HI/Prabhupada 0630 - शोक का कोई कारण नहीं है, क्योंकी आत्मा रहेगी: Difference between revisions

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भक्त: अनुवाद: "सरे जीव प्रारम्भ में अव्यक्त रहते हैं, मध्य अवस्था में व्यक्त होते हैं, और विनष्ट होने पर पुन: अव्यक्त हो जाते हैं । अत: शोक करने की क्या अावश्यक्ता है? "
भक्त: अनुवाद: "सारे जीव प्रारम्भ में अव्यक्त रहते हैं, मध्य अवस्था में व्यक्त होते हैं, और विनष्ट होने पर पुन: अव्यक्त हो जाते हैं । तो शोक करने की क्या अावश्यक्ता है? "  


प्रभुपाद: तो आत्मा शाश्वत है । तो कुछ नहीं है, शोक का कोई कारण नहीं है, क्योंकी आत्मा रहेगी । यहां तक ​​कि शरीर नष्ट भी हो जाता है, शोक का कोई कारण नहीं है । और जो यह नहीं विश्वास करते हैं " कोई आत्मा नहीं है, सब कुछ शुरुआत में शून्य था, ..." तो शुरुआत में शून्य था और बीच में यह प्रकट होता है । अौर फिर यह शून्य हो जाता है । तो शून्य से शून्य, शोक कहाँ है? यह तर्क कृष्ण दे रहा हैं । दोनों तरीकों से तुम विलाप नहीं कर सकते । तो फिर?
प्रभुपाद: तो आत्मा शाश्वत है । तो कुछ नहीं है, शोक का कोई कारण नहीं है, क्योंकी आत्मा रहेगी । यहां तक ​​कि शरीर नष्ट भी हो जाता है, शोक का कोई कारण नहीं है । और जो यह विश्वास नहीं करते हैं "कोई आत्मा नहीं है, सब कुछ शुरुआत में शून्य था,..." तो शुरुआत में शून्य था और बीच में यह प्रकट होता है । अौर फिर यह शून्य हो जाता है । तो शून्य से शून्य, शोक कहाँ है? यह तर्क कृष्ण दे रहे हैं । दोनों तरीकों से तुम विलाप नहीं कर सकते । फिर?  


प्रद्युम्न: (तात्पर्य) "यदि हम तर्क की लिए इस नास्तिकतावादी सिद्धांत को मान भी लें, तो भी शोक करने का कोई कारण नहीं है । अात्मा के पृथक अस्तित्व से भिन्न सारे भौतिक तत्व सृष्टि के पूर्व अदृश्य रहते हैं । इस अदृष्य रहने की सूक्ष्म अवस्था से ही दृष्य अवस्था अाती है । जिस प्रकार आकाश से वायु उत्पन्न होती है, वायु से अग्नि, अग्नि से जल; और जल से, पृथ्वी उत्पन्न होती है । पृथ्वी से अनेक प्रकार के पदार्थ प्रकट होते हैं....."
प्रद्युम्न: (तात्पर्य) "यदि हम तर्क की लिए इस नास्तिकतावादी सिद्धांत को मान भी लें, तो भी शोक करने का कोई कारण नहीं है । अात्मा के पृथक अस्तित्व से भिन्न सारे भौतिक तत्व सृष्टि के पूर्व अदृश्य रहते हैं । इस अदृष्य रहने की सूक्ष्म अवस्था से ही दृष्य अवस्था अाती है । जिस प्रकार आकाश से वायु उत्पन्न होती है, वायु से अग्नि, अग्नि से जल; और जल से, पृथ्वी उत्पन्न होती है । पृथ्वी से अनेक प्रकार के पदार्थ प्रकट होते हैं..."  


