HI/Prabhupada 0598 - हम नहीं समझ सकते हैं कि वे कितने महान हैं ! यह हमारी मूर्खता है: Difference between revisions

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तो वास्तव में, परम, अंतिम शब्द निरपेक्ष सत्य का व्यक्ति हैं । लेकिन, लेकिन दुर्भाग्य से, जो मूढ हैं, या कम बुद्धिमान, अवजानन्ति माम मूढा मानुशिम तनुम अाश्रितम ([[Vanisource:BG 9.11|भ गी ९।११]]) "ओह, कृष्ण? वे भगवान हो सकते हैं, लेकिन वे एक व्यक्ति बनें, माया की मदद लेकर ।" यह मायावाद तत्वज्ञान है । वे माया का अध्ययन कर रहे हैं, वे भगवान को भी माया के तहत डालते हैं । यह मायावाद तत्वज्ञान है । लेकिन भगवान माया नहीं हैं । भगवान माया द्वारा कभी ढके नहीं जाते हैं । श्री कृष्ण कहते हैं कि माम एव प्रपद्यनंते मायाम एताम तरन्ति ते ([[Vanisource:BG 7.14|भ गी ७।१४]]) "जो मुझे आत्मसमर्पण करता है, वह माया के चंगुल से मुक्त हो जाता है ।" कैसे कृष्ण माया के तहत हो सकते हैं ? यह बहुत अच्छा तत्वज्ञान नहीं है । केवल कृष्ण को आत्मसमर्पण करके, आप माया से मुक्त हो जाते हैं । कैसे वह व्यक्ति, श्रीभगवान, कृष्ण, माया के तहत हो सकता हैं ? इसलिए कृष्ण नें कहा अवजानन्ति माम मूढा मानुशिम तनुम अाश्रितम परम भावम अजानन्त: ([[Vanisource:BG 9.11|भ गी ९।११]]) उन्हं पता नहीं है कि कितनी शक्ति है भगवान में, वे कितने शक्तिशाली हैं । वे अपनी शक्ति के साथ परम भगवान की शक्ति की तुलना कर रहे हैं । मेंढक का तत्वज्ञान । डॉ. मेंढक । मेंढक विचार कर रहा है "अटलांटिक महासागर इस कुऍ से थोडा बड़ा हो सकता है ।" क्योंकि वह हमेशा रह रहा है । कूप-मंडुक-न्याय । यह है, संस्कृत में कहा जाता है, कूप-मंडुक-न्याय । कूप का मतलब है कूआँ, और मंडुक का मतलब है मेंढक । मेंढक हमेशा कुऍ के अंदर रहता हैं और कोई उसे सूचित करता है कि पानी का एक और जलाशय है, अटलांटिक महासागर, वह बस गणना करता है कि "यह इस कुऍ से थोडा अधिक होगा, इस कुऍ से थोडा अधिक ।" लेकिन वह समझ नहीं सकता है कि वे कितना महान हैं । तो भगवान महान हैं । हम नहीं समझ सकते हैं कि वे कितने महान हैं ! यह हमारी मूर्खता है । हम बस गणना कर रहे हैं: "वे मुझ से एक इंच अधिक हो सकते हैं । या मुझसे एक फुट अधिक हो सकते हैं ।" वह मानसिक कल्पना है । इसलिए कृष्ण कहते हैं, मनुष्याणाम् सहस्रेशु कश्चिद यतति सिद्धये: ([[Vanisource:BG 7.3|भ गी ७।३]]) "कई लाखों पुरुषों में से, कोई एक अपना जीवन सफल बनाने का प्रयास कर सकता है, निरपेक्ष सत्य को समझ कर ।" और यतताम अपि सिद्धानाम् कश्चिन माम वेत्ति तत्वत: ([[Vanisource:BG 7.3|भ गी ७।३]])
तो वास्तव में, परम, निरपेक्ष सत्य का अंतिम शब्द व्यक्ति हैं । लेकिन, लेकिन दुर्भाग्य से, जो मूढ हैं, या कम बुद्धिमान, अवजानन्ति माम मूढा मानुषीम तनुम अाश्रितम ([[HI/BG 9.11|भ.गी. ९.११]]), "ओह, कृष्ण? वे भगवान हो सकते हैं, लेकिन वे एक व्यक्ति बनें, माया की मदद लेकर ।" यह मायावाद तत्वज्ञान है । वे माया का अध्ययन कर रहे हैं, वे भगवान को भी माया के तहत डालते हैं । यह मायावाद तत्वज्ञान है । लेकिन भगवान माया नहीं हैं । भगवान माया द्वारा कभी ढके नहीं जाते हैं ।  


