HI/Prabhupada 0593 - जैसे ही तुम कृष्णभावनामृत में आते हो, तुम प्रसन्न हो जाते हो: Difference between revisions

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तो हम सब श्री कृष्ण का अभिन्न अंग हैं, ममैवाम्शो जीव-भूत: ([[Vanisource:BG 15.7|भ गी १५।७]]) तो हमारा संबंध शाश्वत है । अब हम भूल गए हैं । हम सोच रहे हैं कि "मैं कृष्ण का नहीं हूँ., मैं अमेरिका का हूँ" "मैं भारत का हूँ" यह हमारा भ्रम है । इसलिए उचित विधि से ... विधि है सुनना (श्रवण) । और उसके कान के माध्यम से मंत्र जपना: "तुम अमेरिकी नहीं हो । तुम कृष्ण के हो । तुम अमेरिकी नहीं हो ।" "तुम भारतीय नहीं हो । तुम कृष्ण के हो ।" इस तरह, सुनते, सुनते, वह हो सकता है: "ओह, हाँ, मैं कृष्ण का हूँ ।" यही तरीका है । हम लगातार ज़ोर देना होगा: ". तुम अमेरिकी नहीं हो । तुम भारतीय नहीं हो । तुम रूसी नहीं हो । तुम कृष्ण के हो । तुम कृष्ण के हो ।" फिर हर एक मंत्र का मूल्य है; फिर वह अाता है "ओह, हाँ, मैं कृष्ण का हूँ ।" ब्रह्म भूत: प्रस ... "मैं क्यों सोच रहा था कि मैं रूसी और अमेरिकी था और यह और वह ?" ब्रह्म भूत: प्रसन्नात्मा न शौचति न कांकशति ([[Vanisource:BG 18.54|भ गी १८।५४]]) । जैसे ही वह उस स्तर पर आता है, उसे कोई विलाप नहीं रहता है । यहाँ, अमेरिकी या भारतीय या रूसी के रूप में, हमें दो चीजें मिली हैं : विलाप और उत्कंठा । हर कोई उत्कंठित है, जो उसके अधिकार में नहीं है : "मेरे पास यह होना चाहिए ।" और जो उसके पास है, अगर वह खो जाए, वह विलाप करता है, "ओह, मैंने खो दिया है ।" इसलिए ये दोनो काम हो रहे हैं । जब तक तुम आते हो, कृष्णभावनामृत में नहीं आते हो, तुम्हारे, ये दो काम होते रहेंगे, विलाप और उत्कंठा । और जैसे ही तुम कृष्णभावनामृत में आते हो, तुम प्रसन्न हो जाते हो । विलाप का कोई कारण नहीं है । उत्कंठा का कोई कारण नहीं है । सब कुछ पूर्ण है । कृष्ण पूर्ण हैं । इसलिए वह मुक्त हो जाता है । यही ब्रह्म भूत: स्तर है । तो यह सुनने से जागृत किया जा सकता है । इसलिए वैदिक मंत्र श्रुति भी कहा जाता है । कान के माध्यम से इस जागृति को प्राप्त करना होता है । श्रवणम् कीर्तनम् विष्णु ([[Vanisource:SB 7.5.23|श्री भ ७।५।२३]]) हमेशा हमें सुनना होता और विष्णु के बारे में जप करना होगा । हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे । फिर चेतो दर्पण मार्जनम ([[Vanisource:CC Antya 20.12|चै च अन्तय २०।१२]]) सब कुछ शुद्ध हो जाएगा, और वह समझेगा कि "मैं कृष्ण के शाश्वत दास हूं ।" (विराम)
प्रभुपाद: तो हम सब श्री कृष्ण के अभिन्न अंग हैं, ममैवांशो जीव-भूत: ([[HI/BG 15.7|भ.गी. १५.७]]) | तो हमारा संबंध शाश्वत है । अभी हम भूल गए हैं । हम सोच रहे हैं कि "मैं कृष्ण का नहीं हूँ., मैं अमेरिका का हूँ" "मैं भारत का हूँ" यह हमारा भ्रम है । इसलिए उचित विधि से... विधि है सुनना (श्रवण) । और उसके कान के माध्यम से मंत्र जपना: "तुम अमेरिकी नहीं हो । तुम कृष्ण के हो । तुम अमेरिकी नहीं हो ।" "तुम भारतीय नहीं हो । तुम कृष्ण के हो ।" इस तरह, सुनते, सुनते, वह हो सकता है: "ओह, हाँ, मैं कृष्ण का हूँ ।" यही तरीका है । हमें लगातार ज़ोर देना होगा: "तुम अमेरिकी नहीं हो । तुम भारतीय नहीं हो । तुम रूसी नहीं हो । तुम कृष्ण के हो । तुम कृष्ण के हो ।" फिर हर एक मंत्र का मूल्य है; फिर वह अाता है "ओह, हाँ, मैं कृष्ण का हूँ ।"  


