HI/Prabhupada 0600 - हम आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार नहीं हैं । यह हमारा भौतिक रोग है: Difference between revisions
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तो चैतन्य महाप्रभु, क्योंकि लोग कृष्ण को गलत समझते हैं ... कृष्ण नें भगवद गीता में | तो चैतन्य महाप्रभु, क्योंकि लोग कृष्ण को गलत समझते हैं... कृष्ण नें भगवद गीता में कहा कि "तुम मुझे आत्मसमर्पण करो ।" वे क्या कर सकते हैं ? वे भगवान हैं । वे कृष्ण हैं । वे वहाँ हैं, आपसे कहते हैं, आदेश देते हैं: "तुम आत्मसमर्पण करो । मैं तुम्हारी जिम्मेदारी लेता हूँ ।" | ||
:तद विद्धि प्रणिपातेन | अहम त्वाम सर्व-पाप... लेकिन फिर भी, लोग गलत समझते हैं: "ओह, मैं क्यों कृष्ण को आत्मसमर्पण करूँ ? वह भी मेरे जैसे एक आदमी है । शायद थोड़े से महत्वपूर्ण । लेकिन क्यों मैं उनको आत्मसमर्पण करूँ ?" क्योंकि यहाँ भौतिक रोग है आत्मसमर्पण न करने का । हर कोई घमंडी है: "मैं कुछ हूँ ।" यह भौतिक बीमारी है । इसलिए इस भौतिक बीमारी से ठीक होने के लिए, आप को आत्मसमर्पण करना होगा । | ||
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तो जब तक अाप आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार नहीं हो... भौतिकवादी व्यक्ति के लिए यह एक बड़ा मुश्किल काम है । कोई भी आत्मसमर्पण करना नहीं चाहता है । वह प्रतिस्पर्धा करना चाहता है । व्यक्तिगत रूप से, व्यक्ति से व्यक्ति, परिवार से परिवार, राष्ट्र से राष्ट्र, हर कोई मालिक बनने की कोशिश कर रहा है । समर्पण का सवाल कहां है? आत्मसमर्पण करने का कोई सवाल ही नहीं है । तो यह रोग है । इसलिए कृष्ण अादेश देते हैं कि इस धूर्तता का, या सबसे पुरानी बीमारी का, इलाज करने के लिए, तुम आत्मसमर्पण करो | | |||
सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज ([[HI/BG 18.66|भ.गी. १८.६६]]) | "फिर? अगर मैं समर्पण करता हूँ, तो पूरी बात विफल हो जाएगी ? मेरा व्यापार, मेरी योजना, मेरी, कई चीज़े...?" नहीं । "मैं तुम्हारी जिम्मेदारी लेता हूँ । मैं तुम्हारी जिम्मेदारी लेता हूँ ।" अहम त्वाम सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: | "चिंता मत करो ।" इतना आश्वासन है । फिर भी, हम आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार नहीं हैं । यह हमारा भौतक रोग है । इसलिए कृष्ण फिर से अाए एक भक्त के रूप में केवल दिखाने के लिए कि कृष्ण को आत्मसमर्पण कैसे करना है । चैतन्य महाप्रभु । कृष्ण-वर्णम त्विषाकृष्णम सांगोपांगास्त्र पार्षदम ([[Vanisource:SB 11.5.32|श्रीमद भागवतम ११.५.३२]]) | | |||
तो | तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन बहुत ही वैज्ञानिक और अधिकृत है । यह एक फर्जी बात नहीं है, मन के द्वारा निर्मित कोई मनगढ़ंत कहानी । यह अधिकृत है, वैदिक शिक्षा पर आधारित, जैसे कृष्ण कहते हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज ([[HI/BG 18.66|भ.गी. १८.६६]]) । इसलिए हम केवल यह तत्वझान को पढ़ाते हैं, कि अाप ... कृष्ण, यहाँ कृष्ण हैं, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान । अाप भगवान को खोज रहे हैं । अाप समझ नहीं सकते हैं कि भगवान क्या हैं । यहां भगवान हैं, कृष्ण । उनका नाम, उनकी गतिविधियों, सब कुछ भगवद गीता में है । आप स्वीकार करो और उन्हे आत्मसमर्पण करो । और जैसा कि कृष्ण कहते हैं, मन मना भव मद-भक्तो मद्याजी माम नमस्कुरु ([[HI/BG 18.65|भ.गी. १८.६५]]) | | ||
तो हम वही बात बोल रहे हैं । जो यह भगवद गीता में कहा गया है । हम गलत अर्थ नहीं निकालते हैं । हम पूरे भगवद गीता को खराब नहीं करते हैं । हम यह बदमाशी नहीं करते । कभी कभी लोग कहते हैं, "स्वामीजी, आपने अद्भुत काम किया है ।" लेकिन क्या अद्भुत ? मैं एक जादूगर नहीं हूँ । मेरा श्रेय केवल यह है कि मैंने भगवद गीता को खराब नहीं किया है । मैंने यथार्थ प्रस्तुत किया है । इसलिए यह सफल रहा है । | |||