तो हम अपने मानसिक अटकलें द्वारा भगवान को नहीं समझ सकते हैं । न तो हम आत्मा का माप है क्या यह समझ सकते हैं यह संभव नहीं है । इसलिए हम सबसे उच्च अधिकारी से जानकारी लेनी होगा, श्री कृष्ण, भगवान का स्वभाव क्या है, निरपेक्ष सत्य का स्वभाव क्या है, आत्मा का स्वभाव क्या है । हमें सुनना होगा हमें सुनना होगा । इसलिए वैदिक साहित्य को श्रुति कहा जाता है । आप प्रयोग नहीं कर सकते । यह संभव नहीं है । लेकिन दुर्भाग्य से, लोगों का एक वर्ग है जिन्हे लगता है कि वे प्रयोग कर सकते हैं, वे मानसिक अटकलों से निरपेक्ष का पता कर सकते हैं । ब्रह्म संहिता का कहना है:
कृष्ण कहते हैं कि माम एव प्रपद्यन्ते मायाम एताम तरन्ति ते ([[HI/BG 7.14|भ.गी. ७.१४]]) "जो मुझे आत्मसमर्पण करता है, वह माया के चंगुल से मुक्त हो जाता है " कैसे कृष्ण माया के तहत हो सकते हैं ? यह बहुत अच्छा तत्वज्ञान नहीं है । केवल कृष्ण को आत्मसमर्पण करके, आप माया से मुक्त हो जाते हैं । कैसे वह व्यक्ति, श्रीभगवान, कृष्ण, माया के तहत हो सकते हैं ? इसलिए कृष्ण नें कहा अवजानन्ति माम मूढा मानुषीम तनुम अाश्रितम परम भावम अजानन्त: ([[HI/BG 9.11|भ.गी. ९.११]]) | उन्हं पता नहीं है कि कितनी शक्ति है भगवान में, वे कितने शक्तिशाली हैं वे अपनी शक्ति के साथ परम भगवान की शक्ति की तुलना कर रहे हैं । मेंढक का तत्वज्ञान ।


:पंथास तु कोटि-शट-वत्सर-संप्रगम्यो
डॉ. मेंढक । मेंढक विचार कर रहा है "अटलांटिक महासागर इस कुऍ से थोडा बड़ा हो सकता है ।" क्योंकि वह हमेशा रह रहा है । कूप-मंडुक-न्याय । यह है, संस्कृत में कहा जाता है, कूप-मंडुक-न्याय । कूप का मतलब है कूआँ, और मंडुक का मतलब है मेंढक । मेंढक हमेशा कुऍ के अंदर रहता हैं और कोई उसे सूचित करता है कि पानी का एक और जलाशय है, अटलांटिक महासागर, वह बस गणना करता है कि "यह इस कुऍ से थोडा अधिक होगा, इस कुऍ से थोडा अधिक ।" लेकिन वह समझ नहीं सकता है कि वे कितने महान हैं ।
:वायोर अथापि मनसो मुनि-पुंगवानाम
:सो अपि अस्ति यत प्रपद-सीम्नि अविचिन्त्य-तत्वे
:गोविन्दम अादि पुरुषम् तम अहम भजामि
:( ब्र स ५।३४)


पंथस तु कोटि-शट-वत्सर-संप्रगम्य: कई लाखों वर्षों के लिए, यदि आप आकाश में प्रगति करते हैं भगवान का पता लगाने के लिए, भगवान कहां हैं... पंथस तु कोटि-शट-वत्सर-संप्रगम्य: वायोर अथापि यह साधारण विमान नहीं, लेकिन हवा के विमान पर, हवा का वेग । या मन । मन का वेग बहुत तीव्र है । तुरन्त, आप यहां बैठे हैं, आपका मन कई लाखों मील दूर जा सकता है अगर अापका विचार है तो । तो या तो मन के विमान पर या हवा के हवाई जहाज से, और कई लाखों साल यात्रा करने के बाद, अाप पता नहीं लगा सकते हैं । पंथास तु कोटि-शट-वत्सर-संप्रगम्यो वायोर अथापि मनसो मुनि-पुंगवानाम ( ब्र स ५।३४) मुनि-पुंगवानाम । साधारण व्यक्ति ही नहीं , लेकिन महान साधू, संत, वे भी नहीं कर सकते हैं ।
तो भगवान महान हैं । हम नहीं समझ सकते हैं कि वे कितने महान हैं ! यह हमारी मूर्खता है । हम बस गणना कर रहे हैं: "वे मुझ से एक इंच अधिक हो सकते हैं । या मुझसे एक फुट अधिक हो सकते हैं ।" वह मानसिक कल्पना है । इसलिए कृष्ण कहते हैं, मनुष्याणाम सहस्रेशु कश्चिद यतति सिद्धये: [[HI/BG 7.3|भ.गी. ७.३]]) "कई लाखों पुरुषों में से, कोई एक अपना जीवन सफल बनाने का प्रयास कर सकता है, निरपेक्ष सत्य को समझ कर ।" और यतताम अपि सिद्धानाम कश्चिन माम वेत्ति तत्वत: [[HI/BG 7.3|भ.गी. ७.३]]) |
 
