HI/Prabhupada 0594 - आत्मा को हमारे भौतिक उपकरणों से मापना असंभव है: Difference between revisions

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इसलिए परिभाषा मिलती है नकारने से । सीधे से हम सराहना नहीं कर सकते हैं कि क्या है वह आध्यात्मिक टुकड़ा, कण, जो इस शरीर के भीतर है । क्योंकि आत्मा की लंबाई और चौड़ाई मापना असंभव है हमारी भौतिक उपकरणों से हालांकि वैज्ञानिकों का कहना है कि हम यह माप सकते हैं । वैसे भी, अगर यह संभव है भी तो, सब से पहले, अापको देखना होता कि आत्मा स्थित कहॉ है । फिर आप इसे मापने का प्रयास कर सकते हैं । सबसे पहले, आप देख भी नहीं सकते हैं । क्योंकि यह बहुत, बहुत छोटा है, बालों की नोक का एक दस हज़ारवां हिस्सा । अब, क्योंकि हम नहीं देख सकते हैं, हमारे प्रयोगात्मक ज्ञान से हम सराहना नहीं कर सकते हैं; इसलिए कृष्ण आत्मा के अस्तित्व का वर्णन कर रहे हैं, अात्मा, एक नकारात्मक तरीके से, "ये यह नहीं है ।" कभी कभी हम नहीं समझ सकते हैं, जब स्पष्टीकरण दिया जाता है: "ये यह नहीं है ।" अगर मैं व्यक्त नहीं कर सकत यह क्या है, तो हम यह एक नकारात्मक तरीके से व्यक्त कर सकते हैं "ये यह नहीं है ।" तो वह क्या है "यह नहीं है ? "यह नहीं है " का मतलब है कि "यह भौितक नहीं है ।" आत्मा भौतिक नहीं है । लेकिन हमे< भौतिक चीज़ों का अनुभव है । तो फिर कैसे यह समझें की यह नकारात्मक है ? यह अगली श्लोक में विस्तार से बताया गया है कि नैनम् छिन्दन्ति शस्त्राणि आप काट नहीं सकते हैं, आत्मा को किसी भी हथियार से, चाकू, तलवार, या थीस्ल से । यह संभव नहीं है । नैनम् छिन्दन्ति शस्त्राणि मायावाद तत्वज्ञअन कहता है कि , "मैं ब्रह्मण हूं । मेरे भ्रम के कारण, मुझे लगता है कि मैं अलग हूँ । अन्यथा मैं एक हूँ ।" लेकिन कृष्ण कहते हैं कि ममैवाम्शो जीव-भूत: ([[Vanisource:BG 15.7|भ गी १५।७]]) तो क्या इसका मतलब है कि, पूरी अात्मा से, इस टुकड़े को अलग किया गया है काट कर ? नहीं । नैणम् छिन्दन्ति शस्त्राणि । इसके काट कर टुकड़े नहीं किए जा सकते हैं । तो फिर? तो जवाब यह है कि आत्मा का टुकड़ा अनन्त है । ऐसा नहीं है कि माया के कारण यह अलग हो गया है । नहीं । यह कैसे हो सकता है ? क्योंकि इसे टुकड़ों में काटा नहीं जा सकता है । अगर मैं कहता हूँ ... जैसे वे तर्क देते हैं: घटाकाश-पोटाकाश कि "बर्तन के बाहर आकाश और बर्तन के भीतर आकाश, बर्तन की दीवार के कारण, बर्तन के भीतर जो आकाश है वह अलग हो जाता है । " लेकिन यह कैसे अलग किया जा सकता है ? इसके काट कर टुकड़े नहीं किए जा सकते हैं ।
तो परिभाषा मिलती है नकारने से । सीधे से हम सराहना नहीं कर सकते हैं कि वह आध्यात्मिक टुकड़ा, कण, क्या है, जो इस शरीर के भीतर है । क्योंकि आत्मा की लंबाई और चौड़ाई मापना असंभव है हमारे भौतिक उपकरणों से, हालांकि वैज्ञानिकों का कहना है कि हम यह माप सकते हैं । वैसे भी, अगर यह संभव है तो भी, सब से पहले, अापको देखना होता कि आत्मा स्थित कहॉ है । फिर आप इसे मापने का प्रयास कर सकते हैं । सबसे पहले, आप देख भी नहीं सकते हैं । क्योंकि यह बहुत, बहुत छोटा है, बालों की नोक का एक दस हज़ारवां हिस्सा । अब, क्योंकि हम नहीं देख सकते हैं, हमारे प्रयोगात्मक ज्ञान से हम सराहना नहीं कर सकते हैं; इसलिए कृष्ण आत्मा के अस्तित्व का वर्णन कर रहे हैं, अात्मा, एक नकारात्मक तरीके से, "ये यह नहीं है ।"  