जब तुम वैष्णव हो जाते हो, ब्राह्मण उसमे पहले से ही शामिल है । सामान्य प्रक्रिया है, जब तक तुम सत्त्व-गुण के मंच पर नहीं अाते हो, वह कृष्णभावनामृत क्या है यह समझ नहीं सकता है । यही सामान्य नियम है । लेकिन यह कृष्ण, भक्ति सेवा, कृष्णभावनामृत आंदोलन, इतना अच्छा है कि केवल कृष्ण के बारे में सुन कर, तुम ब्राह्मणवादी मंच पर तुरंत अा जाते हो । नष्ट प्रायेषु अभद्रषु नित्यम् भागवत-सेवया ([[Vanisource:SB 1.2.18|श्री भ १।२।१८]]) । अभद्र । अभद्र का मतलब है भौतिक प्रकृति के तीन गुण । यहां तक ​​कि ब्राह्मणवादी गुण भी । शूद्र गुणवत्ता, वैश्य गुणवत्ता, या क्षत्रिय गुणवत्ता, या यहां तक ​​कि ब्राह्मण गुणवत्ता । वे सभी अभद्र हैं । क्योंकि ब्राह्मण गुणवत्ता में, फिर वही पहचान आती है. "ओह, मैं ब्राह्मण हूं । कोई भी जन्म के बिना ब्राह्मण बन नहीं सकता है । मैं महान हूँ । मैं ब्राह्मण हूं । " यह झूठी प्रतिष्ठा आती है । तो वह बंध जाता है । यहां तक ​​कि ब्राह्मणवादी गुणों में । जब वह आध्यात्मिक मंच पर आता है, वास्तव में, जैसे चैतन्य महाप्रभु ने कहा, "मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, मैं सन्यासी नहीं हूँ, मैं गृहस्थ नहीं हूँ, मैं ब्रह्मचारी नहीं हूँ, " नहीं नहीं नहीं.........ये आठ सिद्धांत, वर्णाश्रम, वे इनकार करते हैं । तो फिर अाप क्या हैं ? गोपी-भर्तु: पद-कमलयोर दास-दासानुदास ([[Vanisource:CC Madhya 13.80|चै च मध्य १३।८०]]) "मैं कृष्ण के दास के दाद का दास हूं । " यह आत्म बोध है ।
ब्रह्म-भूत: प्रसन्नात्मा... "मैं क्यों सोच रहा था कि मैं रूसी और अमेरिकी था और यह और वह ?" ब्रह्म-भूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति ([[HI/BG 18.54|भ.गी. १८.५४]]) । जैसे ही वह उस स्तर पर आता है, उसे कोई विलाप नहीं रहता है । यहाँ, अमेरिकी या भारतीय या रूसी के रूप में, हमें दो चीजें मिली हैं: विलाप और उत्कंठा । हर कोई उत्कंठित है, जो उसके अधिकार में नहीं है: "मेरे पास यह होना चाहिए ।" और जो उसके पास है, अगर वह खो जाए, वह विलाप करता है, "ओह, मैंने खो दिया है ।" इसलिए ये दोनो काम हो रहे हैं ।
 