तो हम अपनी मानसिक अटकलो के द्वारा भगवान को नहीं समझ सकते हैं । न तो हम आत्मा का क्या माप है यह समझ सकते हैं । यह संभव नहीं है । इसलिए हमें सबसे उच्च अधिकारी, कृष्ण, से जानकारी लेनी होगी, भगवान का स्वभाव क्या है, निरपेक्ष सत्य का स्वभाव क्या है, आत्मा का स्वभाव क्या है । हमें सुनना होगा | हमें सुनना होगा । इसलिए वैदिक साहित्य को श्रुति कहा जाता है । आप प्रयोग नहीं कर सकते । यह संभव नहीं है । लेकिन दुर्भाग्य से, लोगों का एक वर्ग है जिन्हे लगता है कि वे प्रयोग कर सकते हैं, वे मानसिक अटकलों से निरपेक्ष का पता कर सकते हैं । ब्रह्मसंहिता का कहना है:
 
:पंथास तु कोटि-शट-वत्सर-संप्रगम्यो
:वायोर अथापि मनसो मुनि-पुंगवानाम
:सो अपि अस्ति यत प्रपद-सीम्नि अविचिन्त्य-तत्वे
:गोविन्दम अादि पुरुषम तम अहम भजामि
:(ब्रह्मसंहिता ५.३४)
 
पंथास तु कोटि-शट-वत्सर-संप्रगम्य: | कई लाखों वर्षों के लिए, यदि आप आकाश में प्रगति करते हैं भगवान का पता लगाने के लिए, भगवान कहां हैं... पंथास तु कोटि-शट-वत्सर-संप्रगम्य: वायोर अथापि | ये साधारण विमान नहीं, लेकिन हवा के विमान पर, हवा का वेग । या मन । मन का वेग बहुत तीव्र है । तुरन्त, आप यहां बैठे हैं, आपका मन कई लाखों मील दूर जा सकता है अगर अापका विचार है तो । तो या तो मन के विमान पर या हवा के हवाई जहाज से, और कई लाखों साल यात्रा करने के बाद, अाप पता नहीं लगा सकते हैं । पंथास तु कोटि-शट-वत्सर-संप्रगम्यो वायोर अथापि मनसो मुनि-पुंगवानाम (ब्रह्मसंहिता ५.३४) | मुनि-पुंगवानाम । साधारण व्यक्ति ही नहीं, लेकिन महान साधू, संत, वे भी नहीं कर सकते हैं ।  
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Latest revision as of 17:45, 1 October 2020



Lecture on BG 2.23 -- Hyderabad, November 27, 1972

तो वास्तव में, परम, निरपेक्ष सत्य का अंतिम शब्द व्यक्ति हैं । लेकिन, लेकिन दुर्भाग्य से, जो मूढ हैं, या कम बुद्धिमान, अवजानन्ति माम मूढा मानुषीम तनुम अाश्रितम (भ.गी. ९.११), "ओह, कृष्ण? वे भगवान हो सकते हैं, लेकिन वे एक व्यक्ति बनें, माया की मदद लेकर ।" यह मायावाद तत्वज्ञान है । वे माया का अध्ययन कर रहे हैं, वे भगवान को भी माया के तहत डालते हैं । यह मायावाद तत्वज्ञान है । लेकिन भगवान माया नहीं हैं । भगवान माया द्वारा कभी ढके नहीं जाते हैं ।