तर्क की खातिर ... दरअसल, हम बहुत, बहुत छोटे कण हैं, आत्मा की आणविक हिस्से हैं । तो ... और वे सदा हिस्सा ही रहते हैं । ऐसा नहीं है कि अप्रत्यक्ष रूप में यह हिस्सा बन गए हैं, और वे फिर से मिल सकते हैं । यह मिल सकते हैं, लेकिन एक सजातीय तरीके से नहीं, मिश्रित तरीके में । नहीं. अगर यह जुड़ता भी है, आत्मा अपने अलग अस्तित्व रखती है । जैसे एक हरे रंग की चिड़िया, जब वह पेड़ में प्रवेश करती है, प्रतीत होता है कि यह पक्षी अब पेड़ में विलय हो गई है , लेकिन ऐसा नहीं है । पक्षी पेड़ पर होते हुए भी अपनी पहचान रखती है । यही निष्कर्ष है । हालांकि पेड़ और पक्षी दोनों हरे रंग के हैं, एसा प्रतीत होता है कि पक्षी अब पेड़ में विलय हो गया है इस विलय का मतलब यह नहीं है कि, पक्षी और पेड़ एक हो गए हैं । नहीं । ऐसा प्रतीत होता है । क्योंकि वे दोनों एक ही रंग के हैं, ... प्रतीत होता है कि पक्षी है ..... पक्षी का अब अस्तित्व नहीं है । लेकिन यह एक तथ्य नहीं है । पक्षी है ... इसी तरह, हम व्यक्तिगत आत्मा हैं । गुणवत्ता एक है, मान लीजिए, हरापन, जब कोई ब्राह्मण तेज में विलीन हो जाता है, जीव अपनी पहचान खोना नहीं देता है । और क्योंकि वह पहचान खोता नहीं, और क्योंकि जीव स्वभाव से, हर्षित है, वह कई दिनों तक अवैयक्तिक ब्रह्मण तेज में नहीं रह सकता है । क्योंकि वह अानन्द खोजता है । इस अानन्द का मतलब है किस्में
कभी कभी जब हम समझ नहीं सकते हैं, तब स्पष्टीकरण दिया जाता है: "ये यह नहीं है ।" अगर मैं व्यक्त नहीं कर सकता यह क्या है, तो हम यह एक नकारात्मक तरीके से व्यक्त कर सकते हैं "ये यह नहीं है ।" तो वह क्या है "यह नहीं है" ? "यह नहीं है" का मतलब है कि "यह भौतिक नहीं है ।" आत्मा भौतिक नहीं है । लेकिन हमे भौतिक चीज़ों का अनुभव है । तो फिर कैसे यह समझें की यह नकारात्मक है ? यह अगले श्लोक में विस्तार से बताया गया है कि नैनम छिन्दन्ति शस्त्राणि | आप काट नहीं सकते हैं, आत्मा को किसी भी हथियार से, चाकू, या तलवार से । यह संभव नहीं है । नैनम छिन्दन्ति शस्त्राणि | मायावाद तत्वज्ञान कहता है कि, "मैं ब्रह्म हूं ।
 
मेरे भ्रम के कारण, मुझे लगता है कि मैं अलग हूँ । अन्यथा मैं एक हूँ ।" लेकिन कृष्ण कहते हैं कि ममैवांशो जीव-भूत: ([[HI/BG 15.7|भ.गी. १५.७]]) | तो क्या इसका मतलब है कि, पूरी अात्मा से, इस टुकड़े को अलग किया गया है काट कर ? नहीं । नैनम छिन्दन्ति शस्त्राणि । इसके काट कर टुकड़े नहीं किया जा सकता । तो फिर? तो जवाब यह है कि आत्मा का टुकड़ा शाश्वत है । ऐसा नहीं है कि माया के कारण यह अलग हो गया है । नहीं । यह कैसे हो सकता है ? क्योंकि इसे टुकड़ों में काटा नहीं जा सकता है ।
 