बहुत बहुत धन्यवाद । हरे कृष्ण । (समाप्त) | बहुत बहुत धन्यवाद । हरे कृष्ण । (समाप्त) | ||
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020
Lecture on BG 2.23 -- Hyderabad, November 27, 1972
तो चैतन्य महाप्रभु, क्योंकि लोग कृष्ण को गलत समझते हैं... कृष्ण नें भगवद गीता में कहा कि "तुम मुझे आत्मसमर्पण करो ।" वे क्या कर सकते हैं ? वे भगवान हैं । वे कृष्ण हैं । वे वहाँ हैं, आपसे कहते हैं, आदेश देते हैं: "तुम आत्मसमर्पण करो । मैं तुम्हारी जिम्मेदारी लेता हूँ ।"
अहम त्वाम सर्व-पाप... लेकिन फिर भी, लोग गलत समझते हैं: "ओह, मैं क्यों कृष्ण को आत्मसमर्पण करूँ ? वह भी मेरे जैसे एक आदमी है । शायद थोड़े से महत्वपूर्ण । लेकिन क्यों मैं उनको आत्मसमर्पण करूँ ?" क्योंकि यहाँ भौतिक रोग है आत्मसमर्पण न करने का । हर कोई घमंडी है: "मैं कुछ हूँ ।" यह भौतिक बीमारी है । इसलिए इस भौतिक बीमारी से ठीक होने के लिए, आप को आत्मसमर्पण करना होगा ।
- तद विद्धि प्रणिपातेन
- परिप्रश्नेन सेवया
- उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानम
- ज्ञानिनस तत्व दर्शिन:
- (भ.गी. ४.३४) |
तो जब तक अाप आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार नहीं हो... भौतिकवादी व्यक्ति के लिए यह एक बड़ा मुश्किल काम है । कोई भी आत्मसमर्पण करना नहीं चाहता है । वह प्रतिस्पर्धा करना चाहता है । व्यक्तिगत रूप से, व्यक्ति से व्यक्ति, परिवार से परिवार, राष्ट्र से राष्ट्र, हर कोई मालिक बनने की कोशिश कर रहा है । समर्पण का सवाल कहां है? आत्मसमर्पण करने का कोई सवाल ही नहीं है । तो यह रोग है । इसलिए कृष्ण अादेश देते हैं कि इस धूर्तता का, या सबसे पुरानी बीमारी का, इलाज करने के लिए, तुम आत्मसमर्पण करो |
सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज (भ.गी. १८.६६) | "फिर? अगर मैं समर्पण करता हूँ, तो पूरी बात विफल हो जाएगी ? मेरा व्यापार, मेरी योजना, मेरी, कई चीज़े...?" नहीं । "मैं तुम्हारी जिम्मेदारी लेता हूँ । मैं तुम्हारी जिम्मेदारी लेता हूँ ।" अहम त्वाम सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: | "चिंता मत करो ।" इतना आश्वासन है । फिर भी, हम आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार नहीं हैं । यह हमारा भौतक रोग है । इसलिए कृष्ण फिर से अाए एक भक्त के रूप में केवल दिखाने के लिए कि कृष्ण को आत्मसमर्पण कैसे करना है । चैतन्य महाप्रभु । कृष्ण-वर्णम त्विषाकृष्णम सांगोपांगास्त्र पार्षदम (श्रीमद भागवतम ११.५.३२) |
तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन बहुत ही वैज्ञानिक और अधिकृत है । यह एक फर्जी बात नहीं है, मन के द्वारा निर्मित कोई मनगढ़ंत कहानी । यह अधिकृत है, वैदिक शिक्षा पर आधारित, जैसे कृष्ण कहते हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज (भ.गी. १८.६६) । इसलिए हम केवल यह तत्वझान को पढ़ाते हैं, कि अाप ... कृष्ण, यहाँ कृष्ण हैं, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान । अाप भगवान को खोज रहे हैं । अाप समझ नहीं सकते हैं कि भगवान क्या हैं । यहां भगवान हैं, कृष्ण । उनका नाम, उनकी गतिविधियों, सब कुछ भगवद गीता में है । आप स्वीकार करो और उन्हे आत्मसमर्पण करो । और जैसा कि कृष्ण कहते हैं, मन मना भव मद-भक्तो मद्याजी माम नमस्कुरु (भ.गी. १८.६५) |
तो हम वही बात बोल रहे हैं । जो यह भगवद गीता में कहा गया है । हम गलत अर्थ नहीं निकालते हैं । हम पूरे भगवद गीता को खराब नहीं करते हैं । हम यह बदमाशी नहीं करते । कभी कभी लोग कहते हैं, "स्वामीजी, आपने अद्भुत काम किया है ।" लेकिन क्या अद्भुत ? मैं एक जादूगर नहीं हूँ । मेरा श्रेय केवल यह है कि मैंने भगवद गीता को खराब नहीं किया है । मैंने यथार्थ प्रस्तुत किया है । इसलिए यह सफल रहा है ।
बहुत बहुत धन्यवाद । हरे कृष्ण । (समाप्त)