प्रभुपाद: इस सृष्टि की प्रक्रिया है । आकाश से, फिर आसमान, फिर वायु, फिर अग्नि, फिर जल, फिर पृथ्वी । यह सृष्टि की प्रक्रिया है । हां ।
प्रभुपाद: ये सृष्टि की प्रक्रिया है । आकाश से, फिर आसमान, फिर वायु, फिर अग्नि, फिर जल, फिर पृथ्वी । यह सृष्टि की प्रक्रिया है । हां ।  


प्रद्युम्न: "यथा एल विशाल गगनचुम्बी महल पृथ्वी से ही प्रकट है । जब इसे ध्वस्त कर दिया जाता है, तो वह अदृष्य हो जाता है, अौर अन्तत: परमाणु रूप में बना रहता है । शक्ति-संरक्षण का नियम बना रहता है, किन्तु कालक्रम से वस्तुऍ प्रकट तथा अप्रकट होती रहती हैं । अंतर इतना ही है । अत: प्रकट होने या अप्रकट होने पर शोक करने का कोई कारण नहीं है । यहां तक ​​कि अप्रकट अवस्था में भी वस्तुऍ समाप्त नहीं होतीं । प्रारम्भिक तथा अन्तिम दोनों अवस्थाअों में ही सारे तत्व अप्रकट रहते हैं और केवल मध्य में वे प्रकट होते हैं, और इश्र तरह इससे कोई वास्तविक अंतर नहीं पड़ता । और यदि हम भगवद गीता के इस वैदिक निष्कर्ष को मानते हैं (अन्तवन्त इमे देहा:) कि ये भौतिक शरीर कालक्रम में नाशवान हैं (नित्यसयोक्ता: शरीरिण:) किन्तु आत्मा शाश्वत है, तो हमें सदा यह स्मरण रखना होगा कि यह शरीर वस्त्र (परिधान) के समान है । अत: वस्त्र परिवर्तन होने पर शोक क्यों ? शाश्वत आत्मा की तुलना में भौतिक शरीर का कोई यथार्थ अस्तित्व नहीं होता । यह स्वप्न के समान है । स्वप्न में हम अाकाश में उडते या राजा की भाँति रथ पर अारूढ हो सकते हैं, किन्तु जागने पर देखते हैं कि न तो हम अाकाश में हैं, न रथ पर । वैदिक ज्ञान आत्म - साक्षातकार को भौतिक शरीर के अनस्तित्व के आधार पर प्रोत्साहन देता है । अत: चाहे हम अात्मा के अस्तित्व को मानें या न मानें शरीर-नाश के लिए शोक करने का कोई कारण नहीं है ।"
प्रद्युम्न: "उदाहरण के तौर पे एक विशाल गगनचुम्बी इमारत पृथ्वी से ही प्रकट है । जब इसे ध्वस्त कर दिया जाता है, तो वह अदृष्य हो जाता है, अौर अन्तत: परमाणु रूप में बना रहता है । शक्ति-संरक्षण का नियम बना रहता है, किन्तु कालक्रम से वस्तुऍ प्रकट तथा अप्रकट होती रहती हैं । अंतर इतना ही है । अत: प्रकट होने या अप्रकट होने पर शोक करने का कोई कारण नहीं है । यहां तक ​​कि अप्रकट अवस्था में भी वस्तुऍ समाप्त नहीं होतीं ।  
 
प्रारम्भिक तथा अन्तिम दोनों अवस्थाअों में ही सारे तत्व अप्रकट रहते हैं, और केवल मध्य में वे प्रकट होते हैं, और इस तरह इससे कोई वास्तविक अंतर नहीं पड़ता । और यदि हम भगवद गीता के इस वैदिक निष्कर्ष को मानते हैं (अन्तवन्त इमे देहा:) कि ये भौतिक शरीर कालक्रम में नाशवान हैं (नित्यस्योक्ता: शरीरिण:) किन्तु आत्मा शाश्वत है, तो हमें सदा यह स्मरण रखना होगा कि यह शरीर वस्त्र (परिधान) के समान है ।  
 
अत: वस्त्र परिवर्तन होने पर शोक क्यों ? शाश्वत आत्मा की तुलना में भौतिक शरीर का कोई यथार्थ अस्तित्व नहीं होता । यह स्वप्न के समान है । स्वप्न में हम अाकाश में उडते या राजा की भाँति रथ पर अारूढ हो सकते हैं, किन्तु जागने पर देखते हैं कि न तो हम अाकाश में हैं, न रथ पर । वैदिक ज्ञान आत्म-साक्षातकार को भौतिक शरीर के अनस्तित्व के आधार पर प्रोत्साहन देता है । अत: चाहे हम अात्मा के अस्तित्व को मानें या न मानें, शरीर-नाश के लिए शोक करने का कोई कारण नहीं है ।"  
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020