अगर मैं कहता हूँ... जैसे वे तर्क देते हैं: घटाकाश-पोटाकाश, कि "बर्तन के बाहर का आकाश और बर्तन के भीतर का आकाश, बर्तन की दीवार के कारण, बर्तन के भीतर जो आकाश है वह अलग हो जाता है ।" लेकिन यह कैसे अलग किया जा सकता है ? इसे काट कर टुकड़े नहीं किया जा सकता । तर्क की खातिर... वास्तव में, हम बहुत, बहुत छोटे कण हैं, आत्मा के आण्विक हिस्से हैं । तो... और वे सदा हिस्सा ही रहते हैं । ऐसा नहीं है कि अप्रत्यक्ष रूप में यह हिस्सा बन गए हैं, और वे फिर से मिल सकते हैं । यह मिल सकते हैं, लेकिन एक सजातीय तरीके से नहीं, मिश्रित तरीके में । नहीं | अगर यह जुड़ता भी है, आत्मा अपना अलग अस्तित्व रखती है ।  
 
जैसे एक हरे रंग की चिड़िया, जब वह पेड़ में प्रवेश करती है, प्रतीत होता है कि यह पक्षी अब पेड़ में विलीन हो गई है, लेकिन ऐसा नहीं है । पक्षी पेड़ पर होते हुए भी अपनी पहचान रखती है । यही निष्कर्ष है । हालांकि पेड़ और पक्षी दोनों हरे रंग के हैं, एसा प्रतीत होता है कि पक्षी अब पेड़ में विलीन हो गया है, इस विलीन का मतलब यह नहीं है कि, पक्षी और पेड़ एक हो गए हैं । नहीं । ऐसा प्रतीत होता है । क्योंकि वे दोनों एक ही रंग के हैं, प्रतीत होता है कि पक्षी... पक्षी का अब अस्तित्व नहीं है । लेकिन यह एक तथ्य नहीं है । पक्षी है...  
 
इसी तरह, हम व्यक्तिगत आत्मा हैं । गुणवत्ता एक है, मान लीजिए, हरापन, जब कोई ब्रह्म तेज में विलीन हो जाता है, जीव अपनी पहचान खोता नहीं है । और क्योंकि वह पहचान खोता नहीं है, और क्योंकि जीव स्वभाव से, हर्षित है, वह कई दिनों तक अवैयक्तिक ब्रह्म तेज में नहीं रह सकता है । क्योंकि वह अानन्द खोजता है । इस अानन्द का मतलब है विविधता ।  
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Latest revision as of 18:55, 17 September 2020



Lecture on BG 2.23 -- Hyderabad, November 27, 1972

तो परिभाषा मिलती है नकारने से । सीधे से हम सराहना नहीं कर सकते हैं कि वह आध्यात्मिक टुकड़ा, कण, क्या है, जो इस शरीर के भीतर है । क्योंकि आत्मा की लंबाई और चौड़ाई मापना असंभव है हमारे भौतिक उपकरणों से, हालांकि वैज्ञानिकों का कहना है कि हम यह माप सकते हैं । वैसे भी, अगर यह संभव है तो भी, सब से पहले, अापको देखना होता कि आत्मा स्थित कहॉ है । फिर आप इसे मापने का प्रयास कर सकते हैं । सबसे पहले, आप देख भी नहीं सकते हैं । क्योंकि यह बहुत, बहुत छोटा है, बालों की नोक का एक दस हज़ारवां हिस्सा । अब, क्योंकि हम नहीं देख सकते हैं, हमारे प्रयोगात्मक ज्ञान से हम सराहना नहीं कर सकते हैं; इसलिए कृष्ण आत्मा के अस्तित्व का वर्णन कर रहे हैं, अात्मा, एक नकारात्मक तरीके से, "ये यह नहीं है ।"