जब तक तुम आते हो, कृष्णभावनामृत में नहीं आते हो, तुम्हारे, ये दो काम होते रहेंगे, विलाप और उत्कंठा । और जैसे ही तुम कृष्णभावनामृत में आते हो, तुम प्रसन्न हो जाते हो । विलाप का कोई कारण नहीं है । उत्कंठा का कोई कारण नहीं है । सब कुछ पूर्ण है । कृष्ण पूर्ण हैं । तो वह मुक्त हो जाता है । यही ब्रह्म-भूत: स्तर है । तो यह सुनने से जागृत किया जा सकता है । इसलिए वैदिक मंत्र श्रुति भी कहा जाता है । कान के माध्यम से इसे जागृति को प्राप्त करना होता है । श्रवणम कीर्तनम विष्णो ([[Vanisource:SB 7.5.23-24|श्रीमद भागवतम ७.५.२३]]) | हमेशा हमें सुनना होता और विष्णु के बारे में जप करना होगा । हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे । फिर चेतो दर्पण मार्जनम ([[Vanisource:CC Antya 20.12|चैतन्य चरितामृत अन्त्य २०.१२]]), सब कुछ शुद्ध हो जाएगा, और वह समझेगा कि "मैं कृष्ण के शाश्वत दास हूं ।" (तोड़)
 
प्रभुपाद: जब तुम वैष्णव हो जाते हो, ब्राह्मण उसमे पहले से ही शामिल है । सामान्य प्रक्रिया है, जब तक तुम सत्त्व-गुण के मंच पर नहीं अाते हो, वह कृष्णभावनामृत क्या है यह समझ नहीं सकता है । यही सामान्य नियम है । लेकिन यह कृष्ण, भक्ति सेवा, कृष्णभावनामृत आंदोलन, इतना अच्छा है कि केवल कृष्ण के बारे में सुन कर, तुम ब्राह्मणवादी मंच पर तुरंत अा जाते हो । नष्ट प्रायेषु अभद्रेषु नित्यम भागवत-सेवया ([[Vanisource:SB 1.2.18|श्रीमद भागवतम १.२.१८]]) । अभद्र । अभद्र का मतलब है भौतिक प्रकृति के तीन गुण । यहां तक ​​कि ब्राह्मणवादी गुण भी । शूद्र गुणवत्ता, वैश्य गुणवत्ता, या क्षत्रिय गुणवत्ता, या यहां तक ​​कि ब्राह्मण गुणवत्ता । वे सभी अभद्र हैं । क्योंकि ब्राह्मण गुणवत्ता में, फिर वही पहचान आती है | "ओह, मैं ब्राह्मण हूं । कोई भी जन्म के बिना ब्राह्मण बन नहीं सकता है । मैं महान हूँ । मैं ब्राह्मण हूं ।" यह झूठी प्रतिष्ठा आती है ।  
 
तो वह बंध जाता है । यहां तक ​​कि ब्राह्मणवादी गुणों में भी । जब वह आध्यात्मिक मंच पर आता है, वास्तव में, जैसे चैतन्य महाप्रभु ने कहा, "मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, मैं सन्यासी नहीं हूँ, मैं गृहस्थ नहीं हूँ, मैं ब्रह्मचारी नहीं हूँ, " नहीं, नहीं, नहीं... ये आठ सिद्धांत, वर्णाश्रम, वे इनकार करते हैं । तो फिर अाप क्या हैं ? गोपी-भर्तु: पद-कमलयोर दास-दासानुदास ([[Vanisource:CC Madhya 13.80|चैतन्य चरितामृत मध्य १३.८०]]) | "मैं कृष्ण के दास के दास का दास हूं ।" यह आत्म साक्षात्कार है ।  
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020



Lecture on BG 2.20 -- Hyderabad, November 25, 1972

प्रभुपाद: तो हम सब श्री कृष्ण के अभिन्न अंग हैं, ममैवांशो जीव-भूत: (भ.गी. १५.७) | तो हमारा संबंध शाश्वत है । अभी हम भूल गए हैं । हम सोच रहे हैं कि "मैं कृष्ण का नहीं हूँ., मैं अमेरिका का हूँ" "मैं भारत का हूँ" यह हमारा भ्रम है । इसलिए उचित विधि से... विधि है सुनना (श्रवण) । और उसके कान के माध्यम से मंत्र जपना: "तुम अमेरिकी नहीं हो । तुम कृष्ण के हो । तुम अमेरिकी नहीं हो ।" "तुम भारतीय नहीं हो । तुम कृष्ण के हो ।" इस तरह, सुनते, सुनते, वह हो सकता है: "ओह, हाँ, मैं कृष्ण का हूँ ।" यही तरीका है । हमें लगातार ज़ोर देना होगा: "तुम अमेरिकी नहीं हो । तुम भारतीय नहीं हो । तुम रूसी नहीं हो । तुम कृष्ण के हो । तुम कृष्ण के हो ।" फिर हर एक मंत्र का मूल्य है; फिर वह अाता है "ओह, हाँ, मैं कृष्ण का हूँ ।"