कृष्ण कहते हैं कि माम एव प्रपद्यन्ते मायाम एताम तरन्ति ते (भ.गी. ७.१४) "जो मुझे आत्मसमर्पण करता है, वह माया के चंगुल से मुक्त हो जाता है ।" कैसे कृष्ण माया के तहत हो सकते हैं ? यह बहुत अच्छा तत्वज्ञान नहीं है । केवल कृष्ण को आत्मसमर्पण करके, आप माया से मुक्त हो जाते हैं । कैसे वह व्यक्ति, श्रीभगवान, कृष्ण, माया के तहत हो सकते हैं ? इसलिए कृष्ण नें कहा अवजानन्ति माम मूढा मानुषीम तनुम अाश्रितम परम भावम अजानन्त: (भ.गी. ९.११) | उन्हं पता नहीं है कि कितनी शक्ति है भगवान में, वे कितने शक्तिशाली हैं । वे अपनी शक्ति के साथ परम भगवान की शक्ति की तुलना कर रहे हैं । मेंढक का तत्वज्ञान ।

डॉ. मेंढक । मेंढक विचार कर रहा है "अटलांटिक महासागर इस कुऍ से थोडा बड़ा हो सकता है ।" क्योंकि वह हमेशा रह रहा है । कूप-मंडुक-न्याय । यह है, संस्कृत में कहा जाता है, कूप-मंडुक-न्याय । कूप का मतलब है कूआँ, और मंडुक का मतलब है मेंढक । मेंढक हमेशा कुऍ के अंदर रहता हैं और कोई उसे सूचित करता है कि पानी का एक और जलाशय है, अटलांटिक महासागर, वह बस गणना करता है कि "यह इस कुऍ से थोडा अधिक होगा, इस कुऍ से थोडा अधिक ।" लेकिन वह समझ नहीं सकता है कि वे कितने महान हैं ।

तो भगवान महान हैं । हम नहीं समझ सकते हैं कि वे कितने महान हैं ! यह हमारी मूर्खता है । हम बस गणना कर रहे हैं: "वे मुझ से एक इंच अधिक हो सकते हैं । या मुझसे एक फुट अधिक हो सकते हैं ।" वह मानसिक कल्पना है । इसलिए कृष्ण कहते हैं, मनुष्याणाम सहस्रेशु कश्चिद यतति सिद्धये: भ.गी. ७.३) "कई लाखों पुरुषों में से, कोई एक अपना जीवन सफल बनाने का प्रयास कर सकता है, निरपेक्ष सत्य को समझ कर ।" और यतताम अपि सिद्धानाम कश्चिन माम वेत्ति तत्वत: भ.गी. ७.३) |

तो हम अपनी मानसिक अटकलो के द्वारा भगवान को नहीं समझ सकते हैं । न तो हम आत्मा का क्या माप है यह समझ सकते हैं । यह संभव नहीं है । इसलिए हमें सबसे उच्च अधिकारी, कृष्ण, से जानकारी लेनी होगी, भगवान का स्वभाव क्या है, निरपेक्ष सत्य का स्वभाव क्या है, आत्मा का स्वभाव क्या है । हमें सुनना होगा | हमें सुनना होगा । इसलिए वैदिक साहित्य को श्रुति कहा जाता है । आप प्रयोग नहीं कर सकते । यह संभव नहीं है । लेकिन दुर्भाग्य से, लोगों का एक वर्ग है जिन्हे लगता है कि वे प्रयोग कर सकते हैं, वे मानसिक अटकलों से निरपेक्ष का पता कर सकते हैं । ब्रह्मसंहिता का कहना है:

पंथास तु कोटि-शट-वत्सर-संप्रगम्यो
वायोर अथापि मनसो मुनि-पुंगवानाम
सो अपि अस्ति यत प्रपद-सीम्नि अविचिन्त्य-तत्वे
गोविन्दम अादि पुरुषम तम अहम भजामि
(ब्रह्मसंहिता ५.३४)

पंथास तु कोटि-शट-वत्सर-संप्रगम्य: | कई लाखों वर्षों के लिए, यदि आप आकाश में प्रगति करते हैं भगवान का पता लगाने के लिए, भगवान कहां हैं... पंथास तु कोटि-शट-वत्सर-संप्रगम्य: वायोर अथापि | ये साधारण विमान नहीं, लेकिन हवा के विमान पर, हवा का वेग । या मन । मन का वेग बहुत तीव्र है । तुरन्त, आप यहां बैठे हैं, आपका मन कई लाखों मील दूर जा सकता है अगर अापका विचार है तो । तो या तो मन के विमान पर या हवा के हवाई जहाज से, और कई लाखों साल यात्रा करने के बाद, अाप पता नहीं लगा सकते हैं । पंथास तु कोटि-शट-वत्सर-संप्रगम्यो वायोर अथापि मनसो मुनि-पुंगवानाम (ब्रह्मसंहिता ५.३४) | मुनि-पुंगवानाम । साधारण व्यक्ति ही नहीं, लेकिन महान साधू, संत, वे भी नहीं कर सकते हैं ।