऊँगा ।" यह एक आखिरी जाल है । सबसे पहले, मैं प्रबंधक, या मालिक बनना चाहता हूँ । फिर प्रधानमंत्री । फिर यह और वह । और जब सब कुछ अस्त व्यस्त हो जाता है, फिर हम सोचते हैं कि "अब मैं भगवान बन जाऊँगा ।" इसका मतलब है वही वृत्ति, मालिक बनने की, कृष्ण की नकल करने की, चल रही है ।