Lecture on BG 2.28 -- London, August 30, 1973

भक्त: अनुवाद: "सारे जीव प्रारम्भ में अव्यक्त रहते हैं, मध्य अवस्था में व्यक्त होते हैं, और विनष्ट होने पर पुन: अव्यक्त हो जाते हैं । तो शोक करने की क्या अावश्यक्ता है? "

प्रभुपाद: तो आत्मा शाश्वत है । तो कुछ नहीं है, शोक का कोई कारण नहीं है, क्योंकी आत्मा रहेगी । यहां तक ​​कि शरीर नष्ट भी हो जाता है, शोक का कोई कारण नहीं है । और जो यह विश्वास नहीं करते हैं "कोई आत्मा नहीं है, सब कुछ शुरुआत में शून्य था,..." तो शुरुआत में शून्य था और बीच में यह प्रकट होता है । अौर फिर यह शून्य हो जाता है । तो शून्य से शून्य, शोक कहाँ है? यह तर्क कृष्ण दे रहे हैं । दोनों तरीकों से तुम विलाप नहीं कर सकते । फिर?

प्रद्युम्न: (तात्पर्य) "यदि हम तर्क की लिए इस नास्तिकतावादी सिद्धांत को मान भी लें, तो भी शोक करने का कोई कारण नहीं है । अात्मा के पृथक अस्तित्व से भिन्न सारे भौतिक तत्व सृष्टि के पूर्व अदृश्य रहते हैं । इस अदृष्य रहने की सूक्ष्म अवस्था से ही दृष्य अवस्था अाती है । जिस प्रकार आकाश से वायु उत्पन्न होती है, वायु से अग्नि, अग्नि से जल; और जल से, पृथ्वी उत्पन्न होती है । पृथ्वी से अनेक प्रकार के पदार्थ प्रकट होते हैं..."

प्रभुपाद: ये सृष्टि की प्रक्रिया है । आकाश से, फिर आसमान, फिर वायु, फिर अग्नि, फिर जल, फिर पृथ्वी । यह सृष्टि की प्रक्रिया है । हां ।

प्रद्युम्न: "उदाहरण के तौर पे एक विशाल गगनचुम्बी इमारत पृथ्वी से ही प्रकट है । जब इसे ध्वस्त कर दिया जाता है, तो वह अदृष्य हो जाता है, अौर अन्तत: परमाणु रूप में बना रहता है । शक्ति-संरक्षण का नियम बना रहता है, किन्तु कालक्रम से वस्तुऍ प्रकट तथा अप्रकट होती रहती हैं । अंतर इतना ही है । अत: प्रकट होने या अप्रकट होने पर शोक करने का कोई कारण नहीं है । यहां तक ​​कि अप्रकट अवस्था में भी वस्तुऍ समाप्त नहीं होतीं ।

प्रारम्भिक तथा अन्तिम दोनों अवस्थाअों में ही सारे तत्व अप्रकट रहते हैं, और केवल मध्य में वे प्रकट होते हैं, और इस तरह इससे कोई वास्तविक अंतर नहीं पड़ता । और यदि हम भगवद गीता के इस वैदिक निष्कर्ष को मानते हैं (अन्तवन्त इमे देहा:) कि ये भौतिक शरीर कालक्रम में नाशवान हैं (नित्यस्योक्ता: शरीरिण:) किन्तु आत्मा शाश्वत है, तो हमें सदा यह स्मरण रखना होगा कि यह शरीर वस्त्र (परिधान) के समान है ।

अत: वस्त्र परिवर्तन होने पर शोक क्यों ? शाश्वत आत्मा की तुलना में भौतिक शरीर का कोई यथार्थ अस्तित्व नहीं होता । यह स्वप्न के समान है । स्वप्न में हम अाकाश में उडते या राजा की भाँति रथ पर अारूढ हो सकते हैं, किन्तु जागने पर देखते हैं कि न तो हम अाकाश में हैं, न रथ पर । वैदिक ज्ञान आत्म-साक्षातकार को भौतिक शरीर के अनस्तित्व के आधार पर प्रोत्साहन देता है । अत: चाहे हम अात्मा के अस्तित्व को मानें या न मानें, शरीर-नाश के लिए शोक करने का कोई कारण नहीं है ।"