ब्रह्म-भूत: प्रसन्नात्मा... "मैं क्यों सोच रहा था कि मैं रूसी और अमेरिकी था और यह और वह ?" ब्रह्म-भूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति (भ.गी. १८.५४) । जैसे ही वह उस स्तर पर आता है, उसे कोई विलाप नहीं रहता है । यहाँ, अमेरिकी या भारतीय या रूसी के रूप में, हमें दो चीजें मिली हैं: विलाप और उत्कंठा । हर कोई उत्कंठित है, जो उसके अधिकार में नहीं है: "मेरे पास यह होना चाहिए ।" और जो उसके पास है, अगर वह खो जाए, वह विलाप करता है, "ओह, मैंने खो दिया है ।" इसलिए ये दोनो काम हो रहे हैं ।

जब तक तुम आते हो, कृष्णभावनामृत में नहीं आते हो, तुम्हारे, ये दो काम होते रहेंगे, विलाप और उत्कंठा । और जैसे ही तुम कृष्णभावनामृत में आते हो, तुम प्रसन्न हो जाते हो । विलाप का कोई कारण नहीं है । उत्कंठा का कोई कारण नहीं है । सब कुछ पूर्ण है । कृष्ण पूर्ण हैं । तो वह मुक्त हो जाता है । यही ब्रह्म-भूत: स्तर है । तो यह सुनने से जागृत किया जा सकता है । इसलिए वैदिक मंत्र श्रुति भी कहा जाता है । कान के माध्यम से इसे जागृति को प्राप्त करना होता है । श्रवणम कीर्तनम विष्णो (श्रीमद भागवतम ७.५.२३) | हमेशा हमें सुनना होता और विष्णु के बारे में जप करना होगा । हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे । फिर चेतो दर्पण मार्जनम (चैतन्य चरितामृत अन्त्य २०.१२), सब कुछ शुद्ध हो जाएगा, और वह समझेगा कि "मैं कृष्ण के शाश्वत दास हूं ।" (तोड़)

प्रभुपाद: जब तुम वैष्णव हो जाते हो, ब्राह्मण उसमे पहले से ही शामिल है । सामान्य प्रक्रिया है, जब तक तुम सत्त्व-गुण के मंच पर नहीं अाते हो, वह कृष्णभावनामृत क्या है यह समझ नहीं सकता है । यही सामान्य नियम है । लेकिन यह कृष्ण, भक्ति सेवा, कृष्णभावनामृत आंदोलन, इतना अच्छा है कि केवल कृष्ण के बारे में सुन कर, तुम ब्राह्मणवादी मंच पर तुरंत अा जाते हो । नष्ट प्रायेषु अभद्रेषु नित्यम भागवत-सेवया (श्रीमद भागवतम १.२.१८) । अभद्र । अभद्र का मतलब है भौतिक प्रकृति के तीन गुण । यहां तक ​​कि ब्राह्मणवादी गुण भी । शूद्र गुणवत्ता, वैश्य गुणवत्ता, या क्षत्रिय गुणवत्ता, या यहां तक ​​कि ब्राह्मण गुणवत्ता । वे सभी अभद्र हैं । क्योंकि ब्राह्मण गुणवत्ता में, फिर वही पहचान आती है | "ओह, मैं ब्राह्मण हूं । कोई भी जन्म के बिना ब्राह्मण बन नहीं सकता है । मैं महान हूँ । मैं ब्राह्मण हूं ।" यह झूठी प्रतिष्ठा आती है ।

तो वह बंध जाता है । यहां तक ​​कि ब्राह्मणवादी गुणों में भी । जब वह आध्यात्मिक मंच पर आता है, वास्तव में, जैसे चैतन्य महाप्रभु ने कहा, "मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, मैं सन्यासी नहीं हूँ, मैं गृहस्थ नहीं हूँ, मैं ब्रह्मचारी नहीं हूँ, " नहीं, नहीं, नहीं... ये आठ सिद्धांत, वर्णाश्रम, वे इनकार करते हैं । तो फिर अाप क्या हैं ? गोपी-भर्तु: पद-कमलयोर दास-दासानुदास (चैतन्य चरितामृत मध्य १३.८०) | "मैं कृष्ण के दास के दास का दास हूं ।" यह आत्म साक्षात्कार है ।