कभी कभी जब हम समझ नहीं सकते हैं, तब स्पष्टीकरण दिया जाता है: "ये यह नहीं है ।" अगर मैं व्यक्त नहीं कर सकता यह क्या है, तो हम यह एक नकारात्मक तरीके से व्यक्त कर सकते हैं "ये यह नहीं है ।" तो वह क्या है "यह नहीं है" ? "यह नहीं है" का मतलब है कि "यह भौतिक नहीं है ।" आत्मा भौतिक नहीं है । लेकिन हमे भौतिक चीज़ों का अनुभव है । तो फिर कैसे यह समझें की यह नकारात्मक है ? यह अगले श्लोक में विस्तार से बताया गया है कि नैनम छिन्दन्ति शस्त्राणि | आप काट नहीं सकते हैं, आत्मा को किसी भी हथियार से, चाकू, या तलवार से । यह संभव नहीं है । नैनम छिन्दन्ति शस्त्राणि | मायावाद तत्वज्ञान कहता है कि, "मैं ब्रह्म हूं ।

मेरे भ्रम के कारण, मुझे लगता है कि मैं अलग हूँ । अन्यथा मैं एक हूँ ।" लेकिन कृष्ण कहते हैं कि ममैवांशो जीव-भूत: (भ.गी. १५.७) | तो क्या इसका मतलब है कि, पूरी अात्मा से, इस टुकड़े को अलग किया गया है काट कर ? नहीं । नैनम छिन्दन्ति शस्त्राणि । इसके काट कर टुकड़े नहीं किया जा सकता । तो फिर? तो जवाब यह है कि आत्मा का टुकड़ा शाश्वत है । ऐसा नहीं है कि माया के कारण यह अलग हो गया है । नहीं । यह कैसे हो सकता है ? क्योंकि इसे टुकड़ों में काटा नहीं जा सकता है ।

अगर मैं कहता हूँ... जैसे वे तर्क देते हैं: घटाकाश-पोटाकाश, कि "बर्तन के बाहर का आकाश और बर्तन के भीतर का आकाश, बर्तन की दीवार के कारण, बर्तन के भीतर जो आकाश है वह अलग हो जाता है ।" लेकिन यह कैसे अलग किया जा सकता है ? इसे काट कर टुकड़े नहीं किया जा सकता । तर्क की खातिर... वास्तव में, हम बहुत, बहुत छोटे कण हैं, आत्मा के आण्विक हिस्से हैं । तो... और वे सदा हिस्सा ही रहते हैं । ऐसा नहीं है कि अप्रत्यक्ष रूप में यह हिस्सा बन गए हैं, और वे फिर से मिल सकते हैं । यह मिल सकते हैं, लेकिन एक सजातीय तरीके से नहीं, मिश्रित तरीके में । नहीं | अगर यह जुड़ता भी है, आत्मा अपना अलग अस्तित्व रखती है ।

जैसे एक हरे रंग की चिड़िया, जब वह पेड़ में प्रवेश करती है, प्रतीत होता है कि यह पक्षी अब पेड़ में विलीन हो गई है, लेकिन ऐसा नहीं है । पक्षी पेड़ पर होते हुए भी अपनी पहचान रखती है । यही निष्कर्ष है । हालांकि पेड़ और पक्षी दोनों हरे रंग के हैं, एसा प्रतीत होता है कि पक्षी अब पेड़ में विलीन हो गया है, इस विलीन का मतलब यह नहीं है कि, पक्षी और पेड़ एक हो गए हैं । नहीं । ऐसा प्रतीत होता है । क्योंकि वे दोनों एक ही रंग के हैं, प्रतीत होता है कि पक्षी... पक्षी का अब अस्तित्व नहीं है । लेकिन यह एक तथ्य नहीं है । पक्षी है...

इसी तरह, हम व्यक्तिगत आत्मा हैं । गुणवत्ता एक है, मान लीजिए, हरापन, जब कोई ब्रह्म तेज में विलीन हो जाता है, जीव अपनी पहचान खोता नहीं है । और क्योंकि वह पहचान खोता नहीं है, और क्योंकि जीव स्वभाव से, हर्षित है, वह कई दिनों तक अवैयक्तिक ब्रह्म तेज में नहीं रह सकता है । क्योंकि वह अानन्द खोजता है । इस अानन्द का मतलब है विविधता ।