HI/Prabhupada 0626 - अगर तुम तथ्यात्मक बातें जानना चाहते हो, तो तुम्हे आचार्य के पास जाना होगा

Revision as of 17:42, 1 October 2020 by Elad (talk | contribs) (Text replacement - "(<!-- (BEGIN|END) NAVIGATION (.*?) -->\s*){2,15}" to "<!-- $2 NAVIGATION $3 -->")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)


Lecture on BG 2.13 -- Pittsburgh, September 8, 1972

इसलिए सुनने की प्रक्रिया बहुत महत्वपूर्ण है । इसलिए हमारा यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन यह प्रचार करने के लिए है "तुम अधिकारी से, कृष्ण से, सुनो ।" कृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं । यह वर्तमान युग में और अतीत में स्वीकार किया गया है । पिछले युग में, महान संत जैसे नारद, व्यास, असित, देवल, बहुत, बहुत महान दिग्गज विद्वान और संत, उन्होंने स्वीकार किया । मध्य युग में, मान लीजिए १५०० साल पहले, सभी अाचार्य जैसे शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निंबार्क... व्यावहारिक रूप से, भारतीय वैदिक सभ्यता, यह अभी भी इन अाचार्यों के अधिकार पर विद्यमान है । और यह भगवद गीता में सुझाव दिया गया है कि: अाचार्योपासनम ।

अगर तुम तथ्यात्मक बातें जानना चाहते हो, तो तुम्हे आचार्य के पास जाना होगा । आचार्यवान पुरुषो वेद "जिसने आचार्य स्वीकार कया है, वह चीज़ों को यथार्थ जानता है ।" आचार्यवान पुरुषो वेद । इसलिए हम अाचार्यों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं । श्री कृष्ण नें अर्जुन से बात की, अर्जुन नें व्यासदेव से बात की । अर्जुन नें वास्तव में व्यासदेव से बात नहीं की थी, लेकिन व्यासदेव नें यह सुना, कृष्ण बोले और उन्होंने अपनी पुस्तक महाभारत में उल्लेख किया । यह भगवद गीता महाभारत में पाई जाती है । इसलिए हम व्यास का अधिकारी होना स्वीकार करते हैं । और व्यास से, मध्वाचार्य; मध्वाचार्य से, इतनी सारी परम्पारा में, माधवेन्द्रपूरी तक । फिर माधवेन्द्रपूरी से ईश्वर पुरी; ईश्वर पुरी से भगवान चैतन्यदेव तक; प्रभु चैतन्यदेव से छह गोस्वामी तक; छह गोस्वामी से कृष्णदास कविराज तक; उनसे श्रीनिवास आचार्य; उनसे विश्वनाथ चक्रवर्ति; उनसे जगन्नाथ दास बाबाजी; फिर गौर किशोर दास बाबाजी; भक्तिविनोद ठाकुर; मेरे आध्यात्मिक गुरु ।

वही बात, हम प्रचार कर रहे हैं । यही कृष्ण भावनामृत आंदोलन है । यह कोई नई बात नहीं है । यह मूल वक्ता, श्री कृष्ण से चल आ रही है, परम्परा में । तो हम इस भगवद गीता को पढ़ रहे हैं । एसा नहीं है कि मैंने कोई पुस्तक का निर्माण किया है और मैं उपदेश दे रहा हूँ । नहीं, मैं भगवद गीता का प्रचार कर रहा हूँ । वही भगवद गीता जो चार करोड़ साल पहले सूर्य देव को कही गइ थी और फिर से दोहराई गई थी पांच हजार साल पहले अर्जुन को । वही बात परम्परा से चली आ रही है, और वही बात तुम्हारे सामने पेश कर रहे हैं । कोई परिवर्तन नहीं है । इसलिए प्राधिकरण का कहना है,

देहिनो अस्मिन यथा देहे
कौमारम् यौवनम जरा,
तथा देहान्तर प्राप्तिर
धीरस तत्र न मुह्यति
(भ.गी. २.१३)

तो हम लोगों को केवल यह अनुरोध करते हैं कि अाप इस आधिकारिक ज्ञान को स्वीकार करें, और अपनी बुद्धि से इसको आत्मसात करने का प्रयास करें । यह नहीं है कि तुम अपने तर्क और बुद्धि को रोक लो, बस आँख बंद करके कुछ स्वीकार करो । नहीं, हम मनुष्य हैं, हमारे पास बुद्धि है । हम जानवर नहीं हैं कि कुछ स्वीकार करने के लिए मजबूर हों । नहीं । तद विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया (भ.गी. ४.३४) | भगवद गीता में आप पाऍगे । तुम समझने की कोशिश करो, तद विद्धि | विद्धि का मतलब है समझने की कोशिश । प्रणिपात । प्रणिपातेन का मतलब है समर्पण, चुनौती से नहीं । एक शिष्य को आध्यात्मिक गुरु के प्रति विनम्र होना चाहिए । अन्यथा, वह होगा, मेरे कहने का मतलब है, भ्रमित । विनम्रता से सुनना । हमारी प्रक्रिया है...

तस्माद गुरुम प्रपद्येत,
जिज्ञासु: श्रेय उत्तमम,
शब्दे परे च निष्णातम,
ब्रह्मणि उपशमाश्रयम
(श्रीमद भागवतम ११.३.२१)

यह वैदिक आज्ञा है । अगर तुम अपने समझ से परे जो बातें हैं वह जानना चाहते हो, अपनी इन्द्रियों की क्षमता से परे, तो तुम्हे एक वास्तविक आध्यात्मिक गुरु के पास जाना होगा ।